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Tuesday 1 June 2021

तसल्ली

दिल को, तसल्ली थोड़ी सी,
मैंने, दी तो थी,
अभी,
कल ही!

पर ये जिद पर अड़ा, रूठ कर पड़ा,
बेवजह, दूर वो खड़ा,
किसी की, चाह में,
उसी राह में,
बेवजह, इक अनबुने से ख्याल में!

कोई मूर्त हो, तो, ला भी दूँ, मैं भला,
पर, अमूर्त कब मिला!
अजीब सी चाह है,
इक प्रवाह है,
बेवजह, बहल रहा, उस प्रवाह में!

करे वो कैसे, इक सत्य का सामना,
जब, प्रबल हो कामना,
बुने, कोई उधेड़बुन, 
छेड़े वही धुन,
वो ही गीत, खुद सुने, एकान्त में!

दिल को, तसल्ली थोड़ी सी,
मैंने, दी तो थी,
अभी,
कल ही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 7 February 2021

दूर कितना

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

छू लेता हूँ, कभी, हाथों को बढ़ाकर,
कभी, पाता हूँ, दूर कितना!
पल-पल, पिघलता हो, जैसे कोई एहसास, 
द्रवीभूत कितना, घनीभूत कितना,
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

हो दूर लेकिन, हो एहसासों में पिरोए,
बांध लेते हो, कैसे बंधनों में!
पल-पल, घेर लेता हो, जैसे कोई एहसास,
गुम-सुम, मौन, पर वाचाल कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

गुजरते हो, कभी, मुझको यूँ ही छूकर,
जगा जाते हो, कभी जज्बात,
पल-पल, भींच लेते हो, भरकर अंकपाश,
शालीन सा, पर, चंचल है कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!

काश, ख्वाहिशों के, खुले पर न होते,
इतने खाली, ये शहर न होते!
गूंज बनकर, न चीख उठता, ये आकाश,
वो, एकान्त में, है अशान्त कितना!
मेरा आकाश!

है, दूर कितना, कितने पास!
मेरा आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
    (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 25 October 2020

चुभन

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

हो गए हो, गुम कहीं आज कल तुम!
हाँ संक्रमण है, कम ही मिलने का चलन है!
वेदना है, अजब सी इक चुभन है!
तो, काँटे विरह के, क्यूँ बो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

चल कर ना मिलो, मिल के तो चलो!
हाँ, पर यहाँ, मिल के बिसरने का चलन है!
सर्द रिश्तों में, कंटक सी चुभन है!
तो, रिश्ते भूल के, क्यूँ सो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते पलों को तुम!

पल कर, शूल पर, महकना फूल सा,
हाँ, खिलते फूलों के, बिखरने का चलन है!
पर, बंद कलियों में इक चुभन है!
तो, यूँ सिमट के, क्यूँ घुट रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

एकाकी, हो चले हो, आज कल तुम,
हाँ, संक्रमण है, एकांत रहने का चलन है!
पर, स्पंदनों में, शूल सी चुभन है!
तो, यूँ एकांत में, क्यूँ खो रहे हो तुम?

यूँ, खो न देना, सिमटते इन पलों को तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 25 March 2020

एकान्त

चल चुके दूर तक, प्रगति की राह पर!
रुको, थक चुके हो अब तुम,
चल भी ना सकोगे, 
चाह कर!

उस कल्पवृक्ष की, कल्पना में,
बीज, विष-वृक्ष के, खुद तुमने ही बोए,
थी कुछ कमी, तेरी साधना में,
या कहीं, तुम थे खोए!
प्रगति की, इक अंधी दौर थी वो,
खूब दौड़े, तुम,
दिशा-हीन!
थक चुके हो, अब विष ही पी लो,
ठहरो,
देखो, रोकती है राहें,
विशाल, विष-वृक्ष की ये बाहें!
या फिर, चलो एकान्त में
शायद,
रुक भी ना सकोगे!
चाह कर!

तय किए, प्रगति के कितने ही चरण!
वो उत्थान था, या था पतन,
कह भी ना सकोगे,
चाह कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एकान्त (Listen Audio on You Tube)
https://youtu.be/hUwCtbv0Ao0

Thursday 19 May 2016

यादों की एकान्त वेला

मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
आह ! यह एकान्त वेला, फिर याद लेकर उनकी आई...!

अतिशय उलझा है मन फिर ये कैसी रानाई,
घटाएँ उनके यादों की बदली सी इस मन पर छाई,
निस्तब्ध इस एकान्त वेला में ये कैसी है तन्हाई....?

यादों में पल पल वो झूलों से आते लहराकर,
मुखरे पर वही भीनी सी मंद मुस्कान बिखराकर,
कर जाते वो निःशब्द मुझको अपनाकर....!

लहराते जुल्फों की छाँवो में ही रमता है ये मन,
उनकी यादों की गाँवों में ही बसता है अब ये मन,
मन चल पड़ता उस ओर पाते ही एकान्त क्षण....!

तन्हाई डसती नहीं उनकी यादें जब हो संग,
मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
काश! क्षण उम्र के यूँ ही गुजरे यादों में उनकी संग....!

Tuesday 3 May 2016

मेरा एकान्त मन


मेरा मन,
जैसे एकान्त आकाश में उड़ता अकेला पतंग,
इन्तजार ये करता है किसका एकान्त में,
कब झाँक पाया है कोई मन के भीतर उस प्रांत में,
हर शाम यह सिमट आता खुद ही अपने आप में।

मेरा मन,
जैसे निर्जन वियावान में आवारा सा बादल,
बरस पड़ता है ये कहीं किसी जंगल में,
कब जान पाया है कोई क्या होता मन के आंगण में,
सावन के बूंदों सा भर आता है मन चुपचाप ये।

मेरा मन,
मत खेलना तुम कभी मेरे इस कोमल मन से,
अकेलेपन के सैकड़ों दबिश भी हैं इनमें,
कब पढ़ पाया है कोई मेरे मन के अन्दर की भाषा,
अब कौन दे दिलाशा इसे, चटका है कई बार ये।

मेरा एकान्त मन, मौन है किसी मूक बधिर सा ये।