Tuesday 5 July 2016

व्यर्थ के आँसू

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

सभी काटते जीवन में तन्हा ही,
अपनी विरह-भरी विभावरी,
व्यर्थ लुटाते गम में चिर सुख की निधि,
न बट सकी, न घट सकी,
अपने-अपने हिस्से की विरह-घिरी विभावरी।

घटते ना जीवन के कुछ गम,
दुख में करते रोदन-गायन,
व्यर्थ ही जाते ये मोतियों से छलकते आँसू,
न बट सकी, ना ही घटी,
अपने-अपने हिस्से की तम भरी विभावरी।

शायद जीवन इस जग में मुझ जैसा ही सबका!

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