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Thursday 15 April 2021

पत्ता

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

ऋतुमर्दन ही होना था, इक दिन तेरा, 
ऋतुओं में ही, खोना था,
ऋतुओं पर, ना करना था यूँ एतबार,
ऋतु पालक, ऋतु संहारक,
ऋतुओं से, रखना था, विराग जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

डाली पर पनपे, यूँ डाली से ही छूटे!
बिखरे, यह कैसी, इति!
व्यक्त और मुखर, ऋतुओं से बेहतर,
अभिव्यक्ति ही था कारण,
मौसमों में, रहना था अव्यक्त जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

निखर आए, तेरे अंग, ऋतुओं संग,
यूँ, नजरों में, चढ़ आए,
ऋतुओं संग, पनपता, अनुराग तेरा,
शायद, अखरा हो उनको,
डाली को करना था, विश्वास जरा!

अलकों पर कोई रखता, यूँ न बिखरता!
कोई पत्ता, अनुराग भरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 11 May 2016

वादों का क्या

वादों का क्या है, कल फिर नया इक कर लेंगे वादा!

जुबाने वादा अगर कर बैठे हैं तो क्या,
लिख कर कोई कागज तो हमने न दिया,
खता है ये उसकी एतबार जिसने किया,
वादा है ये फखत्, इन वादों का क्या?

वादा ही था, कल नया फिर कर लेगे हम इक वादा!

वो और थे जो वादो पे हो जातेे थे फना,
उम्र गुजरी थी जब, वादों की लगती थी हिना,
बंदिशें उन वादों की, जीना भी क्या उनके बिना,
वो एतबार क्या, जब उन वादो पे ना जिया?

वादा ही है वो जिसमे डूबे है दिल, डूबा ये सारा जहाँ!

दिल पिघल जाते है बस वादों की धूप में,
मर्म लेती है जन्म उन वादों की रूप में,
एहसास लहलहाते है उन वादों के स्वरूप में,
वादा तो है वो, सांसो की धागों से है जो सीया?

वादों का क्या, अब कौन निभाता है करके वादे यहाँ?