Friday 27 April 2018

अस्तित्व

कैसे भूलूं कि तेरे उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! इक भूल ही थी वो मेरी!
सोचता था कि मैं जानता हूँ खूब तुमको,
पर कुछ भी बाकी न अब कहने को,
न सुनने को ही कुछ अब रह गया है जब,
लौट आया हूँ मैं अपने घर को अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! यूँ ही थी वो मुस्कराहटें!
खिल आई थी जो अचानक उन होंठो पे,
कुछ सदाएँ गूँजे थे यूँ ही कानों में,
याद करने को न शेष कुछ भी रह गया है जब,
क्या पता तुम कहाँ और मैं कहाँ हूँ अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! वो एक सुंदर सपन हो मेरा!
जरा सा छू देने से, कांपती थी तुम्हारी काया  ,
एक स्पंदन से निखरता था व्यक्तित्व मेरा,
स्थूल सा हो चुका है अंग-प्रत्यंग देह का जब,
जग चुका मैं उस मीठी नींद से अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! गुम गई हों याददाश्त मेरी!
या फिर! शब्दों में मेरे न रह गई हो वो कशिश,
या दूर चलते हुए, विरानों में आ फसे हैं हम,
या विशाल जंगल, जहाँ धूप भी न आती हो अब,
शून्य की ओर मन ये देखता है अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....

शायद! छू लें कभी उस एहसास को हम!
पर भूल जाना तुम, वो शिकवे- शिकायतों के पल....
याद रखना तुम, बस मिलन के वो दो पल,
जिसमें विदाई का शब्द हमने नहीं लिखे थे तब,
दफनाया है खुद को मैने वहीं पे अब!

पर कैसे भूलूं कि उस एक स्पर्श से ही था अस्तित्व मेरा....
मगर अब, भूल जाना तुम, वो इबादतों के पल....

Monday 23 April 2018

माँ शारदे

हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!
टूटे मन की इस वीणा को तू झंकार दे....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

हम खोए हैं, अंधकार में,
अज्ञानता के, तिमिर संसार में,
तू ज्ञान की लौ जला,
भूला हुआ हूँ, राह कोई तो दिखा,
मन में, प्रकाश का मशाल दे,
मुझे ज्ञान की, उजियार का उपहार दे....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

भटके हैं, स्वर इस कंठ में,
न ही सुर कोई, मेरे कुहुकंठ में,
तू सुर की नई सी तान दे,
बेस्वर सा हूँ, नया कोई इक गान दे,
तू स्वर का, मुझको ज्ञान दे,
सप्त सुरों की, अनुराग का उपहार दे....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

जीवन के, इस आरोह में,
डूबे रहे हम, काम मद मोह में,
तू प्रखर, मेरे विवेक कर,
इक नव विहान का, अभिषेक कर,
तू नव उच्चारित, आरोह दे,
मेरे अवरोह में, सम्मान का उपहार दे.....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

बुझता हुआ, इक दीप मैं,
प्रभाविहीन सा, इक संदीप मैं,
तू प्रभा को, प्रभात दे,
बुझते दिए की, लौ को प्रसार दे,
आलोकित सा विहान दे,
प्रभाविहीन मन में प्रभा का उपहार दे...
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!
टूटे मन की इस वीणा को तू झंकार दे....
हे, माँ शारदे! हे, माँ शारदे!...

Friday 6 April 2018

रहस्य

दो नैनों के सागर में, रहस्य कई इस गागर में.....

सुख में सजल, दुःख में ये विह्वल,
यूं ही कभी खिल आते हैं बन के कँवल,
शर्मीली से नैनों में कहीं दुल्हनं की,
निश्छल प्रेम की अभिलाषा इन नैनों की....

तिलिस्म जीवन की, छुपी कहीं इस गागर में...

ये काजल है या है नैनों में बादल,
शायद फैलाए है मेघों ने अपने आँचल,
चंचल सी चितवन, कजरारे नैनों की,
ईशारे ये मनमोहक, इन प्यारे से नैनों की....

है डूबे चुके कितने ही, इस बेपनाह सागर में.....

पल में ये गजल, पल में ये सजल,
हर इक पल में खुलती है ये रंग बदल,
कहती कितनी ही बातें अनकही,
रंग बदलती चुलबुल सी भाषा नैनों की....

अनबुझ बातें कई, रहस्य बनी इस सागर में....

Tuesday 3 April 2018

ढ़हती मर्यादाएँ

ढ़हती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

चलते रहे दो समानान्तर पटरियों पर,
इन्सानी कृत्य और उनके विचार,
लुटती रही अनमोल विरासतें और धरोहर,
सभ्यताओं पर हुए जानलेवा प्रहार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

कथनी करनी हो रहे विमुख परस्पर,
वाचसा कर्मणा के मध्य ये अन्तर,
उच्च मानदंडों का हो रहा खोखला प्रचार,
टूटती रही मान्यताओं की ये मीनार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

करते रहे वो मानदण्डों का उल्लंघन,
भूल गए है छोटे-बड़ों का अन्तर,
न रिश्तों की है गरिमा, न रहा लोकलाज,
मर्यादा का आँचल होता रहा शर्मसार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

कर्म-रहित, दिशाविहीन सी ये धाराएँ,
कहीं टूटती बिखरती ये आशाएँ,
काल के गर्त मे समाते मूल्यवान धरोहर,
धूलधुसरित होते रहे मन के सुविचार!

ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!

Sunday 1 April 2018

दंगा

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!
क्युं इस गली अब कोई आता नही?

वो कहते हैं कि हुए थे दंगे!
दो रोटी को जब लड़ बैठे थे दो भूखे नंगे....
अब तक है वो दोनो ही भूखे!
है कौन उसे जो देखे?
भूख से ऐंठती विलखती पेट पकड़ कर,
संग देख रहे थे वो भी दंगे!
बस उन दंगो से, था उनका कोई नाता नहीं!
क्यूं उस पेट की...
जलती आग बुझाने कोई आता नही!

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!

ये दंगे तो यूं ही भड़केगे,
जब तक भूख, गरीबी से हम तड़पेंगे!
दिग्भ्रमित करेंगें ये धर्म के नारे,
शर्मसार करेगे ये हमको खुद अपनी नजरों में,
जवाब खुद को हम क्या देंगे?
छल, कपट, वैर, घृणा, वैमनस्य के ये बीज,
क्या अपनी हाथों खुद हम बोएंगे?
क्यूं ये वैर भाव....
ये द्वेष मन से मिटाने कोई आता नही?

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!

कश! अलग-अलग न होते,
ये मंदिर, ये मस्जिद, ये गिरिजाघर,
काश एक होता ईश्वर का घर,
एक होती साधना, एक ही होती भावना,
कहर दंगों का न हम झेलते,
लहू में धर्मान्धता के जहर न फैलते,
पीढ़ियाँ मुक्त होती इस श्राप से...
क्यू इस श्राप से...
जीवन मुक्त कराने कोई आता नहीं?

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!
क्युं इस गली अब कोई आता नही?

बिखरी लाली

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगकिरणों ने पट खोले हैं,
घूंधट के पट नटखट नभ ने खोले हैं,
बिखर गई है नभ पर लाली,
निखर उठी है क्षितिज की आभा,
निस्तेज हुए है अंधियारे,
वो चमक रही किरणों की बाली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

श्रृंगार कर रही है प्रकृति,
किरणों की आभा पर झूमती संसृति,
मोहक रंगो संग हो ली,
सिंदूरी स्वप्न के ख्वाब नए लेकर,
नव उमंग नव प्राण लेकर,
खेलती नित नव रंगो की नव होली!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....

खेलती है लहरों पर किरणें,
या लहरों से कुछ बोलती हैं किरणें!
आ सुन ले इनकी बोली,
झिलमिल रंगों की ये बारात लेकर,
मीठी सी ये बात लेकर,
चल उस ओर चलें संग आलि!

चलों चुन लाएं, क्षितिज से वो बिखरी लाली.....