Monday 29 January 2018

सृजन

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

एकत्र हुई है सब कलियाँ,
चटक रंगों से करती रंगरलियाँ,
डाल-डाल खिल आई नव-कोपल,
खिलते फूलों के चेहरे हैं चंचल,
सब पात-पात झूमे हैं,
कलियों के चेहरे भँवरों ने चूमे हैं,
लताओं के लट यूँ बिखरे हैं,
ज्यूँ नार-नवेली ने लट खोले हैं,
रंगीन धरा, अंग-अंग में श्रृंगार भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

झूम-झूम हो रही मतवाली,
गुलमोहर, अमलतास की डाली,
खुश्बू भर आई गुलाब, चम्पा और बेली,
गीत बसंत के कूक रही वो कोयल,
पपीहा अपनी धुन में पागल,
रह रह गाती बस ..पी कहाँ, पी कहाँ!
मुग्ध संसृति है इनकी तान से,
सृजन का है सुन्दर नव-विहान ये,
मुखरित धरा, कण-कण में लाड़ भरा...

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

हैं दलदल में खिले कमल,
जल में बिखरे हैं शतधा शतदल,
कलरव क्रीड़ा करते झूम रहे है जलचर,
जैसे मना रहे उत्सव सब मिलकर,
झिलमिल करती वो किरणें,
ठहरी झील की चंचल सतह पर,
थिरक रही बूँद-बूँद बस इठलाकर,
मुग्ध धरा, अंग-प्रत्यंग में उन्माद भरा......

शायद अब हो पूरा, प्रकृति का यह श्रृंगार अधूरा!

Saturday 27 January 2018

गुनगुनी धूप

गुनगुनी धूप, खींच लाई दामन में मुझको...

कई दिनों के सर्द मौसम में,
मखमली एहसास दिला गई थी धूप,
ठिठुरते कांपते बदन को,
तपिश ने दी थी राहत थोड़ी सी...

हरियाली निखरी पात पात में,
बसंत की थपकी ले, खिली थी फूल,
रूप मिला था कलियों को,
रुख बदली थी हवाओं ने अपनी....

रंग कई भर आए थे बागों में,
कितने रांझे, बैठे थे राहों को भूल,
स्वर मिले थे कोयल को,
बदले थे आस्वर फिजाओं के भी....

निरन्तर कहर ढ़ाते मौसम में,
सृजन का आभास दे गई थी धूप,
संकुचित सी वातावरण को,
तपिश ने दी थी राहत थोड़ी सी...

शब्द शब्द हुए मुखर नेह में,
अक्षर अक्षर दे रही सुगंध देह की 
फ़ैली है सुरभि अन्तर्मन की,
सजल नयन है इक पाती प्रेम की....

मौसम की ये गुनगुनी धूप, भा गई मुझको...

इक दुर्घटना

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

दुर्घटना! आह वो विवश क्षण!
कराहता तड़पता विवशता का क्षण,
तम में डूबता, प्रिय का तन!
सनकर लहू में, वो पिघलता सा बदन......

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

क्षण भर में टूटता वो अवगुंठन,
अकस्मात हाथों से छूटता वो दामन,
विघटित सासें, बढ़ती वो घुटन,
विकर्षित होता, जीवन का वो आकर्षण....

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

निढाल हुआ, जैसे वह जीवन,
लथपथ रक्तरंजित, दुखदाई वो क्षण,
डूबते नैनों में, करुणा के घन,
इक पल में छूटता, साँसों से ये जीवन....

विघटन के उस पल में आहत कितना था मन...

कैसी वो दुर्घटना, वो कैसा क्षण?
अन्तिम क्षण में, बढता वो आकर्षण,
पल पल टूटती, साँसों का घन,
आँखों में टूटकर, उमड़ता सा वो सावन....

अब याद न मुझको आना, ओ विघटन के क्षण....

(कविता "जीवन कलश" पर यह मेरी 800वीं रचना है, शायद 22 अक्टूबर 2017 की उस भीषण कार दुर्घटना के बाद, यह संभव न हो पाता । ईश्वर की असीम कृपा सब पर बनी रहे।)

Friday 26 January 2018

हे ईश्वर

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार...
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई प्रभात!

बिन बात जहाँ, बढ जाती हो विवाद,
बिन पतझड़ ही, बिखर जाते हों पात,
बादल के रहते, सूखी सी हो बरसात,
खुशियों के पल, मन में हो अवसाद....

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार....
मत देना तुम मुझको, ऐसी कोई भी रात!

सितारों बिन जहाँ, सूना हो आकाश,
बिन जुगनू जहाँ, अंधेरा हो ये प्रकाश,
एकाकीपन हो, मृत हो मन के आश,
ये राहें ओझल हो, खोया हो उल्लास...

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार.....
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई भी पल!

बिन जीवन संगी, साँसे हो बोझिल,
बिन हमराही के, ये राहें हो मुश्किल,
अकेलापन हो, गम में हो महफिल,
जग के मेले में, तन्हाई हो हासिल...

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार.....
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई विषाद!

परछाँई

उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं आज भले हूँ सामने,
कल शायद ना रह पाऊँगा!
शब्दों के ये तोहफे,
फिर तुझे ना दे पाऊँगा!
दिन ढ़ले इक टीस उठे जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

हूँ बस इक परछाँई मैं,
शब्दों में ही ढ़लता जाऊँगा!
कुरेदुँगा भावों को मै,
मन में ही बसता जाऊँगा!
सांझ ढ़ले ये अश्क गले जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

लिख जाऊँगा गीत कई,
इन नग्मों में ही बस जाऊँगा!
भाव पिरोकर शब्दों में,
अश्कों में बहता जाऊँगा!
मन की महफिल सूनी हो जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

न बाट जोहना तुम मेरा,
कल वापस भी न आ पाऊँगा!
यादों की किताब बन,
"कविता कलश" दे जाऊँगा!
कभी हो जीवन में तन्हाई जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं, आज भले हूँ सामने.......
कल शायद!  ना.... रह पाऊँगा..!
इक कविता "जीवन कलश"....
मैं आँचल में रखता जाऊँगा!
एकाकीपन के अंधेरे हों जब-जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

Thursday 25 January 2018

तिरंगा गणतंत्र

1. उठो देश

उठो देश! 
यह दिवस है स्वराज का,
गणतंत्र का, गण के तंत्र का,
पर क्युँ लगता?
यह गणराज्य कहीं है बिखरी सी,
जंजीरों में जकरा है मन,
स्वाधीनता है खोई सी,
पावन्दियों के हैं पहरे,
मन की अभिलाषा है सोई सी,
अंकुश लगे विचारों पे,
कल्पनाशीलता है बंधी सी!

उठो देश!
तोड़ कर ये सारे बंधन,
रच ले अपना गणतंत्र हम?
आओ सोचे मिलकर,
स्वाधीन बनाएँ मन अपना हम,
खींच दी थी किसी ने,
लकीरें पाबन्दियों की इस मन पर,
अवरुद्ध था कहीं न कहीं,
मन का उन्मुक्त आकाश सरजमीं पर,
हिस्सों में बट चुकी थी
कल्पनाशीलता कहीं न कहीं पर,
विवशता थी कुछ ऐसा करने की,
जो यथार्थ से हो परे,
ऐसे में मन करे भी तो क्या?
जिए या मरे?

उठो देश!
देखो ये उन्मुक्त मन,
आकर खड़ा हो सरहदों पे जैसे,
लेकिन कल्पना के चादर,
आरपार सरहदों के फैलाए तो कैसे,
रोक रही हैं राहें
ये बेमेल सी विचारधाराएं,
भावप्रवणता हैं विवश,
खाने को सरहदों की ठोकरें,
देखी हैं फिर मैने विवशताएँ,
आर-पार सरहदों के,
न जाने क्यूँ उठने लगा है,
अंजाना दर्द कोई
इस सीने में..!

उठो देश,
जनवरी 26 फिर लिख लें...
हम अपनी जन्मभूमि पर..

2. मेरी जन्मभूमि

है ये स्वाभिमान की,
जगमगाती सी मेरी जन्मभूमि...

स्वतंत्र है अब ये आत्मा, आजाद है मेरा वतन,
ना ही कोई जोर है, न बेवशी का कहीं पे चलन,
मन में इक आश है,आँखों में बस पलते सपन,
भले टाट के हों पैबंद, झूमता है आज मेरा मन।

सींचता हूँ मैं जतन से,
स्वाभिमान की ये जन्मभूमि...

हमने जो बोए फसल, खिल आएंगे वो एक दिन,
कर्म की तप्त साध से, लहलहाएंगे वो एक दिन,
न भूख की हमें फिक्र होगी, न ज्ञान की ही कमी,
विश्व के हम शीष होंगे, अग्रणी होगी ये सरजमीं।

प्रखर लौ की प्रकाश से,
जगमगाएगी मेरी जन्मभूमि...

विलक्षण ज्ञान की प्रभा, लेकर उगेगी हर प्रभात,
विश्व के इस मंच पर,अपने देश की होगी विसात,
चलेगा विकाश का ये रथ, या हो दिन या हो रात,
वतन की हर जुबाॅ पर, होगी स्वाभिमान की बात।

तीन रंगों के विचार से,
रंग जाएगी ये मेरी जन्मभूमि...

3. तीन रंग

चलो भिगोते हैं कुछ रंगों को धड़कन में,
एक रंग रिश्तों का तुम ले आना,
दूजा रंग मैं ले आऊँगा संग खुशियों के,
रंग तीजा खुद बन जाएंगे ये मिलकर,

चाहत के गहरे सागर में...
डुबोएंगे हम उन रंगों को....

चलो पिरोते हैं रिश्तों को हम इन रंगों में,
हरा रंग तुम लेकर आना सावन का,
जीवन का उजियारा हम आ जाएंगे लेकर,
गेरुआ रंग जाएगा आँचल तेरा भीगकर,

घर की दीवारों पर...
सजाएँगे हम इन तीन रंगों को....

आशा के किरण खिल अाएँगे तीन रंगों से,
उम्मीदों के उजली किरण भर लेना तुम आँखों में,
जीवन की फुलवारी रंग लेना हरे रंगों से,
हिम्मत के चादर रंग लेना केसरिया रंगों से,

दिल की आसमाँ पर....
लहराएँगे संग इन तीन रंगों को....

उम्र

ऐ उम्र, जरा ठहर!  ऐसी भी क्या है जल्दी!

अब तक बीता ये जीवन व्यर्थ ही,
अर्थ जीवन का मिला नहीं,
कुछ अर्थपूर्ण करना है अभी-अभी,
ठहर ना, तू बीत रही क्यूँ जल्दी-जल्दी? 

अभी खुल कर हमने जिया नहीं,
मन का कुछ भी  किया नहीं,
आई थी तू भी तो बस अभी-अभी,
फिर जाने की, क्यूँ ऐसी भी है जल्दी?

पथ कंटक वाली ही सभी मिली,
फूलों सी राहों पर चला नही,
पथ फूलों की दिखी है अभी-अभी,
यहीं रुक जा, जाने की क्या है जल्दी?

जितनी भी पी, वो थी गरल भरी,
अधरों से ये अमृत विरल रही,
चाहत पीने की जागी अभी-अभी,
जरा ठहर, जाने की ऐसी क्या जल्दी?

रिश्तों की कितनी गाठें खुली नहीं,
मन की गाठें भी यूँ रही बंधी,
गांठें चाहत की खुली अभी-अभी,
फिर जाने की, ऐसी भी क्या है जल्दी?

ऐ उम्र, तूने उड़ान ये कैसी भरी?
पल में ही सदियाँ ये गुजर गई,
ख्वाहिश जीनै की थी अभी-अभी,
फिर क्यूँ, तुझे जाने की ऐसी है जल्दी?

कभी हाथों में तो तू आया ही नहीं,
संग चला पर साया भी नहीं,
स्पर्श भर कर गया तू अभी-अभी,
तू बैठ जरा, यूँ बीत न तू जल्दी-जल्दी!

ऐ उम्र, जरा ठहर!  ऐसी भी क्या है जल्दी!

Sunday 21 January 2018

जीवन-चंद दिन

क्या है ये जीवन...?
कुछ आती जाती साँसों का आश्वासन!
कुछ बीती बातों का विश्लेषण!
या खिलते पल मे सदियों का आकर्षण!
सोच रहा मन क्या है ये जीवन?

कैसा ये आश्वासन?
हिस्से में तो सबके है ये चंद दिन,
हैं कुछ गिनती की साँसे,
क्या यूँ ही कट जाते हैं ये गिन-गिन?

तन्हा कब कटता है ये जीवन?
जीवन से हो हताश,
जिस पल भी ये मन हो निराश,
निरंतर भरने को उच्छवास,
जब करने हों प्रयास,
जगाकर मन के आस, तोड़ कर सारे कयास,
जो दे जाते हो आश्वासन,
कहता है मन, उन संग ही है ये जीवन!

क्यूँ ये विश्लेषण?
बीती बातों में क्यूँ देखे दर्पण,
माटी का पुतला ये तन,
क्यूँ न सृजन करें नव अवगुंठण!

बिन बातों के कब कटता जीवन?
रिश्तों का नवीकरण,
बातों का नित नया संस्करण,
मन से मन का अवगुंठण,
नव-भावों का संप्रेषण,
सिलसिला बातों का, चहकते जज्बातों का,
उल्लासित पल का संश्लेषण,
कहता है मन, खिलते बातों मे है जीवन!

कैसा यह आकर्षण?
कलियों का वो मोहक सम्मोहन!
फूलों का मादक फन!
लरजते से होठों पर हँसी का सावन!

बिन अंकुरण कब खिलता है जीवन?
चेहरे का यूँ प्रस्फुटन,
वो उनका मुस्काना मन ही मन,
या उनके शर्माने का फन,
झुकते से वो नयन,
जागी आँखों से, सपनों के घर का चयन,
पल में सदियों का आकर्षण!
कहता है मन, प्रकृति के कण मे है जीवन!

क्या है ये जीवन...?
कुछ आती जाती साँसों का आश्वासन!
कुछ बीती बातों का विश्लेषण!
या खिलते पल मे सदियों का आकर्षण!
सोच रहा मन क्या है ये जीवन?

आवाज न देना

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

सदियों तक था तुझमें ही अनुरक्त मै,
पाया ही क्या, जब तुझसे ही रहा विरक्त मैं?
मिली बस पीड़ा और बेचैन घड़ी,
अंतहीन प्रतीक्षा और यादों की लड़ी,
उस वीहड़ घाटी से मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

डूबा था मैं क्षितिज की नीरवता में,
तुम ही ले आए थे मुझको उस वीहड़ में!
असहनीय उदासीनता के क्षण में
पग-पग नीरवता के उस गहरे वन में,
उस निर्वात से बस मैं लौटा हूँ अभी अभी...

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....

बिताई अरसों मैने इक प्रतीक्षा में,
तटस्थ रहा दुनिया से इक तेरी इच्छा में!
काटी तन्हा कितनी निर्जन रातें,
पाई है अंतहीन प्रतीक्षा की सौगातें,
उस प्रतीक्षा से बस मैं लौटा हूँ अभी-अभी....

ऐ भूली सी यादें, आवाज न देना तुम कभी....
सदियों की नीरवता से, मैं लौटा हूँ अभी अभी ।

Thursday 18 January 2018

दिल की सरखत

दिल की सरखत पे मेरे,
तुम दस्तखत किए जाते हो.....
मेरी बातों में तुम, यूँ शामिल हुए जाते हो....

बड़ी सूनी थी ये सरखत,
हर पन्ने मे तुम नजर आते हो,
मेरी तन्हाईयो में तुम, यूँ ही चले आते हो....

हर लम्हा इन्तजार तेरा,
यूँ बेवशी तुम दिए जाते हो,
इन ख्यालों को तुम मेरे, यूँ हीं भरमाते हो....

छू गई हो जैसे ये बदन,
यूँ सर्द हवाओं मे लहराते हो,
जैसे हो कोई पवन, यूँ ही तुम बहे जाते हो....

यूँ गूंजती हैं ये फिजाएँ,
ज्युँ तुम संग ये गुनगुनाते हो,
तेरे गीतों की लय पे, यूँ ही ये झूम जाते हों....

दिल की सरखत पे मेरे,
तुम दस्तखत किए जाते हो.......
ख्वाबों में रंग कई, यूँ ही तुम भरे जाते हो....

Tuesday 16 January 2018

बवाल जिन्दगी

संवेदनाओं के सरसब्ज ताल में, खुशहाल जिन्दगी...

बड़ी बवाल जिन्दगी, बेमिसाल जिन्दगी,
मसरूफियत में है, सरसब्ज सवाल जिन्दगी,
सारे सवाल का है जवाब जिन्दगी,
सराहत से परे, व्यस्त और बवाल जिन्दगी!

वेदनाओं से, विचलित न हुआ कभी,
संवेदनाओं के ताल में, विचरती रही जिंदगी,
ठहरी अगर, पल भर भी ये कहीं,
शजर गई संवेदनाएँ, चल पड़ी ये जिन्दगी!

मसरूफ जिन्दगी के, सरसब्ज राह ये,
न रुकी है ये किनारे, संवेदनाओं के ताल के,
मशगूल सी, ये रही है हर घड़ी,
वक्त के सरखत पे, छोड़ती निशाँ जिन्दगी!

सरनामा न कोई, जिन्दगी की राह का,
कैसे करूँ मैं सराहत, जिन्दगी के पैगाम का,
व्याख्या से परे, सरसब्ज जिन्दगी,
शजरती संवेदनाओं के, उस पार जिन्दगी!
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मसरूफ: 
व्यस्त, काम में लगा हुआ ; मशगूल 
किराया या अन्य लेन-देन संबंधी हिसाब लिखने की छोटी बही, किसी प्रकार का अधिकार पत्र अथवा प्रमाण-पत्र, परवानाआज्ञापत्र
किसी लेख आदि का शीर्षक, किसी पत्र आदि में संबोधन के रूप में लिखा जाने वाला पद, भेजे जाने वाले पत्र पर लिखा जाने वाला पता। 
हरा-भरा; उर्वर; लहलहाता हुआ; जो सूखा न हो, वनस्पतियों और हरियाली से युक्त, संतुष्टप्रसन्नख़ुशहाल; फलता-फूलता

Sunday 14 January 2018

मुख्तसर सी बात

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

जब से गए तुम रहबर,
न ली सुधि मेरी,
न भेजी तूने कोई भी खबर,
हुए तुम क्यूँ बेखबर?

तन्हा सजी ये महफिल,
विरान हुई राहें,
सजल ये नैन हुए,
तुम नैन क्यूँ फेर गए?

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

मुख्तसर से वो पल,
कैसे बीत गए?
बस अब याद मुझे हैं आते,
वो ही शामो-शहर!

तुम संग सजी महफिल,
मखमली राहें,
चमकते से दो नैन,
सिमटते से वो दिन रैन !

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

संग जीने के वो वादे,
मरने की कसमें,
साँसों का साँसों से जुड़कर,
न बिछड़ने की रश्में!

न मिल पाने की तड़प,
तुमसे ही झड़प,
बीतती सी वो घड़ी,
खन खन करती ये चूड़ी!

मुख्तसर सी वो ही बातें, सुनी कर गईं रातें.....

Saturday 13 January 2018

अलाव

रात भर जलती रही थी उसके मन की अलाव...

नंगे बच्चों की भूख, तड़प की पीड़ा,
माथे पे शिकन, आँखों में जलन, काँपता तन,
सुलगाती रही उस मन में इक अलाव....
न आया कोई भी सुधि लेने उस अलाव की...

ठिठुरती ठंढ़ मे, क्षणिक राहत को,
चौराहे पर भी जलाई गई थी इक अलाव,
ठहाकों की गूंज में डूबा था वो गाँव,
पर जलाती रही थी उसे, मन की वो अलाव ....

मन की अलाव भारी पड़ी थी ठंढ़ पर,
निकल पड़ा वो बेचारा काम की तलाश पर,
बच्चों के पेट की सुलगती वो अलाव,
जलाती रही ठंढ मे भी चिंगारी बन बनकर....

कुछ पैसे आए थे उसकी हाथों पर,
कम थे फिर भी वो, महंगाई के अलाव पर,
तनाव दे गई थी वो जलती अलाव,
आज भी न बुझनी थी मन की वो अलाव...

रात भर जलती रही, फिर उस मन की अलाव!
और, चौराहे पर भी जलती रही इक अलाव!

मकर संक्रंति

नवभाव, नव-चेतन ले आई, ये संक्रांति की वेला........

तिल-तिल प्रखर हो रही अब किरण,
उत्तरायण हुआ सूर्य निखरने लगा है आंगन,
न होंगे विस्तृत अब निराशा के दामन,
मिटेंगे अंधेरे, तिल-तिल घटेंगे क्लेश के पल,
हर्ष, उल्लास,नवोन्मेष उपजेंगे हर मन।

धनात्मकता सृजन हो रहा उपवन में,
मनोहारी दृश्य उभर आए हैं उजार से वन में,
खिली है कली, निराशा की टूटी है डाली,
तिल-तिल आशा का क्षितिज ले रहा विस्तार,
फैली है उम्मीद की किरण हर मन में।

नवप्रकाश ले आई, ये संक्रांति की वेला,
अंधियारे से फिर क्युँ,डर रहा मेरा मन अकेला,
ऐ मन तू भी चल, मकर रेखा के उस पार,
अंधेरों से निकल, प्रकाश के कण मन में उतार,
मशाल हाथों में ले, कर दे  उजियाला।

Friday 12 January 2018

वही पल

गूंजते से पल वही, कहते हैं मुझको चल कहीं.........

निर्बाध समय के, इस मौन बहती सी धार में,
वियावान में, घटाटोप से अंधकार में,
हिचकोले लेती, जीवन की कश्ती,
बलखाती सी, कभी डूबती, कभी तैरती,
बह रही थी कहीं, यूँ ही बिन पतवार के,
भँवर के तीव्र वार में, कोई पतवार थामे हाथ में,
मिल गए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

टूटा था सहसा, तभी मौन इक पल को,
संवाद कोई था मिला, इस मौन जीवन को,
जैसे दिशा मिल गई थी कश्ती को,
किनारा मिला था वियावान जीवन को,
प्रस्फुटित हुई, कहीं इक रौशनी की किरण,
लेकिन छल गई थी मेरी ये खुशी, उस भँवर को,
गुम हुए थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

समय के गर्त से, अब गूंजते है पल वही,
निर्जन सी राह पर, कहते हैं मुझको चल कहीं,
दिशाहीन कश्ती न जाने कहाँ चली,
मौन है हर तरफ, इक आवाज है बस वही,
कांपते से बदन में जागती सिहरन वही
रुग्ण सी फिजाएँ, वही पिघलती ठंढ सी हवाएँ,
बह रहे थे तुम, इस बहती सी मौन धार में...

बहती सी मौन धार में, अब गूंजते से पल वही........

Sunday 7 January 2018

विप्रलब्धा

वो आएँगे, यह जान कर....
उस सूने मन ने की थी उत्सव की तैयारी,
आष्लेषित थी साँसे उनमें ही,
तकती थी ये आँखें, राहें उनकी ही,
खुद को ही थी वो हारी.....

रंग भरे थे उसने आँचल में,
दो नैन सजे थे, उनके गहरे से काजल में,
गालों पे लाली कुमकुम माथे में,
हाथों में कंगन, पायल सूने पैरों में,
डूबी वो खुद से खुद में....

लेकिन आई थी विपदा भारी,
छूटी थी आशा टूटा था वो मन अभिसारी,
न आ पाए थे वो, वादा करके भी,
सूखी थी वो आँखें, व्यथा सह कर भी,
गम मे डूबी थी वो बेचारी.....

वो विप्रलब्धा, सह गई व्यथा,
कह भी ना सकी, किसी से मन की कथा,
लाचार सी थी वो बेचारी सर्वथा,
मन का अभिसार जाना जिसको सदा,
उसने ही था मन को छला......

ढ़हते खंडहर सा टूटा था मन,
पूजा पश्चात्, जैसे मूरत का हुआ विसर्जन,
तैयारी यूँ ही व्यर्थ गई थी सारी,
दीदार बिना हुआ सारा श्रृंगार अधूरा,
नैनों में अब बूँद था भरा.....
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विप्रलब्धा
1. जिसका प्रिय अपने वचनानुसार मिलन स्थल पर न आया हो ऐसी नायिका
2. प्रिय द्वारा वचन भंग किए जाने पर दुःखी नायिका

विप्रलब्ध की व्युत्पत्ति है = वि+प्र+लभ्‌+क्त । इसका अर्थ है="ठगा गया, चोट पहुँचाया गया" वैसे यह नायिका विशेष के लिये ही प्रयुक्त होता है. वस्तुतः संस्कृत में वि और प्र उपसर्ग एक साथ किसी एक वस्तु को दूसरे से अलग करने के प्रसंग में आते हैं।

बिछड़े जो अब

अबकी जो बिछड़े, तो ख्वाबों में ही मिलेंगे कहीं..

शाख पर लिपटती बेलें यूँ ही कुछ कह गई,
ढलती रही सांझ ख्यालों में ही कहीं,
कोई भीनी सी हवा तन को छूकर थी गई,
दस्तक दबे पांव देकर गया था कोई,
ये सरसराहट सी हवाओं मे अब कैसी?
क्या है ये भरम? या है मेरा ख्वाब ये कोई?

आ मिल कहीं, सौदा ख्वाबों का हम करें यूँ ही ....

जिक्र करें, ये मन के भरम कब तक धरें..
मिल कर कहीं, हम यूँ ही बैठा करें,
कह लें वही, अबतक जो हम कह न सके,
मन ही मन यूँ तन्हा हम क्यूँ जलें?
कुछ खैरों खबर लें, मन की सबर लें,
ख्वाब से ख्वाब का, यूँ तुझ संग सौदा करें.....

यूँ ही लौट आएंगी, बँद होठों पे चहकती हँसी....

देखो ना! उस सांझ हलचल सी क्या हुई?
बेनूर सी रुत हुई, ये घड़ी, ये शाम भी,
ये सदाएँ मेरी, गुनगुना न फिर सकी कभी,
हृदय के तार, फिर न झंकृत हुई कभी,
ढलती रही हर शाम, फिर यूँ ही बेरंग सी,
अब जो गई शाम, फिर लौट न आएंगे कभी.....

अबकी जो बिछड़े, तो ख्वाबों में ही मिलेंगे कहीं.....