Wednesday 8 November 2017

रात और तुम

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

अपारदर्शी परत सी ये घनेरी रात,
विलीन है जिसमें रूप, शक्ल और पते की सब बात,
पिघली सी इसमें सारी प्रतिमा, मूर्त्तियाँ,
धूमिल सी है ओट और पत्तियाँ,
बस है एक स्वप्न और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

चुपचाप कालिमा घोलती ये रात,
स्वप्नातीत, रूपातीत नैनों में ऊँघती सी उथलाती नींद,
अपूर्ण से न पूरे होने वाले कई ख्वाब,
मींचती आँखों में तल्खी मन में बेचैनियाँ,
बस है इक उम्मीद और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

परत दर परत धुंधलाती ये रात,
स्वप्न से बाहर निकल, उसी में फिर गुम होती सी तुम,
सहसा हाथ बढ़ा पास खींचती तुम,
गले मिल फिर कहीं कालिमा में सिमटती तुम,
बस है विरह की बेवशी और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

पराई सी लगती फरेबी ये रात,
क्यूँ मानूँ मैं अपना इसे, गोद में इसकी क्यूँ रोऊँ मैं?
सर रखकर इसके सीने पर क्यूँ सोऊँ मैं?
निशा प्रहर जाएगी, ये फिर फरेब कर जाएगी,
पल भर का है अपनापन और अधूरी सी है कई बात...

धीरे! उफ़, कितनी धीरे-धीरे ढलती है यह रात...

2 comments:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, पुरुषोत्तम जी।

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