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Friday 8 January 2021

श्रद्धांजलि

एक अभिन्न मित्र की असामयिक अंतिम यात्रा पर, अनुभूति के श्रद्धासुमन.....इक श्रद्धांजलि

अकेले ही, मुड़ गए तुम, अनन्त की ओर,
पीछे, सारे सगे-संबंधी, छोड़!

एक कदम, बिन साथी, तुम कब चलते थे,
तुम तो, तन्हाई से भी, डरते थे,
पर अबकी, चल पड़े तुम,
तन्हा, बिन बोले,
उस अंजाने, अंधेरे की ओर,
सब, संगी-साथी छोड़! 

अकस्मात्, तुम, चुन बैठे, इक अनन्त पथ, 
ना, सारथी कोई, ना कोई, रथ,
अनिश्चित सा, वो गन्तव्य!
खाई, या पर्वत!
या, वो इक अंतहीन सा मोड़,
या, सघन वन घनघोर!

माना कि जरा भारी था, ये वक्त, ये संघर्ष!
पर, स्वीकारना था, इसे सहर्ष,
यूँ खत्म, नहीं होती बातें,
यूँ फेरकर आँखें,
चल पड़े हो, सच से मुँह मोड़,
बेफिक्र हो, उस ओर!

जाते-जाते, संग उन यादों को भी ले जाते,
सारी, कल्पनाओं को ले जाते,
ढूंढेगीं, जो अब तुझको,
यूँ, रह-रह कर,
गए ही क्यों, रख कर इस ओर!
विस्मृतियों के, ये डोर!

अकेले ही, मुड़ गए तुम, अनन्त की ओर,
पीछे, सारे सगे-संबंधी, छोड़!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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प्रिय मित्र स्व.कौशल  ....अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि 
जहाँ भी हो, खुश रहो दोस्त,
स्मृति के सुमधुर क्षण में,  तुम हमेशा संग रहोगे।

Monday 12 October 2020

मिथक सत्य

इक राह अनन्त, है जाना,
उलझे इन राहों में, मिथ्या को ही सच माना!
नजरों से ओझल, इक वो ही राह रहा,
भ्रम वो, कब टूटा!
मोह-जाल, माया का यह क्रम, कब छूटा!
दिग्भ्रमित, राह वही थामते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

जो भी, जीवन में घटा,
इक कोहरा सा, अन्त-काल तक, कब छँटा!
इक मिथक सा, लिखा मन पर रहा,
मिटाए, कब मिटा!
पर, चक्र पर, काल की सब कुछ लुटा,
खुले हाथ, कुछ थामते हैं कब?
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

वृहद, समय का विस्तार,
बेतार, संवाद कर रहा समय का तार-तार!
पर, मिथक ही, मैं विवाद करता रहा,
विवाद, कब थमा!
समय का, अनसुन संवाद चलता रहा,
अबिंबित, वो बातें मानते हैं कब!
शायद, ये जानते हैं सब!

इक मिथ्या को, सच मानते हैं सब!
शायद, ये जानते हैं सब!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 16 December 2019

बिखरो न यूँ

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
सँवार लो, अपनी ही रंगों में,
ढ़ाल लो, हकीकत में, इन्हें तुम!

सपने ही हैं, गर टूट भी जाएँ तो क्या,
नए, सपने गुनो तुम!
उतर कर, निशा की छाँव में,
तम की गाँव के, तारे चुनो तुम!

बसे हैं इर्द-गिर्द, तुम्हारे सपनों के घर,
घर, कोई चुनो तुम!
बसा लो, इन्हें अपने नैन में,
बिखरे पलों को, समेट लो तुम!

या हों बिखरे, या चाहों मे रहे पिरोए,
उन्हीं की, सुनो तुम!
बिखर कर, स्वाति बूँदों में,
गगन से आ, सीप में गिरो तुम!

वस्तुतः, है अन्त ही, इक नया आरंभ,
पथ, अनन्त चुनो तुम!
राहें, बदल जाते हैं, मोड़ में,
हर छोड़ में, खुद से मिलो तुम!

बिखरो न यूँ, मन के मनके, चुनो तुम,
चलो, सपने बुनो तुम!
निराशा के, डूबे से क्षणों में,
नींव, आशा की, नई रखो तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 16 June 2018

प्रवाह

इक आह भरता हूं, किश्तों में प्रवाह लिखता हूं.....

मैं अनन्त पथ गामी,
घायल हूं पथ के निर्मम कांटों से,
पथ के कंटक चुनता हूं,
पांवों के छालों संग,
अनन्त पथ चल पड़ता हूं,
राहों के कई अनुभव,
मन में रख लेता हूं यूं सहेजकर,
छाले गिन-गिन कर,
किश्तों में मन के प्रवाह लिखता हूं......

भाव-प्रवन मेरा मन,
प्लावित होता है कोमल भावों से,
भावों में बह जाता हूं,
खुद होता हूं बेसुध,
फिर लहरों में गोते खाता हूं,
अनुभव के कोरे पन्ने,
भर लेता हूं उन लहरों से चुनकर,
कुछ भीगे शब्दों से,
किश्तों में मन के प्रवाह लिखता हूं......

है अनथक प्रवाह यह,
गुजरा हूं कितनी दुर्गम राहों से,
घाट-घाट धो देता हूं,
मलीन मन लेकर,
सम्मुख सागर के हो लेता हूं,
छूट चुकी हैं जो राहें,
बरबस देखता हूं मैं मुड़-मुड़कर,
यादों के उस घन से,
किश्तों में मन के प्रवाह लिखता हूं......

इक आह भरता हूं, किश्तों में प्रवाह लिखता हूं.....

Saturday 25 November 2017

अनन्त प्रणयिनी

कलकल सी वो निर्झरणी,
चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी,
दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

छमछम सी वो नृत्यकला,
चिर यौवन, चिर नवीन कला,
मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

धवल सी वो चित्रकला,
नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला,
अनन्त काल से, मन को रंग रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

निर्बाध सी वो जलधारा,
चिर पावन, नित चित हारा,
प्रणय की तृष्णा, तृप्त कर रही,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

प्रणय काल सीमा से परे,
हो प्रेयसी जन्म जन्मान्तर से,
निर्बोध कल्पना में निर्बाध बहती,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

अतृप्त तृष्णा अजन्मी सी,
तुम में ही समाहित है ये कही,
तृप्ति की इक कलकल निर्झरणी,
मेरी अनन्त प्रणयिनी......

(शादी की 24वीं वर्षगाँठ पर पत्नी को सप्रेम समर्पित) 

Wednesday 24 February 2016

खोह ये अजीब सी

चले जा रहे हैं हम, न जाने किस खोह में,
बढी़ जा रही जिन्दगी, न जाने किस खोज में,
है ये यात्रा अनंत सी, न जाने किस ओर में।

मंजिलो की खबर नहीं, न रास्तों का पता,
ये कौन सी मुकाम पर, जिन्दगी है क्या पता,
यात्री सभी अंजान से, न दोस्तों का है पता।

खोह ये अजीब सी, रास्ते कठिन दुर्गम यहाँ,
चल रहें हैं सब मगर, इक बोझ लिए सर पे यहाँ,
पाँव जले छाले पड़े, पर रुकती नही ये कारवाँ।

एक पल जो साथ थे, साथ हैं वो अब कहाँ,
एक एक कर दोस्तों का, अब साथ छूटता यहाँ,
सांसों की डोर खींचता, न जाने कौन कब कहाँ।

दिशा है ये कौन सी, जाना हमें किस दिशा,
भविष्य की खबर नहीं, गंतव्य का नहीं पता,
असंख्य प्रश्न है मगर, जवाब का नहीं पता।

कण मात्र है तू व्योम का, इतने न तू सवाल कर,
तू राह पकड़ एक चल, उस शक्ति पे तू विश्वास कर,
हम सब फसे इस खोह में, चलना हमें इसी डगर।

मुक्ति मिलेगी खोह से, तू चलता रहा अगर,
ईशारे उस पराशक्ति के, तू समझता रहा अगर,
खिलौने उस हाथ के, जाना है टूट के बिखर।

Sunday 14 February 2016

अभिलाषा पल की

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इक पल में।

चाह अनन्त पलते इस मन में, 
घड़ियाँ बस पल दो पल जीवन में,
चाह सपनों की हसीन लड़ियों से, 
सजाता जीवन की घड़ियों को संग तेरे।

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इस पल में।

आज मोहक इस वेला में,
सुधि फिर लेती मन में इक आशा,
अरमान कई सजते इस तन मन में,
जीवन संध्या प्रहर पलती कैसी अभिलाषा?

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लेता इक पल में।

डूब रहा मन अनचाही चाहों में,
सुख सपनों के नगरी की प्रत्याशा,
झंकृत हो रहा अनगिनत तार मन में,
जीवन की इस वेला में ये कैसी अभिलाषा?

प्रिय, युग-युग की चाह पूरी कर लूँ इक पल में।

Tuesday 5 January 2016

चिर प्रेयसी, अनन्त-प्रणयिनी


तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

काल सीमा से परे हमारा प्रणय,
चिर प्रेयसी तुम जन्म-जन्न्मातर से,
मेरी कल्पनाओं में बहती निर्बाध प्रवाह सी,
इस जीवन-वृत्त के पुनर्जन्म की स्मृति सी,
विस्तृत अन्तर्दृष्टि पर मोह आवरण जैसी।

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

तुम अप्राप्य निधि जीवन वृत्त की,
तुम अतृप्त तृष्णा जन्म-जन्मान्तर की,
लुप्त हो जाती है जो आँखों में आकर,
क्या अपूर्ण तृष्णा की तृप्ति कभी हो पाएगी?
क्या तृष्णा-तृप्ति में समाहित हो पाएँगी?

तुम मेरी चिर प्रेयसी,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी।

Tuesday 29 December 2015

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

मिटती नही मन की क्युँ प्यास !

जैसे जीवन में गायन हो कम,
गायन में हों स्वर का अधूरापन,
स्वर में हो कंपन का विचलन,
कंपन में हो साँसों का तरपन ।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

जीवन दो क्षण सुख के मिले,
और प्यास मिली रेगिस्तानों सी,
मृगतृष्णा अनंत अरमानों के मिले,
प्यास मिली कितनी प्रबल सी।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?