Tuesday 28 November 2017

मैं, बस मैं नहीं

मैं, बस इक मैं ही नहीं.....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रव हूँ, इक धुन हूँ,
हृदय हूँ, आलिंगन हूँ, इक स्पंदन हूँ,
गीत हूँ, गीतों का सरगम हूँ
गूंजता हूँ हवाओं में,
संगीत बन यादों में बस जाता हूँ,
गुनगुनाता हूँ मन में, यूँ मन को तड़पाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं........
इक दिल हूँ, इक धड़कन हूँ,
भावुक हूँ कुछ, थोड़ा बह जाता हूँ,
बंधकर पीड़ा में रह जाता हूँ,
खो जाता हूँ खुद में,
औरों के गम में आहत हो जाता हूँ,
विलखता हूँ मन में, एकान्त जब होता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक रोश हूँ, इक आक्रोश हूँ,
गर्म खून हूँ, जुल्म से उबल जाता हूँ,
चुभती बात कहाँ सह पाता हूँ,
विरुद्ध हूँ मैं दमन के,
खुली चुनौती देकर लड़ जाता हूँ,
कलपता हूँ मन में, प्रभावित मैं होता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक राह हूँ, इक प्रवाह हूँ,
कभी रुकता हूँ, कभी चल पड़ता हूँ,
जूझकर रोड़ों से गिर पड़ता हूँ,
समाहित हूँ मैं खुद में,
यूँ राह प्रशस्त कर बढ़ जाता हूँ,
छलकता हूँ मन में, यूँ बस संभल जाता हूँ.....

मैं, बस इक मैं ही नहीं.........
इक जीव हूँ, इक जीवन हूँ, 
कभी सही हूँ, तो कभी गलत भी हूँ,
खबर नहीं है की सत्यकाम हूँ,
सत्यापित हूँ मैं खुद में,
बस जीवन को जीता जाता हूँ,
इठलाता हूँ मन में, यूँ खुद को बहलाता हूँ....

मैं, बस इक मैं ही नहीं....इक जीवन दर्पण हूँ.....!

Sunday 26 November 2017

24 बरस

दो युग बीत चुके, कुछ बीत चुके हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, बीत चुके है वो दिन,
यूँ जैसे झपकी हों ये पलकें,
मूँद गई हों ये आँखे, कुछ क्षण को,
उभरी हों, कुछ सुलझी अनसुलझी तस्वीरें,
वो सपने, है बेहद ही रंगीन!
फिर सपने वही, वापस ले आया ये मौसम....

कितनी ऋतुएँ, कितने ही मौसम बदले, 
भीगे पलकों के सावन बदले,
कब आई पतझड़, जाने कब गई,
अपलक नैनों में, इक तेरी है तस्वीर वही,
वो सादगी, है बेहद ही रंगीन!
फिर फागुन वही, वापस ले आया ये मौसम....

बाँकी है ये जीवन, अब कुछ पलक्षिण,
थोड़ी सी बीत चुकी हैं साँसें, 
एहसास रीत चुके हैं साँसों में कई,
बची साँसों में, है बस इक एहसास वही,
वो एहसास, है बेहद ही रंगीन!
फिर बसंत वही, वापस ले आया ये मौसम....

बीते है 24 बरस, कुछ बीते है हम,
फिर बहार वही, वापस ले आया ये मौसम....

Saturday 25 November 2017

अनन्त प्रणयिनी

कलकल सी वो निर्झरणी,
चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी,
दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

छमछम सी वो नृत्यकला,
चिर यौवन, चिर नवीन कला,
मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

धवल सी वो चित्रकला,
नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला,
अनन्त काल से, मन को रंग रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

निर्बाध सी वो जलधारा,
चिर पावन, नित चित हारा,
प्रणय की तृष्णा, तृप्त कर रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

प्रणय काल सीमा से परे,
हो प्रेयसी जन्म जन्मान्तर से,
निर्बोध कल्पना में निर्बाध बहती,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

अतृप्त तृष्णा अजन्मी सी,
तुम में ही समाहित है ये कही,
तृप्ति की इक कलकल निर्झरणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

(शादी की 24वीं वर्षगाँठ पर पत्नी को सप्रेम समर्पित) 

Thursday 23 November 2017

अरुचिकर कथा

कोई अरुचिकर कथा,
अंतस्थ पल रही मन की व्यथा,
शब्दवाण तैयार सदा....
वेदना के आस्वर,
कहथा फिरता,
शब्दों में व्यथा की कथा?
पर क्युँ कोई चुभते तीर छुए,
क्युँ भाव विहीन बहे,
श्रृंगार विहीन सी ये कथा,
रोमांच विहीन, दिशाहीन कथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

किसी के कुछ कहने,
या किसी से कुछ कहने, या
इससे पहले कि
कोई मन की बात करे 
या फिर रस की बरसात करे, 
दिल के जज्बात 
लम्हातों मे आकर कोई भरे, 
खींच लेता वो शब्दवाण,
पिरो लेता बस
अपने शब्दों में अपनी ही कथा...
अपनी पीड़ा, अपनी व्यथा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

सबकी अपनी पीड़ा,
अपनी-अपनी सबकी व्यथा,
पीड़ा की गठरी
सब के सर इक बोझ सा रखा,
कोई अपनी पीड़ा
जीह्वा मे भरकर
घुटने टेक,
सर के बल लेट,
शब्दों पर लादकर चल रहा,
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

व्यथा की कथा रच-रच....
वाल्मीकि रामायण रच गए,
तुलसी रामचरितमानस,
वेदव्यास महाभारत,
और कृष्ण गीतोपदेश दे गए,
पढे कौन, क्युँ कोई पढे,
है कौन व्यथा से परे!
मैं शब्दों में बोझ भरूँ कैसे?
शब्दवाण बींधूँ कैसे,
एकाकी पलों में 
खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!
कौन सुने, क्युँ कोई  सुने?
इक व्यथित मन की अरुचिकर कथा!

डोल गया मन

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
सर रखकर 
इठलाई रवि किरण,
झील में 
तैरते फाहों पर, 
आई रख कर चरण,
आह, उस सौन्दर्य का 
क्या करुँ वर्णन
पल भर को
मूँद गए मेरे मुग्ध नयन....

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
श्रृंगार कर गया कोई,
नैनों में काजल
मस्तक पर
लालिमा सी फैली
सिंदूरी रंग
उफक पर भर गया कोई,
रौशन मुख
पीत वस्त्र
चमकीले आभूषण
मन हर गए श्वेत वर्ण...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
तैरते से तल पर
जैसे हो
तैरते से भ्रम
कौन जाने
जल में है कुंभ या
है कुंभ में जल,
घड़ा जल में 
या है जल घड़े में
असमंजस में
भ्रम की स्थिति में रहे हम...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

बर्फ के फाहे

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....

व्यथित थी धरा, थी थोड़ी सी थकी,
चिलचिलाती धूप में, थोड़ी सी थी तपी,
देख ऐसी दुर्दशा, सर्द हवा चल पड़ी,
वेदनाओं से कराहती, उर्वर सी ये जमी,
सनैः सनैः बर्फ के फाहों से ढक चुकी.....

कुछ बर्फ, सुखी डालियों पर थी जमीं,
कुछ फाहे, हरी पत्तियों पर भी रुकी,
अवसाद कम गए, साँस थोड़े जम गए,
किरण धूप की, कही दूर जा छुपी,
व्यथित जमीं, परत दर परत जम चुकी....

यूँ ही व्यथा तभी, भाफ बन कर उड़ी,
रूप कई बदल, यूँ बादलों में उभरी,
कभी धुआँ, कभी रहस्यमयी सी आकृति,
अविरल बादलों में, अनवरत तैरती,
वेदनाओं से फिर, आक्रांत थी ये संसृति....

यूँ संसृति की जमीं पर, गिरे बर्फ के फाहे,
कुछ घाव भरे, कुछ दर्द उठे अनचाहे,
कभी तृप्त हुए, कभी उभरे हृदय पर छाले,
ठिठुरते से कोहरों में कभी रात गुजारी,
कोमल से फाहों में, वेदना मे घिरी संसृति...

कुछ फाहे बर्फ की, जमीं पर संसृति की गिरीं.....

Tuesday 21 November 2017

हाँ मनुष्य हूँ

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

मैं सर्वाहारी, स्तनपयी, होमो सेपियन्स हूँ!
निएंडरथल नहीं, क्रोमैगनाॅन मानव हूँ,
अमूर्त्त सोचने, ऊर्ध्व चलने, बातों में सक्षम हूँ,
तात्विक प्रवीणताएँ सारी हैं मुझमे,
जैव विवर्तन में श्रेष्ठ हूँ, हाँ, हाँ, मैं मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

योनियों मे श्रेष्ठ हूँ, मानव हूँ, कुलश्रेष्ठ हूँ,
84 लाख योनियों में बस 4 लाख हूँ,
अब कैसे समझाऊँ, किस तरह तुझको बतलाऊँ,
ईश्वर की संकल्पना में, इक मैं भी हूँ,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं झूठा हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

सुन लो, कुछ अपने मन में तुम भी बुन लो,
योनि, कितनी इस धरती पर सुन लो,
9 लाख जलचर, 20 लाख वृक्ष, 11 लाख कीड़े,
10 लाख पक्षी, 30 लाख जंगली पशु,
बस 4 लाख मनुष्य, हाँ, हाँ, यही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

पहनता हूँ कपड़े, सर्व विकसित जीव हूँ!
अपने अनुकूल परिवेश कर लेता हूँ,
कुछ खिलवाड़, कुछ दुश्वार प्रकृति से करता हूँ,
स्वार्थवश मस्तिष्क का दुरुपयोग भी,
हाँ, हाँ, हाँ, मैं दुष्ट हूँ, पर मै ही मनुष्य हूँ....!

तुझे कितनी बार बताऊँ, हाँ मैं ही मनुष्य हूँ.....!

वही धुन

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो पहला कदम, वो छम छम छम,
इस दहलीज पर, रखे थे जब तूने कदम,
इक संगीत थी गूंजी, गूंजा था आंगन,
छम छम नृत्य कर उठा था ये मृत सा मन,
वही प्रीत, वही स्पंदन, दे देना मुझको सारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो चौखट मेरी, जो थी अधूरी सूनी,
अब गाते है ये गीत, करते है मेरी अनसुनी,
घर के कण-कण, बजते हैं छम छम,
फिर कोई गीत नई, सुना दे ऐ मेरे हमदम,
गीतों का ये शहर, मुझको प्राणों से है प्यारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

वो स्नेहिल स्पर्श, वो छुअन के संगीत,
वो नैनों की भाषा में गूंजते अबोले से गीत,
धड़कन के धक-धक की वो थपकी,
साँसों के उच्छवास संग सुर का बदलाव,
वही प्रारब्ध, वही ठहराव, वही अंत है सारा...

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

स्तब्ध हूँ, उस धुन से आलिंगनबद्ध हूँ,
नि:शब्द हूँ, अबोले उन गीतों से आबद्ध हूँ,
स्निग्ध हूँ, उन सप्तसुरों में ही मुग्ध हूँ,
विमुक्त हूँ, निर्जन मन के सूनेपन से मुक्त हूँ,
कटिबद्ध हूँ, उस धुन पर मैने ये जीवन है वारा.....

धुन सरगम की वही, चुन लाना फिर से तू यारा......

Sunday 19 November 2017

खिलते पलाश

काश! खिले होते, हर मौसम ही, ये पलाश...

चाहे, पुकारता किसी नाम से,
रखता नैनों में, इसे हरपल,
परसा, टेसू, किंशुक, केसू, पलाश,
या कहता, प्यार से, दरख्तेपल....

दिन बेरंग ये, रंगते टेसूओं से,
फागुन सी, होती ये पवन,
होली के रंगों से, रंगते उनके गेेसू,
होते अबीर से रंंगे, उनके नयन.....

रमते  इन त्रिपर्नकों में त्रिदेव,
ब्रह्मा, विष्णु और महेश,
नित दिन कर पाता, मैं ब्रम्हपूजन,
हो जाती नित, ये पूजा विशेष.....

दर्शन नित्य ही, होते त्रित्व के,
होता, व्याधियों का अंत,
जलते ये अवगुण, अग्निज्वाला में,
नित दिन होता, मौसम बसंत....

काश! खिले होते, हर मौसम ही, ये पलाश...
------------------------------------------------
पलाश.....

एक वृक्ष, जिसके आकर्षक फूलों की वजह से इसे "जंगल की आग" भी कहा जाता है। जमाने से, होली के रंग इसके फूलो से और अबीर पत्तों से तैयार किये जाते रहे है।

पलाश के तीन पत्ते भारतीय दर्शनशास्त्र के त्रित्व के प्रतीक है। इसके त्रिपर्नकों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निवास माना जाता है। 

पलाश के पत्तों से बने पत्तल पर नित्य कुछ दिनों तक भोजन करने से शारीरिक व्याधियों का शमन होता है।

Saturday 18 November 2017

कूक जरा, पी कहाँ...?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

छिपती छुपाती क्युँ फिरती तू,
कदाचित रहती नजरों से ओझल तू,
तू रिझा बसंत को जरा,
ऊँची अमुआ की डाली पर बैठी है तू कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

रसमय बोली लेकर इतराती तू,
स्वरों का समावेश कर उड़ जाती तू,
जा प्रियतम को तू रिझा,
मन को बेकल कर छिप जाती है तू कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

बूँदें बस अंबर का ही पीती तू,
मुँह खोल एकटक वो मेघ देखती तू,
धरती पर प्यासी तू यहाँ,
नक्षत्र स्वाती बिन प्यास बुझती ये कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

अनन्य प्रेम मेघ पर लुटाती तू,
बिन बारिश प्यासी ही मर जाती तू,
है बसंत भी प्यासा यहाँ,
डाली डाली तू छिपती फिरती है कहाँ?

ऐ री प्यारी पपीहा,
तू कूक जरा, पी कहाँ.., पी कहाँ.., पी कहाँ..!

आज क्युँ?

आज क्युँ ?
कुछ बिखरा-बिखरा सा लगता है,
मन के अन्दर ही, कुछ उजड़ा-उजड़ा सा लगता है,
बाहर चल रही, कुछ सनसन करती सर्द हवाएँ,
मन के मौसम में,
कुछ गर्म हवा सा शायद बहता है.......

आज क्युँ ?
कुछ खुद को समेट नहीं पाता हूँ मैं,
बस्ती उजड़ी है मन की, बसा क्युँ नहीं पाता हूँ मैं,
इन सर्द हवाओं में, उष्मा ये कैसी है मन में,
गुमसुम चुप सा ये,
कुछ बीमार तन्हा-उदास सा रहता है......

आज क्युँ ?
खामोश से इस मन में सवाल कई हैं,
खामोशी ये मन की, बस इत्तफाक सा लगता है,
सवालों के घेरे में, कैसे घिरा-घिरा है ये मन,
अबतक चुप था ये,
कुछ बेवशी के राज खोल रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ खुद से ही बेगाना हुआ हूँ मैं,
बेजार सा ये तन, मन से कहीं दूर सा दिखता है,
दर्द यही शायद, सह रहा आज तक ये मन,
सर्द सी ये हवाएँ,
कुछ चुभन के द॔श दे रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ अनचाही सी बेलें उग आई हैं,
मन की तरुणाई पर, कोई परछाई सा लगता है,
बिखरे हो टूट कर पतझड़ में जैसे ये पत्ते,
वैसा ही बेजार ये,
कुछ अनमना या बेपरवाह सा लगता है.......

Friday 17 November 2017

युग का जुआ

जतन से युग का जुआ, बस थामकर होगा उठाना....

खींचकर प्रत्यंचा,
यूँ धीर कर,
साध लेना वो निशाना.....

गर सिर्फ गर....!

बिंब उस लक्ष्य की,
इन आँखों में रची बसी,
लगन की साध से,
गर ये प्रत्यंचा रही कसी,
धैर्य का दामन,
छोड़ा नहीं तुमने कभी,
निगाहें गर सदा,
उस निशाने पर रही सधी।

फिर है डर क्या?
व्यर्थ न जाएगा ये प्रयत्न.....
ऊँगलियो में हैं जो दम,
सध ही जाएगा निशाना.....
बस खींचकर प्रत्यंचा, बिंध देना है वो निशाना.....

है कांधे पे तेरे, युग का ये जुआ,
जतन से थामकर,
लगन से होगा उठाना....

बस सिर्फ बस.....!

मंजिलों पे रहे नजर,
उन रास्तों की हो तुझे खबर,
थक न जाए ये बदन,
न ऊबे कहीं ये मन,
दिल में हो इक संबल,
अकेला मैं ही नही,
सभी साथ रहे हैं चल,
हित में सभी के,
ये युग भी रहा है बदल।

फिर न चिंता कोई?
प्रयत्न कर, युग का ये चरण,
विजयी हो काट लेंगे हम,
खींच लेंगे दूर तक,
जतन से युग का जुआ, बस साथ है मिलकर उठाना....

Thursday 16 November 2017

आत्मकथा

खुद को समझ महान, लिख दी मैने आत्मकथा!

इस तथ्य से था मैं बिल्कुल अंजान,
कि है सबकी अपनी व्यथा,
हैं सबके अनुभव, अपनी ही इक राम कथा,
कौन पढे अब मेरी आत्मकथा?

अंजाना था मैं लेकिन, लिख दी मैने आत्मकथा!

हश्र हुआ वही, जो उसका होना था,
भीड़ में उसको खोना था,
खोखला मेरा अनुभव, अधूरी थी मेरी कथा,
पढता कौन मेरी ऐसी आत्मकथा?

अधूरा अनुभव लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

अनुभव के है कितने विविध आयाम,
लघु कितना था मेरा ज्ञान,
लघुता से अंजान, कर बैठा था मैं अभिमान,
बनती महान कैसे ये आत्मकथा?

अभिमानी मन लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

टूटा ये अभिमान, पाया था तत्व ज्ञान,
लिखना तो बस इक कला,
पहले पूरी कर लूँ मै बोधिवृक्ष की परिक्रमा,
सीख लूँ मैं पहले सातों कला,
लिख पाऊंगा फिर मैं आत्मकथा!

उथला ज्ञान लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

बदल रहा ये साल

युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

यादों के कितने ही लम्हे देकर,
अनुभव के कितने ही किस्से कहकर,
पल कितने ही अवसर के देकर,
थोड़ी सी मेरी तरुणाई लेकर,
कांधे जिम्मेदारी रखकर, बदल रहा ये साल...

प्रशस्त प्रगति के पथ देकर,
रोड़े-बाधाओं को कुछ समतल कर,
काम अधूरे से बहुतेरे रखकर,
निरंतर बढ़ने को कहकर,
युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल...

अपनों से अपनों को छीनकर,
साँसों की घड़ियों को कुछ गिनकर,
पीढी की नई श्रृंखला रचकर,
जन्म नए से युग को देकर,
सारथी युग का बनाकर, बदल रहा ये साल....

नव ऊर्जा बाहुओं में भरकर,
कीर्तिमान नए रचने को कहकर,
लक्ष्य महान राहों में रखकर,
आँखों में नए सपने देकर,
विकास पुरोधा बनकर, बदल रहा ये साल...

प्रस्तावों की इक सूची देकर,
मंत्र नए सबके कानों में कहकर,
अपनी मांग नई कुछ रखकर,
प्रण जन-जन से लेकर,
कुछ लेकर कुछ देकर, बदल रहा ये साल.....
---------------------------------------------------------
Accolade from "शब्दनगरी" / 17.11.2017
"बधाई हो! आपका लेख आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है"
हृदय तल से धन्यवाद शब्दनगरी....

Tuesday 14 November 2017

मुख़्तसर सी कोई बात

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

सांझ की किरण, रोज ही छू लेती है मुझे,
देखती है झांक कर, उन परदों की सिलवटों से,
इशारों से यूँ ही, खींच लाती है बाहर मुझे,
सुरमई सी सांझ, ढ़ल जाती है फिर आँखों में मेरी!
सिंदूरी ख्वाब लिए, फिर सो जाती है रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

झांकती है सुबह, उन खिड़कियों से मुझे,
रंग वही सिंदूरी, जैसे सांझ मिली हो भोर से,
मींचती आँखों में, सिन्दूरी सा रंग घोल के,
रंगमई सी सुबह, बस जाती है फिर आँखों में मेरी!
दिन ढ़ले फिर, है उसी सपने की बात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

रंग वही सिंदूरी, लाकर देना तुम मुझे,
मांग सजाऊँगा उसकी, रंग लाकर किरणों से,
किरणपूंज सी, वो आएँगे जब बाहों में,
चंपई वो रंग, बिखरती जाएगी इन राहों में मेरी!
सिंदूरी सांझ तले, कट जाएगी ये रात...

मुख़्तसर सी, कोई न कोई तो होगी उसमें बात....

Monday 13 November 2017

बदला सा अक्श

इस दफा आईने में, बदला सा था अक्श मेरा....

न जाने वो कौन सा, जादू था भला,
न जाने किस राह, मन ये मेरा था चला,
कुछ सुकून ऐसा, मेरे मन को था मिला,
आँखों मे चमक, नूर सा चेहरा खिला।

आईना था वही, बस बदला सा था अक्श मेरा...

इस दफा, जादू किसी का था चला,
दुआ किसी की, कबूल कर गया खुदा,
नई राह थी, नया था कोई सिलसिला,
नूर लेकर यूँ, अक्श फूल सा खिला।

इस दफा आईने में, यूँ बदला सा था अक्श मेरा....

धूंध छँट चुकी, इक शख्स था मिला,
नूर-ए-खुदा शख्स के चेहरे पे था खिला,
सामने आइने के, मैं ही मगर मिला,
दूर बादलों से परे, मुझे खुदा था मिला।

इस दफा आईने में, बदला सा था अक्श मेरा....

माँ, बेटा और प्रश्न

माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

निरुत्तर माता, कुछ पल को चुप होती,
मुस्कुराकुर फिर, नन्हे को गोद में भर लेती,
चूमती, सहलाती, बातों से बहलाती,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

माँ, विह्वल सी हो उठती जज्बातों से,
माँ का मन, कहाँ ऊबता नन्हे की बातों से?
हँसती, फिर गढ़ती इक नई कहानी,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

बार-बार वही प्रश्न फिर दोहराता नन्हा,
धैर्य पूर्वक माता कहती फिर कुछ अनकहा,
परत दर परत सुलझाती जिज्ञासा,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

धैर्य, शौर्य, दया, ज्ञान सब माँ से पाया,
बड़ा हुआ नन्हा, उसने माँ को ही रुलाया!
तपती धूप में ममता की वो छाया,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

पोंछ लेती वो आँसू, आँचल में छुपकर,
सो जाती बिन खाए, किसी कोने में रहकर,
डर जाती बेटे की आहट सुनकर,
माँ से फिर पूछता बेटा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

अब माँ को बस सर्वदा चुप ही रहना था,
खामोशी ही उसका गहना था,
गाढ़ी नींद में उसे जो अब सोना था,
माँ से क्या पूछता बेटा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

Saturday 11 November 2017

750वीं रचना

स्व-अनुभवों की विवेचना है मेरी 750वीं रचना,
रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना....

नाम मात्र की नहीं ये रचना,
पंख ले उड़ान भर रही हो जैसे कोई संकल्पना,
पीड़ संग जन्म रही जैसे कोई कल्पना,
स्व-अनुभवों की हो रही जैसे आत्म-विवेचना......

रचनाओं की भीड़ में है लिख रहा मैं 750वीं रचना......

ख्यालों की जैसे कोई गहना,
पहनता हूँ हरबार जब भी ख्यालों को हो सँवरना,
सँवरते हैं ख्याल, सँवरती है ये कल्पना,
नव-श्रृंगार कर, जीवंत हो उठती है रचना......

रचनाओं की भीड़ में लिख रहा हूँ एक और रचना......

भावावेग का ज्वार सा उठना,
विरह, प्रेम, गीत, एकाकीपन का शब्दों में ठलना,
भाव के सागर में हो जैसे गोते लगाना,
स्वतः स्फूर्त कविताओं का मूर्त हो उठना......

स्व-अनुभवों की विवेचना है ये मेरी 750वीं रचना.....
रचनाओं की भीड़ में लिखता रहा हूँ एक और रचना...

❤नमन कर रही सबों को मेरी ये 750वीं रचना❤
CELEBRATING 750th STEP
& the Way Forward.......

Thanks Everyone for Constantly Encouraging Me...

रेत सा लम्हा

वक्त की झोली में, अनंत लम्हे हैं भरे,
जीते जागते से, बिल्कुल हरे भरे...
क्युँ न मांग लूं, वक्त से मैं भी एक लम्हा,
चुपचाप क्युँ रहूँ मैं इस पल तन्हा.....?

होगा कोई तो लम्हा, मेरे भी नाम का,
भीड़-भाड़ में, हो जो मेरे काम का,
क्यूँ न ढूंढ़ लूँ, उस झोली से वो एक लम्हा,
तन्हा गुजार लूँ, मै वो ही लम्हा.....!

लम्हा न ऐसा कोई, बस होता जो मेरा,
करता रहा अनसूना, वक्त भी मेरा,
वक्त के हाथों कभी, छूटा था कोई लम्हा,
पास है मेरे, पर रेत सा है तन्हा......!

दूर दूर तक, लम्हों के रेत किसने बिखेरे,
रेत के वो लम्हे, अब तेरे है न मेरे!
दिया था वक्त ने, हरा-भरा जीवंत लम्हा,
भाग्य में मेरे, बस रेत सा लम्हा.....!

आइए आ जाइए

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

हँसिए-हँसाइए, रूठीए मनाइए,
गाँठ सब खोलकर, जरा सा मुस्कुराइए,
गुदगुदाइए जरा खुद को भूल जाइए,
भरसक यूँ ही कभी, मन को भी सहलाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

हैं जो अपने, दूर उनसे न जाइए,
रिश्तों की महक को यूँ न बिसर जाइए,
मन की साँचे में इनको बस ढ़ालिए,
जीते जी न कभी, इन रिश्तों को मिटाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

भूल जो हुई, मन में न बिठाइए,
खता भूलकर, दिल को साफ कीजिए,
फिर पता पूछकर, घर चले जाइए,
भूल किस से ना हुई, ये ना भूल जाइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

अवगुंठन हटा, फूल तो खिलाइए,
हर मन में है कली, बस बागवाँ बनाइए,
वक्त जो मिले, कभी घूम आइए,
हो बाग जो बड़ा, फिर कही भी सुस्ताइए,
जीने के ये चंद बहाने सीख जाइए......

आइए आ जाइए, थोड़ा और करीब आ जाइए......

पहाड़ों में

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

विशाल होकर भी कितनी शालीन,
उम्रदराज होकर भी नित नवीन,
एकांत में रहकर भी कितनी हसीन,
मुखर मौन, भाव निरापद और संज्ञाहीन....

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

ताप में रहकर भी कितनी शीतल,
शांत रहकर भी लगती चंचल,
दरिया बनकर बह जाती कलकल,
प्रखर सादगी, उदार चेतना और प्रांजल......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....

न ही कोई द्वेष, न ही कोई दुराव,
सबों के लिए एक सम-भाव,
न आवश्यकता, न कोई अभाव,
शिखर उत्तुंग, शालीन और विनम्रभाव.......

उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
-------------------------------------------------------------------सम्मान@
*"राष्ट्रीय सागर"* में प्रकाशित मेरी कविता *"उन पहाड़ों मे"अंक देखना हो तो avnpost.com ke epaper पर देखें। या सीधे epaperrashtriyasagar.com पर *पेज 6* पर देखें।

यह लिंक भी देखें .......   ----   पहाड़ों पे   ----

Friday 10 November 2017

ऋतुराज

फिजाओं ने फिर, ओस की चादर है फैलाई,
संसृति के कण-कण पर, नव-वधु सी है तरुणाई,
जित देखो तित डाली, नव-कोपल चटक आई,
ऋतुराज के स्वागत की, वृहद हुई तैयारी.....

नव-वधु सी नव-श्रृंगार, कर रही ये वसुंधरा,
जीर्ण काया को सँवार, निहार रही खुद को जरा,
हरियाली ऊतार, तन को निखार रही ये जरा,
शिशिर की ये पुकार, सँवार खुद को जरा.....

कण-कण में संसृति के, यह कैसा स्पंदन,
ओस झरे हैं झर-झर, लताओं में कैसी ये कंपन,
बह चली है ठंढ बयार, कलियों के झूमे हैं मन,
शिशिर ऋतु का ये, मनमोहक है आगमन.....

कोयल ने छेड़े है धुन, सुस्वागतम ऋतुराज,
रंगबिरंगे फूलोवाली, संसृति लेकर आई है ताज,
सतरंगी सी है छटा, संग झूम रहा ये ऋतुराज,
गीत गा रहे पंछी, शिशिर ने खोले हैं राज....

Thursday 9 November 2017

किसकी राह तके

सदियाँ बीत गई, प्रीत वो रीत गई...........

बैरन ये प्रीत हुई,
डोली प्रीत की, बस यादों में ही सजे,
तुझको वो भूल चुके,
तू किसको याद करे, किसकी राह तके?

बैरन हुई ये पवन,
मुई, गुजरती है अब क्यूँ छूकर ये बदन,
न वो पुरवाई चले,
तू क्युँ उसको याद करे, किसकी राह तके?

बदल गए मौसम,
बदली वो घटा, बूंदें बारिश की ये छले,
धूप सी ये छाँव लगे,
तू क्युँ उनको याद करे, किसकी राह तके?

शहर अंजान हुए,
अपना ना कोई, बेगाना सा हर मोड़ लगे,
गलियाँ ये विरान हुए,
तू तन्हा किसे याद करे, किसकी राह तके?

न आएंगे अब वे,
तुझसे नजरें भी न, मिला पाएंगे अब वे,
नैनों से क्युँ आब झरे,
तू रो-रो किसे याद करे, किसकी राह तके?

सदियाँ बीत गई,प्रीत वो रीत गई...........

न आना अब

वो कौन है जो दस्तक, देकर गया मेरे दर तक?

शायद अजनबी कोई!
या शख्स पहचाना सा कोई?
बिसारी हुई बातें कोई!
या यादों की इक कहानी कोई!

वो कौन है जो लौटा, दस्तक देकर मेरे घर तक?

बेचैन कर गया कोई!
नींदे मेरी लेकर गया कोई!
इन्तजार दे गया कोई!
सुकून मन का ले गया कोई!

वो कैसी थी दस्तक, न मिलती है दिल को राहत?

ऐसा तो न था कोई!
दुश्मन तो मेरा न था कोई!
वो पागल होगा कोई?
या नशे में बहका होगा कोई?

वो दे गया ऐसी दस्तक, दुविधा में रहा मैं देर तक?

अब बीते हैं दिन कई,
दस्तक फिर दे रहा था कोई!
बाहर न खड़ा था कोई!
चुप, बुत सा मैं अकेला था वहीं!

एकाकीपन की दस्तक, न आना अब मेरे दर तक...

Wednesday 8 November 2017

क्यूँ झाँकूं मैं बाहर

क्यूँ झाँकूं मैं मन के बाहर.....
जब इतना कुछ घटित होता है मन के ही भीतर,
सब कुछ अलिखित होता है अन्दर ही अन्दर,
कितने ही विषयवस्तु, कौन चुने आकर?

बिन लघुविराम, बिन पूर्णविराम...
बिन मात्रा, शब्दों बिन प्रस्फुटित होते ये अक्सर,
ये निराकार से प्रतिबिंब यूँ ही काटते चक्कर,
मन के ये प्रतिबिंब, देखे कौन आकर?

लिखने को क्युँ झाँकूं मैं बाहर....
लिखने के कितने ही अवसर है इस मन के भीतर,
अलिखित से स्वलेख उपजते इसके अन्दर,
मन की ये उपज, काटे कौन आकार?

बिन खाद-बीज, बिन पानी...
ऊपजाऊ सा है ये मन, मरुभूमि सी नहीं ये ब॔जर,
आलोकित ये भाव से, भाव उपजते अन्दर,
भाव की ये फसल, सम्हाले कौन आकर?

जब इतना कुछ घटित होता है मन के ही भीतर,
क्यूँ झाँकूं मैं मन के बाहर.....

बोझिल रात

यूँ बड़ी देर तक, कल ठहर गई थी ये रात,
भावुक था थोड़ा मैं, कुछ बहके थे जज्बात,
शायद कह डाली थी मैने, अपने मन की बात,
खैर-खबर लेने को, फिर आ पहुँची ये रात!

याद मुझे फिर आई, संत रहीम की ये बात...
"रहिमन निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय,
  सुनि इठलैहें लोग सब, बाँट न लइहे कोय"
पर चुग गई चिड़ियाँ खेत अब काहे को पछतात..

बड़ी ही खामोशी से फिर, बैठी है ये रात,
झिंगुर, जुगनू, कीट-पतंगो को लेकर ये साथ,
धीरे-धीरे ऊलूक संग बाते करती ये रात,
उफ! फिर से बोझिल होते, बीतते ये लम्हात...

अब सोचता हूँ, पराई ही निकली वो रात,
पीछा कैसे ये छोड़ेगी, मनहूस बड़ी है ये रात,
रखना है काबू में, मुझको अपने जज्बात,
ना खोऊँगा मैं उसमें, चाहे कुछ कहे ये रात...

रात और तुम

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

अपारदर्शी परत सी ये घनेरी रात,
विलीन है जिसमें रूप, शक्ल और पते की सब बात,
पिघली सी इसमें सारी प्रतिमा, मूर्त्तियाँ,
धूमिल सी है ओट और पत्तियाँ,
बस है एक स्वप्न और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

चुपचाप कालिमा घोलती ये रात,
स्वप्नातीत, रूपातीत नैनों में ऊँघती सी उथलाती नींद,
अपूर्ण से न पूरे होने वाले कई ख्वाब,
मींचती आँखों में तल्खी मन में बेचैनियाँ,
बस है इक उम्मीद और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

परत दर परत धुंधलाती ये रात,
स्वप्न से बाहर निकल, उसी में फिर गुम होती सी तुम,
सहसा हाथ बढ़ा पास खींचती तुम,
गले मिल फिर कहीं कालिमा में सिमटती तुम,
बस है विरह की बेवशी और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

पराई सी लगती फरेबी ये रात,
क्यूँ मानूँ मैं अपना इसे, गोद में इसकी क्यूँ रोऊँ मैं?
सर रखकर इसके सीने पर क्यूँ सोऊँ मैं?
निशा प्रहर जाएगी, ये फिर फरेब कर जाएगी,
पल भर का है अपनापन और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

Tuesday 7 November 2017

वापी

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

अंतःसलिल हो जहाँ के तट,
सूखी न हो रेत जहाँ की,
गहरी सी हो वो वापी, हो मीठी सी आब जहाँ की।

दीड घुमाऊँ मैं जिस भी ओर,
हो चहुँदिश नीवड़ जीवन का शोर,
मन के क्लेश धुल जाए, हो ऐसी ही आब जहाँ की।

वापी जहाँ थिरता हो धीरज,
अंतःकीचड़ खिलते हों जहाँ जलज,
मन को शीतल कर दे, ऐसी खार हो आब जहाँ की।

ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक,
हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक।

ऐ नाविक, रोको मत,
तुम खुद बयार बन पाल भरो,
बह जाने दो इस वापी में, मनमाफिक है आब यहाँ की।

Monday 6 November 2017

रूबरू

रूबरू मिल गए, गर वो किसी मोड़ पर तो!

लौट आओ तुम मिन्नतें हम करेंगे,
हैं कितनी बातें अधूरी, मुलाकातें जरूरी,
टूटे ख्वाबों को हम, फिर से जोड़ लेंगे,
रख लेंगे, सहेज कर वो यादों के पल हम,
उसी मोड़ से उनको घर ले चलेंगे.....

रूबरू मिल गए, गर वो किसी मोड़ पर तो!

फिर साँसों के बंधन हम जोड़ लेंगे,
खफा होकर क्यूँ, मुझसे गए दूर थे वो?
रश्म-ए-वफा हम उनसे पूछ लेंगे,
बांध लेंगे, वादों की जंजीर से खुद को हम,
सजदे वफा उसी मोड़ पर करेंगे....

रूबरू मिल गए, गर वो किसी मोड़ पर तो!

यूँ तन्हाई से नाता, हम तोड़ देंगे,
खाईं थी हमने, न जीने की जो कसमें,
कसम के वो सारे भरम तोड़ देंगे,
जी लेंगे, बस पल दो पल उसी मोड़ पे हम,
उसी मोड़ पे हम दम तोड़ देंगे....

रूबरू मिल गए, गर वो किसी मोड़ पर तो!
लौट आओ तुम, हम यही कहते रहेंगे।

Sunday 5 November 2017

मेरे पल

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

युँ ही उलझ पड़े मुझसे कल सवेरे-सवेरे,
वर्षों ये चुप थे या अंतर्मुखी थे?
संग मेरे खुश थे या मुझ से ही दुखी थे?
सदा मेरे ही होकर क्युँ मुझ से लड़े थे?
सवालों में थे ये अब मुझको ही घेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

सालों तलक शायद था अनभिज्ञ मैं इनसे,
वो पल मुझ संग यूँ जिया भी तो कैसे?
किस बात पर वो इतना दुखी था?
मैं तो हर उस पल में सदा ही सुखी था!
उलझन बड़ी थी अब सामने मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

दबे पाँव देखा टटोलकर उस पल को मैंने,
नब्ज चल रही थी मगर हौले-हौले,
व्याप्त सूनापन, जैसे सुधि कोई ना ले,
रिक्तियों से पूर्ण विरानियों में वो रहा था!
तन्हा ही रहा हरपल वो संग मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

झकझोर कर रख दिया था उस पल ने मुझे,
टूटी थी तन्द्रा, अवाक् रह गया था मैं,
था स्वार्थी मैं, निस्वार्थ थी उसकी लगन,
झुंझलाहट में उसके भेद ये खुल चुका था!
फिर भी सहमा सा सामने था वो मेरे!

वो कुछ पल जो थे बस मेरे......

Saturday 4 November 2017

जलता दिल

राख! सभी हो जाते हैं जलकर यहाँ,
दिल ये है कि जला...
और उठा न कहीं भी धुँआ!

है जलने में क्या?
बैरी जग हुआ दिल जला!
चित्त चिढा,
मन को छला,
दिल जला!
कहीं आग न कहीं दिया, दिल यूँ ही बस जला!

ये धुआँ?
दिल में ही घुटता रहा,
घुट-घुट दिल जला,
बैरी खुद से हुआ,
दिल को छला,
उठता कैसे फिर धुआँ, दिल के अन्दर ये घुला!

राख ही सही!
पश्चाताप की भट्ठी पर चढा,
बस इक बार ही जला,
अंतःकरण खिला......
स्वरूप बदल निखरा,
धुआँ सा गगन में उड़ा, पुनर्जन्म लेकर खिला।

Friday 3 November 2017

स्नेह वृक्ष

बरस बीते, बीते अनगिनत पल कितने ही तेरे संग,
सदियाँ बीती, मौसम बदले........
अनदेखा सा कुछ अनवरत पाया है तुमसे,
हाँ ! ... हाँ! वो स्नेह ही है.....
बदला नही वो आज भी, बस बदला है स्नेह का रंग।

कभी चेहरे की शिकन से झलकता,
कभी नैनों की कोर से छलकता,
कभी मन की तड़प और संताप बन उभरता,
सुख में हँसी, दुख में विलाप करता,
मौसम बदले! पौध स्नेह का सदैव ही दिखा इक रंग ।

छूकर या फिर दूर ही रहकर!
अन्तर्मन के घेरे में मूक सायों सी सिमटकर,
हवाओं में इक एहसास सा बिखरकर,
साँसों मे खुश्बू सी बन कर,
स्नेह का आँचल लिए, सदा ही दिखती हो तुम संग।

अमूल्य, अनमोल है यह स्नेह तेरा,
दूँ तुझको मैं बदले में क्या? 
तेरा है सबकुछ, मेरा कुछ भी तो अब रहा ना मेरा,
इक मैं हूँ, समर्पित कण-कण तुझको,
भाव समर्पण के ना बदलेंगे, बदलते मौसम के संग।

है सौदा यह, नेह के लेन-देन का,
नेह निभाने में हो तुम माहिर,
स्नेह पात लुटा, वृक्ष विशाल बने तुम नेह का,
छाया देती है जो हरपल,
अक्षुण्ह स्नेह ये तेरा, क्या बदलेगा मौसम के संग?

Thursday 2 November 2017

हमसफर

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

राह में गर काँटे तुमको मिले अगर,
शूल पथ में हो हजार, बिछे हों राह में पत्थर,
तुम राहों में चलना दामन मेरा थामकर,
खिल आएंगे काँटों में फूल, साथ तुम दो अगर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो राहों में गर कहीं अंधेरा घना सा,
गर कोहरों में कहीं गुम हो जाए ये रास्ता,
ये दामन भरोसे से तुम थामे रखना,
जल उठेंगे सौ दिए, इन अंधेरों को चीरकर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।

हो कहीं, छोटा सा इक आशियाँ,
बसाएंगे वहीं अपना, हम सपनों का जहाँ,
बिछड़े ना कभी हम ऐ मेरे हमनवाँ,
आँगन में बस गूंजे खुशी, हो न गम का बसर।

इस राह की सफर के ऐ मेरे हमसफर,
ना खत्म हो कभी ये सफर, यूँ ही उम्र भर।