Sunday 4 December 2016

क्या महज कल्पना?

क्युँ मैं हर पल सोचता हूँ बस तुमको ही,
यह जानकर भी कि तुम महज इक कल्पना नहीं,
इक स्वर, इक रूप साकार सी हो तुम,
जागृत सपनों में रची बसी मूर्त स्वरूप हो तुम,
विचरती हो कहीं न कहीं इन्ही हवाओं में,
गाती हो धुन कोई इन्ही फिजाओं में,
फिर भी, न जाने क्यूँ ढूंढता हूँ मैं तुम्हें ख्यालों में!

क्यूँ ये मन सोचता है हर पल तुझको ही सवालों में?

लगता है कभी, जैसे बिखरे से होंगे बाल तेरे,
रख न पाती होगी खुद अपना ख्याल तुम,
गुम सी हो चुकी हो, उलझनों में जिंदगी की कहीं,
पर तुम परेशानियाँ अपनी बयाँ करती नही,
संभालकर दामन के काटें रख रही हो सहेजकर,
पर...! क्यूँ मैं करता हूँ हर पल तेरी फिकर?

क्यूँ! बस तुझको ही, ये मन सोचता है हर पल इधर?

रब से मैं मांग लेता हूँ, बस तेरी ही खैरो-खबर,
दुआएँ तुझको मिले, नजरें तू फेरे जिधर,
बिखरी हुई तेरी जिन्दगी, बस पल में यूँ ही जाए सँवर,
मिल जाए तुझको हर परेशानियों के हल,
सँवरती ही रहो, जब भी ख्यालों में तुम करो सफर,
फिर सोचता हूँ मैं, अधिकार क्या है मेरा तुम पर?

क्यूँ! ये मन तुझको सोचकर, बस करता है तेरी फिकर?

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