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Sunday 3 February 2019

अनुबंध

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

तसव्वुर में, उन्ही की यादों में मन,
होठों पे तवस्सुम, आँखों मे शबनम,
छलकते पैमाने, सूना सा आंगन,
थिरकता इक धुन, चुप-चुप सरगम,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

तसव्वुर में, इठलाते मंडराते घन,
मुस्काते कण-कण, कंपित धड़कन,
बरसते वो घन, भीगा सा सावन,
रिश्तों की नई परिभाषा, रचता मन,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

अंजाने शब्द, अंजानी ये भाषा,
हकीकत है, या कल्पना कोरा सा,
मन की दीवारों पर, जरा सा,
है लिखा कहीं, या है अधलिखा सा,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

चैन जरा सा, बेचैनी सी हर पल,
अनुबंधों से परे, मन कहता यूँ चल,
बंध रहित  अनुबंधों से विकल,
ऐ दिल चल, बह कहीं और निकल,
शर्त-रहित, कोरा सा ये अनुबंध!

अनुबंधों से परे, मन का है ये अनुबंध!

Friday 22 June 2018

कोरा अनुबंध

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

अनुबंधों से परे ये कैसा है बंधन!
हर पल इक बंधन में रहता है ये मन!
किन धागों से है बंधा ये बंधन!
दो साँसों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

जज्बातों की इक जंजीर है कोई!
या कोरे मन पर खिंची लकीर है कोई!
मीठी-मीठी सी ये पीर है कोई!
दो भावों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या हवाओं में लिखे कुछ अल्फाज!
सदियों तक कानों में गूंजती आवाज!
बीते से पल में डूबा सा आज!
दो लम्हों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

या विरह में व्याकुल होते ये प्राण!
बस जाती इक तोते में कैसे ये जान!
अंजाने को अपनाता इंसान!
दो प्राणों का अनबुझ सा ये अनुबंध!

कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?

Wednesday 23 August 2017

कलपता सागर

हैं सब, बस उफनती सी उन लहरों के दीवाने,
पर, कलपते सागर के हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने!

पल-पल विलखती है वो ...
सर पटक-पटक कर तट पर,
शायद कहती है वो....
अपने मन की पीड़ा बार-बार रो रो कर,
लहर नहीं है ये....
है ये अनवरत बहते आँसू के सैलाब,
विवश सा है ये है फिर किन अनुबंधों में बंधकर....

कोई पीड़ दबी है शायद इसकी मन के अन्दर,
शांत गंभीर सा ये दिखता है फिर क्युँ, मन उसका ही जाने?

बोझ हो चुके संबंधों के अनुबंध है ये शायद!
धोए कितने ही कलेश इसने,
सारा का सारा.......
खुद को कर चुका ये खारा,
लेकिन, मानव के कलुषित मन...
धो-धो कर ये हारा!
हैं कण विषाद के, अब भी मानव मन के अन्दर,
रो रो कर यही, बार-बार कहती है शायद ये लहर.....

ठेस इसे हमने भी पहुँचाया है जाने अनजाने!
कंपित सागर के कलपते हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने!

Thursday 31 December 2015

समय और अनुबंध

अनुबंधों में हम बंध सकते हैे,
समय नही अनुबंधों में बंधता,
समय निरंकुश क्या बंध पाएगा,
अनुबंधों की परिधियां तोड़ता,
गंतव्य की ओर निकल जाएगा।

मानव विवश है समय सीमा में,
सुख-दुख दोनों समय के हाथों,
अनुबंध की शर्तें विवश समय मे,
समय सत्ता जो समझ पाएगा,
अनुबंधो के पार वही जा पाएगा।