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Tuesday 21 July 2020

आत्म-मंथन

खुद की परिभाषा, कैसे लिख पाऊँ!

सहज नहीं, खुद पर लिख पाना,
खुद से, खुद में छुप जाना,
कल्पित सी बातें हों, तो विस्तार कोई दे दूँ,
अपनी अवलम्बन का, ये सार,
खुद का, ये संसार,
भला, गैरों को, कैसे दे दूँ!

खुद अपनी व्याख्या, कैसे कर जाऊँ ?

मूरत हूँ माटी की, मन है पहना,
ये जाने, चुप-चुप सा रहना,
शायद हूँ, किसी रचयिता की मूर्त कल्पना!
इर्द-गिर्द, इच्छाओं का सागर,
छू जाए, आ-आकर,
कैसे, ये विचलन लिख दूँ!

चुप सा वो अनुभव, कैसे लिख पाऊँ !

उथल-पुथल, मन के ये हलचल,
राज कई, उभरते पल-पल,
परिदग्ध करते, वो ही बीते पल के विघटन!
वो गुंजन, उन गीतों के झंकार,
विस्मृत सा, वो संसार,
व्यक्त, स्वतः कैसे कर दूँ!

खुद की अभिलाषा, कैसे लिख जाऊँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 27 April 2020

हर बार - (1200वाँ पोस्ट)

बाकी, रह जाती हैं, कितनी ही वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

कभी, चुन कर, मन के भावों को,
कभी, सह कर, दर्द से टीसते घावों को,
कभी, गिन कर, पाँवों के छालों को,
या पोंछ कर, रिश्तों के जालों को,
या सुन कर, अनुभव, खट्ठे-मीठे, 
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर, सोचता हूँ, हर बार,
शायद, फिर से ना दोहराए जाएंगे, 
वो दर्द भरे अफसाने,
शायद, अब हट जाएंगे, 
रिश्तों से वो जाले,
फिर न आएंगे, पाँवों में वो छाले,
उभरेगी, इक सोंच नई,
लेकिन! हर बार,
फिर से, उग आते हैं,
वो ही काँटें,
वो ही, कटैले वन,
मन के चुभन,
वो ही, नागफनी, हर बार!
अधूरी, रह जाती हैं,
लिखने को,
कितनी ही बातें, हर बार!

फिर, चुन कर, राहों के काँटों को,
फिर, पोंछ कर, पाँवों से रिसते घावों को,
फिर, बुन कर, सपनों के जालों को,
देख कर, रातों के, उजालों को,
या, तोड़ कर, सारे ही मिथक,
कुछ, लिखता हूँ हर बार!

फिर भी, रह जाती हैं कितनी वजहें,
कितने ही सफहे,
कुछ, लिखने को हर बार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 22 November 2018

कहें-न-कहें

कुछ कहें, न कहें हम,
या, कुछ लिखें, न लिखें हम,
अनबोले से ये बोल, अनलिखे से ये शब्द,
तुम पढ़ लेना....

तन्हा इक पल भी, न होने देंगे तुम्हे,
निश्छल से ये झर-झर झरने.....
कल-कल से बहते ये क्षण, 
अनसुने से ये गीत, अनकहे से ये संगीत,
तुम सुन लेना....

पत्तियों पर अटकी, ओस की ये बूँदें,
समीर के ये पुरकशिश झोंके....
सहला जाएंगे हौले से तन,
अन्जाने से ये अनुभव, अनबुझ से ये रंग,
तुम समेट लेना...

गिरि पर टूटकर, बिखरती ये किरणें,
पर्वत के रंगीले शिखर सुनहरे...
नृत्य नाद करती ये किरण,
अनदेखी सी ये तस्वीर, अनदेखे ये नृत्य,
तुम देख लेना.....

कब तक है भला, साँसों का ये छंद,
पर जब तक चलते है पवन....
गुजरेंगे, छूकर ही ये तन,
अनदेखी ये छुअन, अनछूए से एहसास,
तुम जान लेना....

कुछ कहें, न कहें हम,
या, कुछ लिखें, न लिखें हम,
अनबोले से ये बोल, अनलिखे से ये शब्द,
तुम पढ़ लेना....

Friday 3 August 2018

लिखता हूं अनुभव

निरंतर शब्दों मे पिरोता हूं अपने अनुभव....

मैं लिखता हूं, क्यूंकि महसूस करता हूं,
जागी है अब तक आत्मा मेरी,
भाव-विहीन नहीं, भाव-विह्वल हूं,
कठोर नहीं, हृदय कोमल हूं,
आ चुभते हैं जब, तीर संवेदनाओं के,
लहू बह जाते हैं शब्दों में ढ़लके,
लिख लेता हूं, यूं संजोता हूं अनुभव...

निरंतर शब्दों मे पिरोता हूं अपने अनुभव....

मैं लिखता हूं, जब विह्वल हो उठता हूं,
जागृत है अब तक इन्द्रियाँ मेरी,
सुनता हूं, अभिव्यक्त कर सकता हूं,
संजीदा हूं, संज्ञा शून्य नहीं मैं,
झकझोरती हैं, मुझे सुबह की किरणें,
ले आती हैं, सांझ कुछ सदाएं,
सुन लेता हूं, यूं बुन लेता हूं अनुभव...

निरंतर शब्दों मे पिरोता हूं अपने अनुभव....

Thursday 16 November 2017

आत्मकथा

खुद को समझ महान, लिख दी मैने आत्मकथा!

इस तथ्य से था मैं बिल्कुल अंजान,
कि है सबकी अपनी व्यथा,
हैं सबके अनुभव, अपनी ही इक राम कथा,
कौन पढे अब मेरी आत्मकथा?

अंजाना था मैं लेकिन, लिख दी मैने आत्मकथा!

हश्र हुआ वही, जो उसका होना था,
भीड़ में उसको खोना था,
खोखला मेरा अनुभव, अधूरी थी मेरी कथा,
पढता कौन मेरी ऐसी आत्मकथा?

अधूरा अनुभव लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

अनुभव के है कितने विविध आयाम,
लघु कितना था मेरा ज्ञान,
लघुता से अंजान, कर बैठा था मैं अभिमान,
बनती महान कैसे ये आत्मकथा?

अभिमानी मन लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

टूटा ये अभिमान, पाया था तत्व ज्ञान,
लिखना तो बस इक कला,
पहले पूरी कर लूँ मै बोधिवृक्ष की परिक्रमा,
सीख लूँ मैं पहले सातों कला,
लिख पाऊंगा फिर मैं आत्मकथा!

उथला ज्ञान लेकर, लिखी थी मैने आत्मकथा!

Sunday 28 February 2016

पक रहा मानव

जीवन की भट्ठी में पक रहा मानव।

न जाने किस स्वर नगरी में मानव,
हैं बज रहा यूँ ज्यूँ तेज घुँघरू की रव,
कुछ राग अति तीव्र, कुछ राग अभिनव।

न जाने किन पदचिन्हों पर अग्रसर,
पल पल कितने ही मिश्रित अनुभव,
संग्रहित कर रहा इन राहों पर मानव।

कुछ अकथनीय और कुछ असंभव,
कुछ खट्टे मीठे और कुछ कटु अनुभव,
क्या जीवन इस बिन हो सकता संभव?

जीवन की भट्ठी में पक रहा मानव।

Thursday 25 February 2016

अनुभव मीठे हो जाते!

अनुभव मीठे हो जाते, तुम साथ अगर दे देते।
राह सरल हो जाता, तुम साथ अगर दे देते।

उबड़ खाबर इन रास्तों पर,
दूभर सा लगता जीवन का सफर,
पीठ अकड़ सी जाती यहाँ,
टूट जाते है अच्छे-अच्छों के कमर।

सफर सरल हो जाता, तुम साथ अगर दे देते।
अनुभव मीठे हो जाते, तुम साथ अगर दे देते।

टेढे मेढे रास्ते ये जीवन के,
अनुभव कुछ खट्टे मीठे मिलेजुले से,
तीते लगते कुछ फल बेरी के,
दाँत कटक जाते हैं अच्छे-अच्छों के।

अनुभव मीठे हो जाते, तुम साथ अगर दे देते।
सफर सरल हो जाता, तुम साथ अगर दे देते।