Showing posts with label अंजाना. Show all posts
Showing posts with label अंजाना. Show all posts

Sunday 11 April 2021

सफर

अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

जाना किधर, ये है किसको खबर,
कोई रह-गुजर, रोक ले, ये बाहें थामकर,
खोकर नेह में, रुक गए,
किसी की, स्नेह में, कहाँ झुक गए!
ये किसने जाना!

रोकती है राहें, छाँव, ये सर्द आहें,
पर जाना है मुझको, तू कितना भी चाहे,
भले हम, छाँव में सो गए,
यूँ कहीं ठहराव में, पल भर खो गए!
ये किसने जाना!

कोई पल न जाने, भिगो दे कहाँ, 
ये अँसुअन सी, नदी, ये बहता सा, शमाँ,
विह्वल, जो ये पल हो गए,
इक मझधार में, जाने कहाँ खो गए!
ये किसने जाना!
अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 27 December 2020

कैसा परिचय

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

फिर क्यूँ, मुड़ गई ये राहें!
मिल के भी, मिल न पाई निगाहें!
हिल के भी, चुप ही रहे लब,
शब्द, सारे तितर-बितर,
यूँ न था मिलना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

यूँ तो फूलों में दिखते हो!
कुनकुनी, धूप में खिल उठते हो!
धूप वही, फिर खिल आए हैं,
कई रंग, उभर आए हैं,
बन कर, अल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 23 January 2020

दर्पण मेरा

अब नहीं पहचानता, मुझको ये दर्पण मेरा!
मेरा ही आईना, अब रहा ना मेरा!

पहले, कभी!
उभरती थी, एक अक्स,
दुबला, साँवला सा,
करता था, रक्स,
खुद पर,
सँवर लेता था, कभी मैं भी,
देख कर,
हँसीं वो, आईना,
पहले, कभी!

अब कभी देखता हूँ, जब कहीं मैं आईना!
सोच पड़ता हूँ मैं! ये मैं ही हूँ ना?

अब, जो हूँ!
बुत, इक, वही तो हूँ,
मगर, अंजाना सा,
हुआ है, अक्स,
बे-नूर,
वक्त की थपेडों, से चूर-चूर,
मजबूर,
कहीं, दर्पण से दूर,
अब, जो हूँ!

अब ना रहा, मैं आईने में, उस मैं की तरह!
हैरान है, ये आईना, मेरी ही तरह!

मुझ में ही!
बही, एक जीवन कहीं,
जीवंत, सरित सी,
वो, बह चला
सलिल,
बे-परवाह, अपनी ही राह,
मुझसे परे,
छोड़ अपने, निशां,
मुझ में ही!

हरेक झण, चुप-चुप रहा, सामने ये दर्पण!
मेरे अक्स, चुराता, मेरा ये दर्पण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 11 August 2016

नर्म घास की फर्श पर

नर्म घास की फर्श पर, पल जीवन के मिल गए.....

ओस की बूँदों से लदी हरी सी घास वो,
दामन वादी में फैलाए बुलाती पल-पल पास वो,
कोमल स्पर्शों से दिलाती अपनत्व का आभाष वो,
इशारों से मन को हरती लगती खास वो,
इनकी विशाल सी बाहें, मन के प्रस्तर को हर गए....,

आकर्षित हो कुछ पल जो बैठा पास मैं,
बँध सा गया मन नर्म घास की हरी सी पाश में,
बूंदो से फिर मुझको नहलाया हरी सी घास ने,
रस करुणा का पिलवाया उसके एहसास ने,
आलिंगन उसकी बाहों के फिर तन को मिल गए.....

मूक भाषा में अपनी, बातें कितनी वो कह गई,
कह सके न लब जिसे, उन लफ्जों से मन को छू गई,
दे न सका जिसे अबतक कोई, राहत ऐसी दे गई,
भीनी सी खुशबु इनकी, एहसास नई सी दे गई,
अन्जाना था उससे मैं, रिश्ते जन्मों के अब जुड़ गए....

अनबोले बोलों में उसकी, पल जीवन के मिल गए....

Monday 25 July 2016

कोरे जज्बात

माने ना ये मेरी बात, ये कैसे हैं......कोरे जज्बात?

कोरा.....ये मेरा मन....., पर ये जज्बात हैं कैसे,
अनछुए..... से मेरे धड़कन..,,, पर ये एहसास हैं कैसे,
अनजाना.... सा यौवन...., पर ये तिलिस्मात हैं कैसे,
मन खींचता जाता किस ओर, ये अंजान है कैसे?

यौवन की.....,, इस अंजानी दहलीज पर,
उठते है जज्बातों के.........ये ज्वार.... किधर से,
कौन जगाता है .....एहसासों को चुपके से,
बेवश कर जाता मन को कौन, ये अंजान है कैसे?

खुली आँख... सपनों की ...होती है फिर बातें,
बंद आँखों में ....न जाने उभरती वो तस्वीर कहाँ से,
लबों पर इक प्यास सी...जगती है फिर धीरे से,
गहराती फिर मन में वो प्यास, मन अंजान हो कैसे?

फिर उस अंजानी बुत.....की ही होती बस बातें,
कहीं तारों के उपर...बस जाती मन की छोटी दुनियाँ,
साँसों में घुलती....खुश्बू फिर इक अंजानी सी,
गा उठते हैं जज्बात नए तराने, गीत अंजान ये कैसे?

संभाले ...अब कौन इसे, रोके ...कौन इसे कैसे,
बहके से हैं....ये जज्बात, एहसासों...की है ये बारात,
कोरा सा ये मन...रिमझिम सी उसपर ये बरसात,
सुलगी है आग मचले हैं ये जज्बात, माने ये फिर कैसे?

माने ना ये मेरी बात, ये कैसे हैं.......कोरे जज्बात?

Saturday 16 April 2016

अंजाना

कुछ अंजान से शक्ल जो, यादों मे ही बस हैं आते!

साँसों में इक आहट सी भरकर,
कहीं खो गया वो, अंजान राहों मे टूटकर,
अब समय ठहरा हुअा है शिला-सा,
निष्पलक लोचन निहारती, साँसों की वो ही डगर।

चल रही उच्छवास, आँधियों की वेग से,
कहीं खोया है अंजान वो, धड़कनों की परिवेश से,
वो क्षण कहाँ रुक सका है, समय की आगोश से,
हृदय अचल थम रहा है, उस अंजान की आहटों से।

शक्ल अंजान एेसे क्युँ हृदय में समाते?
समय हर पल गुजरता, क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक नैन वो जहाँ अब, सपने कभी आते न जाते,
अब अंजान सा शक्ल वो, यादों मे ही सिर्फ आते।