Thursday 31 May 2018

वृथा ये अभिमान

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

दो घड़ी का बस है ये जीवन,
इधर साँस टूटी, उधर टूटा ये बंधन!
क्यूं है इस सत्य से अन्जान?
है मृदा से बना तू, न कर अभिमान ऐ इन्सान!

है वृथा का ये अभिमान.....

इस माटी से बना ये तन तेरा,
पंचतत्व की, इक ढ़ेर पर है तू खड़ा!
क्यूं फिराक में तू है जुड़ा?
पंचतत्व में ही विलीन होकर, तू पाएगा त्राण!

है वृथा का ये अभिमान.....

मृषा ही मलीन है ये तेरा मन,
वृथा ही विषाद में, है निष्कपट मन,
क्यूं ढ़ो रहा है तू अभिमान?
रम रहा ईश्वर ही सबके मन, तू जरा ये जान!

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

चराग

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

यूं तो रौशनी भरते रहे, वो सारी रात,
अंधेरों संग अकेले, लड़ते रहे वो सारी रात,
तप्त तेल संग, तलते रहे अंग-अंग,
पर, ये तंज अंधेरे, कसते रहे असह्य व्यंग,
कालिख चराग की, कह गई थी ये बात.....

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

दिल में ही थी जली, दिल की बात,
बुझ गए जलते हुए, खुद ही वो चराग,
जल चुके थे, पतंगे कई साथ-साथ,
जल चुकी थी प्रीत, और जले थे जज्बात,
रात के दामन में, मिट गए थे ये चराग.....

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

युं धू-धू कर जले, चरागों के ख्वाब,
ज्यूं चिंता में, भस्म हुए हों मरने के बाद,
मन में लिए, कुछ अनकही सी बात,
चिताओं सी दहकती, वो जलती सी रात,
बंद पलकों तले, ढ़ल गई वो भी साथ......

कई चराग बुझते रहे, पुरकशिश रात के साथ!

Sunday 27 May 2018

प्रार्थना

श्रद्धा सुमन, है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

स्वीकार लो ये मेरी प्रार्थना,
निष्काम निष्कपट मेरी साधना,
भूल कोई भी, गर मैं करूं,
तू ही, बाँहें मेरी थामना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना यही इक आशीर्वचन....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

कहीं भटकें हो जब राहों में,
विमुख हों कर्मपथ से ये कदम,
खुद पे अहंकार मैं करूं,
तुम मार्गदर्शक बनना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना ज्ञान की ऐसी किरण....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

प्रभा विहीन हो जब प्रभात,
दुष्कर सी हो जब ये काली रात,
अपनी ही साये से मैं डरूं,
तू ही, मशाल थामना,
बस और कुछ भी, मैं चाहूं ना,
देना प्रकाशित वो ही किरण....

श्रद्धा सुमन है तुझको अर्पण,
नमन है मेरा, हे भगवन! है तुझको नमन!

क्या है ख्वाब ये

ये हकीकत है कोई, या है बस इक ख्वाब ये?

इक धुंधलाती सी परछाईं,
मद्धम सी गूंजती कोई मधुर आवाज,
छुन-छुन पायलों की धुन,
चूड़ियों की चनकती खनखनाहट,
करीब से छूकर गुजरती कोई पवन,
मदहोश करती वही खुश्बू...
है ये कोई वहम या फिर कोई जादू!
या है बस इक ख्वाब ये?

कही उठ रहा है धुंध कोई,
जैसे बिखेरा है किसी ने आँचल कहीं,
या नेह का है ये निमंत्रण,
या मन को लुभा रहा है कोई युं ही!
बज रही हो जैसे कोई अनसुनी सरगम,
गुनगुनाने लगी हो हवाएँ...
है ये कोई भरम या कहीं अपना कोई!
या है बस इक ख्वाब ये?

कोई चुपके से कहे, ऐ सुन!
मद्धिम सी बजने लगी फिर वही धुन,
मैं मूकद्रष्टा सा खोलूं नयन,
रोककर साँसें गिनूं दिल की धड़कन,
भटकता फिरूं मैं, जैसे आवारा बादल,
लिए पहलू में आँचल कोई...
है ये कोई वहम या है हमारा कोई!
या है बस इक ख्वाब ये?

तो फिर ये इशारे हैं किसके,
आसमान पर ये सारे तारे हैं किसके,
भीगा सा है क्यूं ये गगन,
चटक कर खिली है क्युं ये कलियां,
फूलों के अंग-अंग क्यूं निखरे है आज?
कोयल ने क्यूं छेड़ी है तान....
है ये कोई भरम या है कोई न कोई!
या है बस इक ख्वाब ये?

ये हकीकत है कोई, या है बस इक ख्वाब ये?

Saturday 26 May 2018

दर्द-ए-दयार

दर्द-ए-हजार, कोई दिले दयार रख गया...

थी इक खुशी की मुझको तलाश,
दर्द इक पल का भी, मुझको गँवारा न था,
यूं ही आँखों से कोई बेकरार कर गया,
बस ढ़ूंढ़ता ही रहा, मैं वो करार,
दर्द का आलम, वो ही बेसुमार दे गया....

दर्द-ए-हजार, कोई दिले दयार रख गया...

लिए जाऊं कहाँ, मैं ये दर्दे दयार,
हर तरफ वही पीर, हर राह वो ही बयार,
गुजारिशें मैं दर्द से बार-बार कर गया,
कर गया मिन्नतें वो दरकिनार,
इन आँखों में, वो बस इन्तजार दे गया....

दर्द-ए-हजार, कोई दिले दयार रख गया...

हर शै में है पीर, दर्द है बेशुमार,
इस दर्द से परे, कहीं न था मेरा दयार,
तो दर्द क्यूं वो मेरे दयार रख गया,
हर लम्हा है दर्द का कतार,
फिर क्यूं, इक नया दर्द यार दे गया....

दर्द-ए-हजार, कोई दिले दयार रख गया...

Thursday 24 May 2018

कहीं यूं ही

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

जा सावन ले आ, जा पर्वत से टकरा,
या बन जा घटा, नभ पर लहरा,
तेरे चलने में ही तेरा यौवन है,
यह यौवन तेरा कितना मनभावन है,
निष्प्राणों में प्राण तू फूंक यूं ही......

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

जा सागर से मिल, जा तू बूंदे भर ला,
प्यासी है ये नदियां, दो घूंट पिला,
सूखे झरनों को नव यौवन दे,
तप्त शिलाओं को सिक्त बूंदों से सहला,
बहता चल तू मौजों के साथ यूं ही....

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

या घटा घनघोर बन, या चित बहला,
कलियों से मिल, ये फूल खिला,
खेतों की इन गलियो से मिल,
सूखे फसलों को ये रस यौवन के पिला,
जीवन में जान जरा तू फूंक यूं ही.....

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

या बाहों में सिमट, आ मन को सहला,
सजनी की आँखों में ख्वाब जगा,
आँचल बन मन पर लहरा,
निराशा हर, आशा के कोई फूल खिला,
आँखों में सपने तू देता जा यूं ही....

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

Wednesday 23 May 2018

झ॔झावात

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

जीवन के ये झंझावात,
पल पल आँहों में, घिसते ये हालात,
अन्तर्मन में पिसती कोई बात,
धुन से भटकते ये साज.....
ऐसे में मन को कोई छू जाए,
दर्द दिलों के कम जाए,
धुन ऐसी ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

कोई अपनों से हो नाराज,
मीठे से रिश्तों में भर जाए खटास,
नदारद हो मिश्री की मिठास,
ये मन रहता हो उदास.....
ऐसे में गीत मधुर कोई गाए,
स्वर लहरी सी लहराए,
सुर ऐसी ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

सुरविहीन से ये अंधड़,
दिलों के अन्दर उतार गए ये खंजर,
सुख चैन कहाँ अब पल भर,
भावविहीन ये झंझावात....
ऐसे में स्पर्श कोई कर जाए,
भाव-प्रवण कर जाए,
गीत ऐसा ही कोई, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

चिंतित करते ये लम्हात,
ये जीवन के भयंकर से झंझावात,
ना ही सर पर हो कोई हाथ,
बेकाबू से हों हालात......
ऐसे में हाथ कोई रख जाए,
रौशन राह दिखा जाए,
राग कोई ऐसी ही, सुना दे ना तू आज!

धुन में घुलते ये साज, बेसुरे हुए हैं क्यूं आज?

Sunday 20 May 2018

स्वार्थ

शायद, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

तेरी मोहक सी मुस्काहट में,
अपने चाहत की आहट सुनता हूं
तेरी अलसाए पलकों में,
सलोने जीवन के सपने बुनता हूं,
उलझता हूं गेसूओं में तेरे,
बाहों में जब भी तेरे होता हूं,
जी लेता हूं मैं तुझ संग,
यूं सपने जीवन के संजोता हूं,
हाँ तब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

भीगे तेरे आँसू में
दामन भी मेरे,
छलनी मेरा हृदय भी
हुआ दर्द से तेरे,
डोर जीवन की मेरी
है साँसों में तेरे,
मेरी डोलती नैया
है हांथों में तेरे,
यही तो हैं स्वार्थ....
मै वश में जिनके रहता हूं...
फिर, कैसे हुआ मैं निःस्वार्थ...
हाँ इनमें भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी, मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

कोई छोटी सी बात भी मेरी,
न बनती है बिन तेरे,
है तुझ पे ही पूर्णतः निर्भर,
मेरे जीवन के फेरे,
संतति को मेरी...
शरण मिली कोख में ही तेरे,
जीवन की इन राहों पर
इक पग भी
न चल पाया मैं बिन तेरे,
फिर, कहां हुआ मैं निःस्वार्थ,
हाँ अब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

सब कहते हैं इसको ही प्यार....
पर, इसमें मैं अपने
स्वार्थ का संसार देखता हूं ....
बिल्कुल, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

(स्वार्थवश...., पत्नी को सप्रेम समर्पित)

Thursday 17 May 2018

कोलाहल

वो चुप था कितना, जीवन की इस कोलाहल में!

सागर कितने ही, उसकी आँचल में,
बादल कितने ही, उस कंटक से जंगल में,
हैं बूंदे कितनी ही, उस काले बादल में,
फिर क्यूं ये विचलन, ये संशय पल-पल में!

वो चुप था कितना, शोर भरे इस कोलाहल में!

खामोश रहा वो, सागर की तट पर,
चुप्पी तोड़ती, उन लहरों की दस्तक पर,
हाहाकार मचाती, उनकी आहट पर,
सहज-सौम्य, सागर की अकुलाहट पर!

वो चुप था कितना, लहरों की इस कोलाहल में!

सुलगते जंगल की, इस दावानल में,
कलकल बहते, दरिया की इस हलचल में,
दहकते आग सी, इस मरुस्थल में,
पल-पल पग-पग डसती, इस दलदल में!

वो चुप था कितना, कितने ही ऐसे कोलाहल में!

था इक कण मात्र, वो इस सॄष्टि में,
ये कोलाहल कुछ ना थे उसकी दृष्टि में,
भीगा आपादमस्तक, वो अतिवृष्टि में,
चुपचाप रहा वो, इस जीवन की संपुष्टि में!

वो चुप था कितना, सृष्टि की इस कोलाहल में!

Tuesday 15 May 2018

विसाल-ए-यार

क्या दूं मै मिसाले यार? वो तो है बेमिसाल!

यूं बुन रहा हूं मैं ये ख्याल,
कभी तो मिल जाएगा विसाल-ए-यार,
होश में न रह पाएंगे हम,
वो कर जाएंगे हमें बेख्याल!

क्या दूं मै मिसाले यार? वो तो है बेमिसाल!

है आफताब सा उनका नूर,
ढ़ला संगमरमर में है वो दीदार-ए-यार,
है उनसे ही तो ये रौशनी,
उनकी ही रंग से है ये गुलाल!

क्या दूं मै मिसाले यार? वो तो है बेमिसाल!

है बला की उनकी सादगी,
है जेहन मे बस वो ही ख्याल-ए-यार,
झुकी हुई सी वो निगाह,
यूं ही जीना न कर दे मुहाल!

क्या दूं मै मिसाले यार? वो तो है बेमिसाल!

यूं ही बुनता रहा मैं ख्याल,
यूं ही सपनों में बस विसाल-ए-यार,
शुकून उन्ही की वस्ल में,
है उन्ही में खोए हम बेख्याल!

क्या दूं मै मिसाले यार? वो तो है बेमिसाल!

बेख्याल

यूं ही बेख्याल थे हम, किसी के ख्याल में,
कई ख्वाब देख डाले, हम यूं ही ख्वाब में........

वो रंग है या नूर है,
जो चढता ही जाए, ये वो सुरूर है,
हाँ, वो कुछ तो जरूर है!
यूं ही हमने देख डाले,
हाँ, कई रंग ख्वाब में!

यूं ही बेख्याल थे हम, किसी के ख्याल मे...

ये कैसे मैं भूल जाऊँ?
है बस ख्वाब वो, ये कैसे मान जाऊँ?
हाँ, कहीं वो मुझसे दूर है!
यूं ही उसने भेज डाले,
हाँ, कई खत ख्वाब में!

यूं ही बेख्याल थे हम, किसी के ख्याल मे...

है वो चेहरा या है शबनम!
हुए बेख्याल, बस यही सोचकर हम!
हाँ, वो कोई रंग बेमिसाल है!
यूं ही हमने रंग डाले,
हाँ, जिन्दगी सवाल में!

यूं ही बेख्याल थे हम, किसी के ख्याल में,
कई ख्वाब देख डाले, हम यूं ही ख्वाब में........

नए नग्मे

नग्में नए गुनगुनाओ, मेरी पनाहो में आओ....

तुम हर पल यूं ही मुस्कुराओ,
तराने नए तुम बनाओ,
नए जिन्दगी की नई ताल पर,
झूमो यूं, मस्ती में आओ....

नग्में नए गुनगुनाओ, मेरी पनाहो में आओ....

तुम बहारों के दामन में खेलो,
कलियो सी खिलखिलाओ,
चटक रंग की नई फूल सी तुम,
आंगन को मेरे सजाओ....

नग्में नए गुनगुनाओ, मेरी पनाहो में आओ....

तुम वापस न जाने को आओ,
लौटकर फिर न जाओ,
कह दो जरा, के मेरे हो तुम,
सपनों को मेरे सजाओ....

नग्में नए गुनगुनाओ, मेरी पनाहो में आओ....

Sunday 13 May 2018

माँ कहती थी

मेरी माँ, मुझसे न जाने क्या-क्या कहती थी....

जब पाँवो पे झुलाती थी,
तो माँ कहती थी....

घुघुआ मनेरिया, अरवा चौर के ढेरिया,
ढेरिया उड़ियायल जाय,
कुतवा रगिदले जाय,
देखिहँ रे बुढिया,
हमर बेटा जाय छौ, हड़िया बर्तन फोरै ल,
नया घर लेम्हि कि पुराना घर?
नया घर उठे, पुराना घर गिरे!

जब संग खेला करती थी,
तो माँ कहती थी....

अत्ता पत्ता, बेटा के पाँच ठो बिटवा,
एगो गाय में, एगो भैंस में,
एगो लकड़ी में, एगो बकड़ी में,
एगो छकड़ी में.....
चौर चूड़ा खैले जाय, गुदुर गांय लगैले जाय...
और संग-संग हँस पड़ती थी माँ!

जब दूध पिलाती थी,
तो बड़े प्यार से माँ कहती थी....

चंदा मामा, आरे आबा बारे आबा,
नदिया किनारे आबा,
सोना के कटोरिया में, दूध-भात लेले आबा,
बऊआ के मुहमा में घुटूक....

जब रोटी खिलाती थी,
तो माँ कहती थी....

देखो देखो, वो कौआ रोटी लेकर भागा....
फिर निवाला मुह में रख देती,
कभी-कभी ये भी कहती कि....
थाली में खाना मत छोड़ना,
कहीं किसी दिन नाराज खाना, तुझे न छोड़ दे

जब सर में तेल लगाती थी,
तो माँ कहती थी....

तेलिया चुप चुप, माथा करे लुप लुप,
तेलवा चुअत जाय,
बेलवा माथा फूटत जाय.....

जब सुलाया करती थी,
तो माँ कहती थी.....

पलकों पे आ जा री निंदिया....
ओ नींदिया रानी तू ले चल वहाँ,
सपनों मे संग तेरे खेलेगा मेरा मुन्ना जहाँ.....

जब सपने में मैं राक्षस से डर जाता था,
तब सोने से पहले हिम्मत देकर
इक मंत्र पढने को समझाती
और रोज ही सिखाती माँ कहती थी......

हिमालस्य उत्तरे देशे, कर्कटी नाम राक्षसी,
तस्य स्मरण मात्रेण, दुः स्वप्नः न जायते.......
फिर क्या था, मै बलशाली बन जाता था,
सपने में उस राक्षस से लड़ जाता था....

जब पूजा करवाती थी,
तो माँ कहती थी.....

नमामि शमीशां निर्वाण रूपम.....
विद्या दीजिए, बल दीजिए, बुद्धि दीजिए....
हाथ फेरकर सर पर,
बलाएँ सब अपने सर लेती थी,
मन ही मन कुछ बुदबुदाती थी फिर माँ...

मेरी माँ मुझसे न जाने क्या-क्या कहती थी....
समझाती थी यदा कदा....
मीठी-मीठी बातों से बचना जरा,
दुनियाँ के लोगों में है जादू भरा.....

मातृ-दिवस (13 मई) की शुभकामनाओं सहित

समग्रता की तलाश

समग्रता की तलाश में, व्यग्र यहाँ हर कोई,
भटक रहा है मन, एकाग्रता है खोई......

बस पा लेने को दो जून की रोटी,
कोई जप रहा है कहीं राम-नाम,
कोई बस बेचता है यूं ईश्वर की मूर्ति,
कोई धर्म को बेचते हैं सरेआम,
दिलों में धर्मांधता की सेंकते है रोटी!

कोई मंदिर में हरदिन माथा टिकाए,
कर्म से विमुख, दूर साधना से,
तलाशता है वहाँ, कोई मन की शांति,
धोए है तन को डुबकी लगाकर,
मन के मैल मन में ही रखकर छुपाए!

भौतिक सुखों की झूठी लालसा में,
नैतिकता से है हरपल विमुख,
अग्रसर है बौद्धिक हनन की राह पर,
चारित्रिक पतन की मार्ग पर,
वो खोए है विलासिता की कामना में!

बदली हुई है समग्रता की परिभाषा,
निज-लाभ हेतु है ये एकाग्रता,
मन रमा है काम, क्रोध,मद,मोह में,
समग्र व्यसन के ऊहापोह में,
व्यग्र हुई काम-वासना की पिपाषा!

समग्रता की तलाश में, व्यग्र यहाँ हर कोई,
भटक रहा है मन, एकाग्रता है खोई......

ले गया चैन कोई

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....

वो जो कहते थे, बस हम है तुम्हारे,
सिर्फ हम थे कभी, जिनकी आँखों के तारे,
करार वो ही मन के, ले गए हैं सारे,
इन बेकरारियों में जीवन, कोई कैसे गुजारे?

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....

चीज अनमोल ये, मैं कहाँ से पाऊँ,
चैन! वस्तु नहीं कोई, जो मैं खरीद लाऊँ,
पर जिद्दी ये मन मेरा, इसे कैसे बताऊँ,
छीना है जिसने करार, मन उसे ही पुकारे!

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....

कोई पुतला नहीं, इक जीव हूं संजीदा,
उमरती हैं भावनाएँ, न ही इसे हमने खरीदा,
वश भावनाओं पर, कहाँ है किसी का?
इन्हीं भावनाओं के हाथो, ये मन बिका रे!

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....

सोचा था, न जाऊंगा मैं फिर उस तरफ,
कदमताल करता है मन, हरदम उसी तरफ,
कदमों को रोककर, समझाता हूं मैं,
मगर वश में मेरा मन, अब रहा ही कहाँ रे!

छीन कर मन का करार, ले गए वो चैन सारे....

Saturday 12 May 2018

इच्छाओं के पंछी

इच्छाओं के प॔छी यूं ही उड़ते हैं पंख पसारे!
कब साकार हुए है स्वप्न सारे......?

कभी आकाश नही मिलता इच्छाओं  को,
कभी कम पड़ता हैं आकाश, इन्हे उड़ पाने को,
काश! न होते इन जागी इच्छाओं  के पर,
काश! न जगते रातों में ये स्वप्न हमारे...

अचेतन मन में, दफ्न हुए ये स्वप्न सारे...!

इच्छाओं के बिन, लक्ष्यविहीन ये जीवन,
इच्छाओं के संग, तिल-तिल जलता ये जीवन,
है रक्तविहीन, ये अपूरित इच्छाओं के घर,
काश! न मरते रातों में ये स्वप्न हमारे....

जागी आँखों में, दफ्न हुए ये स्वप्न सारे...!

हैं गिनती की साँसें, हैं गिनती की रातें,
क्यूं बस ऐसे ही स्वप्नों में, हम ये रात बिता दें?
क्यूं न इन साँसों को हम सीमित इच्छा दें,
काश! यूं सजते रातों में ये स्वप्न हमारे....

इन आँखों में, साकार होते ये स्वप्न सारे...!

ना ही खिल पाते है, हर डाली पर फूल,
ना ही बूंद भरे होते हैं हर बादल में,
हर जीवन का होता है अपना ही इक अंत,
काश! ना जलते अनंत इच्छाओं के तारे.....

मगर, इच्छाओं के प॔छी, उड़ते हैं पंख पसारे!
कब साकार हुए है स्वप्न सारे......?

क्या हो तुम

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

क्यूं मैं हूं, इक तुम्हारे ही आस में?
कभी कुछ पल जो आओ अंकपाश में,
बना लूं वो ही लम्हा खास मैं,
भूल जाऊँ मैं खुद को, कुछ पल तुम्हारे साथ में...

हो सुबह या सघन रात हो,
सांझ हो या प्रभात हो,
धूप या बरसात हो,
या चुप सी कोई बात हो,
जो भी हो, तुम लाजबाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

हो बेहोश या मदहोश हो,
मूरत सी खामोश हो,
चटकती कली हो,
या बंद लफ्जों में ढ़ली हो,
जो भी हो, तुम लाजबाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

यूं जेहन में आ बसी हो,
खुश्बुओं में रची हो,
या रंगों में ढ़ली हो,
क्या बस इक ख्वाब हो,
जो भी हो, तुम लाजवाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

तन्हा पलों की संगिनी हो,
जैसे कोई रागिनी हो,
कूक कोयल की हो,
दूर से आती आवाज हो,
जो भी हो, तुम लाजवाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

स्नेह की कोई लड़ी हो,
या चहकती सी परी हो,
सहज हो शील हो,
या खुदा का आब हो,
जो भी हो, तुम लाजबाब हो...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

क्यूं मैं हूं, इक तुम्हारे ही आस में?
कभी कुछ पल जो आओ अंकपाश में,
बना लूं वो ही लम्हा खास मैं,
भूल जाऊँ मैं खुद को, कुछ पल तुम्हारे साथ में...

क्या हो तुम? क्यूं आते हर पलों में याद हो....

Friday 11 May 2018

भोर की पहली किरण

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

घुल गई है रंग जैसे बादलों में,
सिमट रही है चटक रंग किसी के आँचलों में,
विहँसती खिल रही ये सारी कलियाँ,
डाल पर डोलती हैं मगन ये तितलियाँ,
प्रखर शतदल हुए हैं अब मुखर,
झूमते ये पात-पात खोए हुए हैं परस्पर,
फिजाओं में ताजगी भर रही है पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

निखर उठी है ये धरा सादगी में,
मन को लग गए हैं पंख यूं ही आवारगी में,
चहकने लगी है जागकर ये पंछियाँ,
हवाओं में उड़ चली है न जाने ये कहाँ,
गुलजार होने लगी ये विरान राहें,
बेजार सा मन, अब भरने लगा है आहें,
फिर से चंचल होने लगा है ये पवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

गूंज सी कोई उठी है विरानियों में,
गीत कोई गाने लगा है कहीं रानाईयों में,
संगीत लेकर आई ये राग बसंत,
इस विहाग का न आदि है न कोई अंत,
खुद ही बजने लगे हैं ढोल तासे,
मन मयूरा न जाने किस धुन पे नाचे,
रागमय हुआ है फिर से ये भवन!

यूं अंगड़ाई लेकर उठी ये भोर की पहली किरण!

Thursday 10 May 2018

ओ बाबुल

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

कोई नन्ही कली सी, मैं तो थी खिली,
तेरे ही आंगन तो मैं थी पली,
चहकती थी मै, तेरा स्नेह पाकर,
फुदकती थी मैं, तेरे ही गोद आकर,
वही ऐतबार, तु मेरा देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

स्नेहिल स्पर्श, तुने ही दिया था मुझे,
प्रथम पग तूने ही सिखाया मुझे,
अक्षर प्रथम तुझसे ही मैं थी पढी,
शीतल बयार सी मै तेरे ही आंगन बही,
स्नेह का फुहार, वही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

बरखा बहार मैं, थी मेघा मल्हार मैं,
हर बार पाई तेरा दुलार मैं,
अब जाऊंगी कहाँ उस पार मैं,
न अलविदा तेरे मन से है होना मुझे,
विदाई का उपहार, यही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

मैं हूं विश्रंभी, तू मेरा ऐतबार रखना,
विश्वास का मेरे है तू ही गहना,
भूलूंगी ना मैं, तुझे अन्तिम घड़ी तक,
मिलने को आऊंगी, मैं तेरी देहरी तक,
मोह का संसार, यही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

Tuesday 8 May 2018

सम्मोहन

हो बिन देखे ही जब भावों का संप्रेषण,
उत्सुक सा रहता हो जब-तब ये मन,
कोई संशय मन को तड़पाताा हो हर क्षण,
पल पल फिर बढता है ये सम्मोहन....

ये सम्मोहन के अनदेखे मंडराते से घन,
नभ पर घनन-घनन गरजाते ये घन,
शायद उन नैनों के तट से आए है ये घन,
निष्ठुर कितना है ये प्रश्नमय संप्रेषण.....

भावों का ये प्रश्नमय अन्जाना संप्रेषण,
अनुत्तरित प्रश्नों में उलझा ये प्रश्न,
इन अनसुलझे प्रश्नो से भरमाया है मन,
ओ अपरिचित, ये कैसा है सम्मोहन....

शायद ये किसी विधुवदनी का आवेदन,
या हो यह विधुलेखा का सम्मोहन,
सम्मोहित करती हो शायद वो विधुकिरण,
ओ विधुवदनी,ये कैसा है सम्मोहन....

ओ मन रजनी, विधुवदनी ओ विधुलेखा,
ओ साजन, ओ अन्जाना, अनदेखा,
मन की भावो में लिपटा ये भावुक संप्रेषण,
पल पल बढ़ता ये तेरा है सम्मोहन....