Showing posts with label आलाप. Show all posts
Showing posts with label आलाप. Show all posts

Thursday 30 September 2021

टूटे पत्थरों के गीत

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

ह्रदय के ज़ख्म सारे, ‌‌‌‌‌‌‌गाकर गीत हारे,
हरे, ये ज़ख्म उभरे,
‌कौन, इन जख्मों को भरे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

रही जब तक, शिला, हर कोई मिला,
गिला, क्यूं ना करे,
लगाए कौन, मन पे पहरे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

तोड़ा था, उसी ने, जिसने यूं बिखेरा,
अधूरा, ये गीत मेरा,
वो सुने, ना, विलाप करे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

भर ही जाएं, ना कुरेदो ज़ख़्म कोई,
रहने दो, यूं ही पड़ा,
सह लूंगा, राह की ठोकरें!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

बुलाएंगे ये कल, पुकारेंगे आह मेरे,
लुभाएंगे, ज़ख्म हरे,
देखें, कौन जख्मों को भरे!

टूटे पत्थरों के गीत, कोई क्यूं सुने‌....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 4 February 2020

पदचाप

बहुधा, गिनता रहता हूँ, पल-पल,
बस यूँ, चुपचाप!
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

लगता है, इस पल तुम आए हो,
यूँ बैठे हो, पास!
सुखद वही, इक एहसास, 
तेरा ही आभास,
और चुप-चुप,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

बहुधा, कहीं बहती है इक सुधा,
बस यूँ, चुपचाप!
शायद, हों उनके अनुलाप,
करती हो आलाप,
थम-थम कर,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

मन भरमाए, वो हर इक आहट,
हर वो, पदचाप!
दोहराए, वो ही अभिलाप,
वो ही एकालाप,
करे रुक-रुक,
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

बहुधा, गिनता रहता हूँ, पल-पल,
बस यूँ, चुपचाप!
सूनी राहों पर, वो पदचाप!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 29 June 2016

ख्याल

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,
जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,
महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,
मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,
भूल सा जाता है ये मन के तुम कहीं हो ही नहीं,
बस इक परछाईं सी हो तुम कोई अक्स नहीं,
गुमसुम सा विकल ये मन मानता ही नहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

राख बन कर ही सही उर रहीं हैं यादें तेरी,
गहरा धुआँ सा छा रहा हैं मन के गगन पर मेरी,
क्या मिलोगे मुझे उस क्षितिज के किनारे कहीं,
इस रूह की गहराईयों में तुम छुपे हो कहीं।

तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!

Monday 23 May 2016

एक आलाप जीवन का

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।

हकीकत हो तुम मेरे अर्धजीवन की,
अर्धांगिनी हो तुम ही मेरी अधूरे सपन जीवन की,
संगिनी तुम ही अनचाहे इन दूरियों की,
सपनों में तुम बिखरते हो ख्यालों से निकलकर।

क्षण-क्षण छू जाते हो तुम हर रोज मुझे,
एक नया अधूरा मनचाहा ख्वाब सा बनकर...
अर्धजीवन की राहों पर देखता हूँ मैं तुमको छूकर,
हकीकत बन जब उभरते हो ख्वाबों से चलकर।

तुम अधूरी सी गीत कल्पना की चादरो में लिपटी,
कुछ शब्द अधूरे है मेरे दामन मे भी लिपटे,
अधूरे ख्वाबों के पल मे वो गीत पूरे से बनने लगते,
ये दुनिया यूँ ही कहती है कि तुम मेरे करीब नहीं........

तुम तो आलाप भर उभरती हो मेरे गीतों में ढ़लकर।