Monday 25 June 2018

सधी हुई चाल

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

संयम रखता हूं, धीरज धरता हूं,
दो-दो पग तुलकर, इक पग मैं रखता हूं,
बाधाओं से परे, मैं निर्बाध चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

आवेग प्रबल, नियंत्रित करता हूं,
खुद चुप-चुप रहकर, इक पग रखता हूं,
अवरोध से परे, निर्विरोध चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

अन्तर्विरोध का, विरोध करता हूं,
खुदपर काबू रखकर, इक पग रखता हूं,
विवादमुक्त मैं, निर्विवाद चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

विचलित है राहें, सीधा चलता हूं,
फिसलन से बचकर, इक पग रखता हूं,
टेढी राहों पर, सधकर मैं चलता हूं....

पग-पग गिनता हूं, फिर दो पग चलता हूं....

प्रणय फुहार

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

सुकून सा कोई, मिला है हर मौसम,
न ही गर्मी है, न ही झुलसती धूप,
न ही हवाओं में, है कोई दहकती जलन...

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

कोई नर्म छाँव, लेकर आया हो जैसे,
घन से बरसी हों, बूंदों की ठंढ़क,
रेतीली राहों में, कम है पाँवों की तपन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

चल पड़ता हूं मैं गहरे से मझधार में,
भँवर कई, उठते हों जिस धार में,
है बस चाहों में, इक साहिल की लगन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

हाँ! ये तपिश, पल-पल होती है कम,
है ऐसा ही, ये प्रणय का मौसम,
इस रिमझिम में, यूं भीगोता हूं मैं बदन.....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

Friday 22 June 2018

कोरा अनुबंध

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

अनुबंधों से परे ये कैसा है बंधन!
हर पल इक बंधन में रहता है ये मन!
किन धागों से है बंधा ये बंधन!
दो साँसों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

जज्बातों की इक जंजीर है कोई!
या कोरे मन पर खिंची लकीर है कोई!
मीठी-मीठी सी ये पीर है कोई!
दो भावों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या हवाओं में लिखे कुछ अल्फाज!
सदियों तक कानों में गूंजती आवाज!
बीते से पल में डूबा सा आज!
दो लम्हों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या विरह में व्याकुल होते ये प्राण!
बस जाती इक तोते में कैसे ये जान!
अंजाने को अपनाता इंसान!
दो प्राणों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

Sunday 17 June 2018

दो पग साथ चले

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

ख्वाब हजारों आकर मुझसे मिले,
जागी आँखों में अब रात ढ़ले,
संग तारों की बारात चले,
सपनों में अब मन को आराम मिले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

कब दिन बीते जाने कब रैन ढले,
उम्मीद हजारो हम बांध चले,
उस पथ मेरे अरमान चले,
तुमको ही हम अपना मान चले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

पथ उबड़-खाबड़ मखमल से लगे,
पग पग कितने ही फूल खिले,
ये ख्वाब हकीकत में ढ़ले,
कितनी ही जन्मों के सौगात मिले!

दो पग पथ पर तुम क्या मेरे साथ चले......

हम, हम में थे..

तुम जब-जब दो पग मेरे स॔ग थे...

हम, हम में थे....
हम! तुझ में ही खोए हम थे,
जुदा न खुद से हम थे,
तुम संग थे,
तेरे पग की आहट मे थे,
कुछ राहत मे थे,
कुछ संशय में हम थे!
कहीं तुम और किसी के तो न थे?

तुम कहते थे....
हम! बस सुनते ही रहते थे,
तुम दो पल थे,
पर वो पल क्या कम थे?
गूंजते वो पल थे,
संग धड़कन के बजते थे,
आँखों में सजते थे,
उस पल, तुम बस मेरे ही होते थे!

वो दो पग थे.....
पर कहीं भी रुके न हम थे,
उस पथ ही थे,
जिस पथ तुम संग थे,
उस पल में हारे थे,
संग तुम्हारे थे,
वो नदी के किनारे थे,
बहती उस धार में तेरे ही इशारे थे!

तुम जब-जब दो पग मेरे स॔ग थे...

हम, हम में थे....
कभी, जुदा न खुद से हम थे.....

Saturday 16 June 2018

प्रवाह

इक आह भरता हूं, किश्तों में प्रवाह लिखता हूं.....

मैं अनन्त पथ गामी,
घायल हूं पथ के निर्मम कांटों से,
पथ के कंटक चुनता हूं,
पांवों के छालों संग,
अनन्त पथ चल पड़ता हूं,
राहों के कई अनुभव,
मन में रख लेता हूं यूं सहेजकर,
छाले गिन-गिन कर,
किश्तों में मन के प्रवाह लिखता हूं......

भाव-प्रवन मेरा मन,
प्लावित होता है कोमल भावों से,
भावों में बह जाता हूं,
खुद होता हूं बेसुध,
फिर लहरों में गोते खाता हूं,
अनुभव के कोरे पन्ने,
भर लेता हूं उन लहरों से चुनकर,
कुछ भीगे शब्दों से,
किश्तों में मन के प्रवाह लिखता हूं......

है अनथक प्रवाह यह,
गुजरा हूं कितनी दुर्गम राहों से,
घाट-घाट धो देता हूं,
मलीन मन लेकर,
सम्मुख सागर के हो लेता हूं,
छूट चुकी हैं जो राहें,
बरबस देखता हूं मैं मुड़-मुड़कर,
यादों के उस घन से,
किश्तों में मन के प्रवाह लिखता हूं......

इक आह भरता हूं, किश्तों में प्रवाह लिखता हूं.....

Wednesday 13 June 2018

कोई अन्त न हो

बासंती इन एहसासों का कोई अन्त न हो....

मंद मलय जब छू जाती है तन को,
थम जाती है दिल की धड़कन पलभर को,
फिर इन कलियों का खिल जाना,
फूलों की डाली का झूम-झूमकर लहराना,
इन जज्बातों का कोई अन्त न हो.....

यूं किरणों का मलयगिरी से मिलना,
मलयनील का उन शिखरों पर लहराना,
फिर रक्तिम आभा सा छा जाना,
यूं नत मस्तक होकर पर्वत का शरमाना,
इन मुलाकातों का कोई अन्त न हो.....

जब यूं चुपके से पुरवैय्या लहराए,
कोई खामोश लम्हों मे दस्तक दे जाए,
फिर यूं किसी का गले लग जाना,
चंद लम्हों में उम्र भर की कसमें खाना,
इन लम्हातों का कोई अन्त न हो.....

बासंती इन एहसासों का कोई अन्त न हो....

Sunday 10 June 2018

कितने और बसंत

बांकी है हिस्से में, अभी कितने और बसंत....

हो जब तक इस धरा पर तुम,
यौवन है, बदली सी है, सावन है अनन्त,
ना ही मेरा होना है अन्त,
आएंगे हिस्से में मेरे,
अनगिनत कितने ही और बसंत......

शीतल, निर्झर सरिता सी तुम,
धार है, प्रवाह है तुझमें जीवन पर्यन्त,
है तुझसे ही सारे स्पन्दन,
हिस्से में अब हैं मेरे,
कलकल बहते कितने ही बसंत.....

यूं जाते हो मुझको छूकर तुम,
ज्यूं बरखा हो, या बहती सी कोई पवन,
छू जाती हो जैसे किरण,
सासों के घेरे में मेरे,
एहसासों के कितने ही हैं बसंत.....

हर मौसम ही, खिलते हो तुम,
पतझड़ में, लेकर आते हो नवजीवन,
जगाते हो निष्प्राण मन,
संग सदा तुम मेरे,
हरपल देखे है कितने ही बसंत....

निश्छल स्निग्ध आकाश तुम,
जब तक है, तेरी इन सायों का ये घन,
कभी न होगा मेरा अन्त,
उतरेगे मन में मेरे,
सदाबहार होते कितने ही बसंत....

बांकी है हिस्से में मेरे, अभी कितने और बसंत....

Saturday 9 June 2018

पलकों तले रात

न जाने, क्या-क्या कहती जाती है ये रात....

पलकों तले, तिलिस्म सी ढ़लती ये रात,
धुंधली सी काली, गहराती ये रात,
झुनझुन करती इतराती कुछ गाती ये रात,
पलकों को, थपकाकर सुलाती ये रात!

नींद में डबडब, बोझिल होती ये पलकें,
कोई बैठा हो, जैसे आकर इन पर,
बरबस करता हों, इन्हें मूंदने की कोशिश,
सपनों को इनमें, भरने की कोशिश!

अंधियारे में उभरते, ये चमकीले से रंग,
सपनों की, ये धुंधली सी महफिल,
सतरंगी सी दुनियाँ में, मन का भटकाव,
इक अजूबा सा, अंजाना सा ठहराव!

पलकों तले, तैरती उभरती कई तस्वीरें,
विविध रंगों से रंगा ये सारा पटल,
मन मस्तिष्क पर, दस्तक देते रह रहकर,
सब है यहीं, पर कहीं कुछ भी नहीं!

पलकों तले ये रात.....
कोई तिलिस्म सी ढ़लती ये रात,
न जाने, क्या-क्या कहती जाती है ये रात....

Wednesday 6 June 2018

आज का दौर

बस इक अंतहीन सी तलाश है हर किसी को....
या हो महज ये दो जून की रोटी,
या खुद का खोया वजूद,
या कभी न मिटने वाली मानसिक भूख...

इक अनबुझ सी प्यास,
ये कभी न खत्म होने वाली तलाश,
अध्यात्म से आत्म की ओर,
जीने की जीवट जीजिविषा लिए,
पैरों को जमीन पर घसीटता,
पसीने से लथपथ,
माथे पे शिकन भरी लकीरें,
अजीब सी उदास आँखें लिए,
इधर उधर न जाने क्या तलाशता इंसान...

भूखे प्यासे भटकते लोग,
कुछ मनचाहा सा टटोलते ये लोग,
बेहिसाब अंधाधूंध भागते लोग,
बसें, ट्राम, टैक्सी, मोटरों का शोर,
हर तरफ परेशानियों का कहर,
बातों में घुलते जहर,
ईंट गाड़ा पत्थरों के ये शहर,
भीड़ में खुद को ही सम्भालते हुए,
मंजिलों को तलाशते ये मिट्टी के इंसान....

संबंधों में खूश्बू की आस,
करीबी रिश्तों में भरोसे की तलाश,
घटता अपनत्व, टूटता विश्वास,
सब छोड़कर, सब पाने की होड़,
बारिश में दो बूंद की प्यास,
मिश्री की घटती मिठास,
अंजान राहों पे अंतहीन सफर,
सब कुछ सहेजा फिर भी उलझा सा,
न जाने किन गिरहों को खोलता इन्सान.....

या हो महज ये दो जून की रोटी,
या खुद का खोया वजूद,
या कभी न मिटने वाली मानसिक भूख...
बस इक अंतहीन सी तलाश है हर किसी को....

Tuesday 5 June 2018

यहीं सांझ तले

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

दरख्त-दरख्त जब ठूंठ हो जाए,
धूप दरख्तों से छनकर तन को छू जाए,
आस बने जब इक सपना,
भीड़ भरे जीवन में, कोई ना हो अपना,
जब एकाकी सा ये दिन ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

धूप तले जब यूं ही दिन ढ़ल जाए,
थककर चूर कहीं जब ये बदन हो जाए,
वक्त बदल ले सुर अपना,
छलके आँसू बनकर, आँखों से सपना,
वक्त की धूप, बदन छू ले...

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

जब जीवन सुर मद्धिम पड़ जाए,
कोयल इन बागों में, कोई गीत न गाए,
जर्जर हो जाए ये मन वीणा,
झंकार न हो कोई, सूना सा हो अंगना,
सूना-सूना सा ये सांझ ढ़ले....

यहीं सांझ तले...
कोई छाँव जरा सा, आ कहीं हम ढूंढ़ लें......

Saturday 2 June 2018

ललक

चुरा लाया हूं बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....

कलकल से बहते किसी पल में,
नर्म घास की चादर पर, कहीं यूं ही पड़े हुए,
एकटक बादलों को निहारता मैं,
वो घुमड़ते से बादल, जैसे फैला हों आँचल,
बूंद-बूंद बादलों से बरसती हुई फुहारें,
वो बेपरवाह पंछियों की कतारें,
यूं हौले से फिर, मन मे भीगने की ललक,
बूंद-बूंद यूं संग भीगता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से वो ही झलक!
इक ललक, जो बाकी है अब तलक.....

ठंढ से ठिठुरते हुए किसी पल में,
चादरों में खुद को लपेटे, सिमटकर पड़े हुए,
चाय की प्याली हाथों में लिए मैं,
गर्म चुस्कियों संग, किन्ही ख्यालों में गुम,
धूप की आहट लिए, सुस्त सी हवाएँ,
कभी आंगन में यूं ही टांगे पसारे,
यूं आसमां तले, धूप में बैठने की ललक,
संग-संग यूं ही गर्म होता, वो फलक....

चुरा लाया हूं, बीते हुए लम्हों से इक झलक!
वही ललक, जो बांकी है अब तलक....