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Sunday 5 January 2020

ओस

गोल-गोल, कुछ उजली-उजली,
पात-पात, पर थी फिसली,
अंग-अंग, प्रकृति संग लिपटी,
चढ़ दूब पर, इतराई,
ओस कण, मन को थी भरमाई!

शीतलता, समेट कर आँचल में,
बाँट डाले, कलियों में,
सराबोर, हुए दूब गलियों में,
आया, नव-जीवन,
मृत-प्राय हो चले, धमनियों मे!

अनमोल, ओस की उजली डली,
निःस्वार्थ, ही निकली,
लाई, मृत कणों में हरियाली,
क्षणिक, जीवन में,
दीर्घ आस, कण-कण में डाली!

देख उन्हें, ये मेरा मन ललचाया,
खुद को, मैं रोक न पाया,
स्वागत में, आ लिपटी पाँवों में,
हौले से, सहलाया,
वो कोमल मन, मैं भी छू आया!

कोमल वो लम्हे, दो ही पल थे,
विस्तृत, वो दो पल थे,
वो दो ही लम्हे, अर्थ भरे थे,
मिला, लघु जीवन,
जाते हर क्षण, जीवन्त बड़े थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 23 October 2018

मरुवृक्ष

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

दहकते रहे कण-कण,
पाया ना, छाँव कहीं इक क्षण,
धूल ही धूल प्रतिक्षण,
चक्रवात में, मरुवृक्ष सा रहा....

अचल सदा, अटल सदा....

रह-रह बहते बवंडर,
वक्त बेवक्त, कुछ ढ़हता अंदर,
ढ़हते रेत सा समुन्दर,
सूनी रात में, मरुवृक्ष सा जगा....

अचल सदा, अटल सदा.....

वक्त के बज्र-आघात,
धूल धुसरित, होते ये जज़्बात,
पिघलते मोम से वात,
रेगिस्तान में, मरुवृक्ष सा पला....

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

Sunday 29 July 2018

भूलोगे कैसे

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

वो सूनी राहें, वो बलखाते से पल,
बहते से लम्हे, ये हवाएं चंचल,
वो टूटे पत्ते, वो बिखरा सा आँचल,
यूं मुझमें खो जाओगे तुम,
बहते लम्हों संग, उड़ आओगे तुम,
मौसम के रंग बदलेंगे,
घटा घनघोर जमकर बरसेंगे,
भिगाएंगे, मन विरहाकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

उड़-उड़कर कागा मुंडेरे पे आएंगे,
काँव-काँव कर संदेशे लाएंगे,
अकुलाहट आने की ये दे जाएंगे,
सोचोगे, राह तकोगे तुम,
सूनी राहों के पदचाप गिनोगे तुम,
कागा फिर फिर आएंगे,
मुंडेर चढ़ गाएंगे, चिढाएंगे,
तरसाएंगे, मन आकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

कुहू-कुहू कोयल झुरमुट में गाएगी,
छुप-छुप विरहा ये सुनाएंगी,
यादें मेरी लेकर वो भी आएंगी,
मन ही मन, गाओगे तुम,
कुछ गीत मेरे, यूं दोहराओगे तुम,
सूने नैने छलक आएंगे,
कोयल, रुक-रुककर गाएंगे,
जलाएंगे, मन व्याकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

Saturday 27 August 2016

दर्पण

वो मेरा दर्पण था मुझको प्यारा,
दिखलाता था मुझको मुझ सा, पूर्ण, परिपक्व, शौम्य,
पल-पल निहारता था खुद को मैं उसमें,
जब मुस्काता था दर्पण भी मुझको देखकर,
थोड़ा कर लेता था खुद पर अभिमान मैं।

प्रतिबिम्ब उसकी थी मुझको प्यारी,
संपूर्ण व्यक्तितव उभर आता था उस दर्पण में,
आत्मावलोचन करवाता था वो मुझको,
दुर्गुण सारे गिन-गिन कर दिखलाता था मुझको,
थोड़ा सा कर लेता था सुधार खुद में मैं।

अब टूटा है वो दर्पण हाथों से,
टुकड़े हजार दर्पण के बिखरे हैं बस काँटों से,
छवि देखता हूँ अब भी मैं उस दर्पण में,
व्यक्तित्व के टुकड़े दिखते हैं हजार टुकड़ों में,
पूर्णता अपनी ढ़ूंढ़ता हूँ बिखरे टुकड़ों में।

जुड़ पाया है कब टूटा सा दर्पण,
बिलखता है अब उस टूटे दर्पण का कण-कण,
आहत है उसे देखकर मेरा भी मन,
शौम्य रूप, शालीनता क्या अब मैं फिर देख पाऊँगा?
अपूर्ण बिम्ब अब देखता हूँ दर्पण की कण में।

Tuesday 5 July 2016

कुछ बोल दे बादल

ओ चिर काल से नभ पर विचरते बादल,
इस वसुधा की कण-कण को भिगोते बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

क्षार सा खारा जल तू पीता,
जिह्वा से तेरी बहता बस मीठा सा जल,
बूंदों में तेरी रचती गंगा-जमुना जल,
तू कितना प्यारा कितना अनमोल बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

गम की बोझ से है भरा पड़ा तू,
तम की घोर कालिमा मे ही लिपटा तू,
हर पल टूटा, हर पल बिखरा है तू,
तेरी धीरज से ना कोई अंजान बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

तम रचता मानव तन के अन्दर भी,
गम के काटें चुभते इस मानव तन को भी,
तेरा मीठा जल पीता क्षुधा मिटाने को भी,
मुख से लेकिन छूटते कड़वे ही बोल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

ओ राग अनुराग में लिप्त घुमरते बादल,
ओ मेरे हृदयाकाश पर उड़ते उन्मुक्त बादल,
बोल दे, तू भी कुछ तो दे बोल बादल!

Tuesday 26 April 2016

ऐ मन तू सपने ही देख

ऐ मन, तू बस सपने ही देखता रह निरंतर.......,

तेरी भ्रम की दुनियाँ ही है अच्छी,
तू नहीं जानता सत्य मे है कितनी पीड़ा,
सत्य से अंजान तेरी अपनी ही है इक दुनिया,
जहाँ दु:ख का बोध सर्वथा नही,
दुःख हो भी तो, हो बस सपनों जैसे ही क्षणभंगूर।

ऐ मन, तू बस सपने ही देखता रह निरंतर......

सपनों मे तेरे क्या-क्या दिख जाता है,
बेगानों मे भी कोई अपना सा लग जाता है,
कष्ट-विषाद के कण हो जाते हैे धुमिल,
ऐ मन, इन क्षणिक एहसासों को बांधे रख तू खुद में,
ताकि मै भी कर पाऊँ सुख बोध कुछ इनके पल भर।

ऐ मन, तू बस सपने ही देखता रह निरंतर........

काश, कभी टूटते ना मन के ये सपने,
इन्सानों के मन मे हरपल फूटते नए इक सपने,
गम के इन अंकुरों से होते सदा हम अंजाने,
विछोह विषाद के ये पल जीवन से होते बेगाने,
हर दिल में बहते वसुधैव कुटुम्बकम के ही बस झरने।

ऐ मन, तू बस सपने ही देखता रह निरंतर........

Sunday 17 April 2016

मिथ्या अहंकार

बिखरे पड़े हैं कण शिलाओं के उधर एकान्त में,
कभी रहते थे शीष पर जो इन शिलाओं के
वक्त की छेनी चली कुछ ऐसी उन पर,
टूट टूटकर बिखरे हैं ये, एकान्त में अब भूमि पर ।

टूट जाती हैं ये कठोर शिलाएँ भी घिस-घिसकर,
हवाओं के मंद झौकों में पिस-पिसकर,
पिघल जाती हैं ये चट्टान भी रच-रचकर,
बहती पानी के संग, नर्म आगोश मे रिस-रिसकर।

शिलाओं के ये कण, इनकी अहंकार के हैं टुकड़े,
वक्त की कदमों में अब आकर ये हैं बिखरे,
वक्त सदा ही किसी का, एक सा कब तक रहता,
सहृदय विनम्र भाव ने ही, दिल वक्त का भी है जीता।

ये अहम भाव तो, मिथ्या भ्रम होते हैं मन के,
टूट जातेे हैं अहंकार यहाँ हम इन्सानों के,
मृदुलता मन की, सर्वदा ही भारी अहम पर,
कोमलता हृदय की, राज करती सर्वदा इस जग पर।

Sunday 27 March 2016

अनहद नाद से अंजान जीवन

उलझी जटाओं में जकड़ा गंगा सा मन,
शिवत्व को तज गंगोत्री की भ्रमन कर रहा तन,
अनंत लक्ष्य की तलाश में परेशान जीवन,
सुखद वर्तमान की अनहद नाद से अंजान जीवन।

बूंद-बूंद उल्लासित टूटकर जीवन में,
स्वाति कण नभ से बिखरे जीवन के प्रांगण में,
कण-कण जीवन के समर्पित इस क्षण में,
सुरमई रंग विहँसते कलियों के अधखुले संपुट में।

नाद वही अनहद बजा पहले जो धरा पर,
अनहद नाद कहाँ बन पाते बाकि के सारे स्वर,
कस्तूरी नाभि लिए फिरता मानव यहाँ पर,
चक्रव्युह में उलझा जीवन मृगतृष्णा की दंश झेलकर।

अंतःकरण प्रखर हो लक्ष्य यही जीवन का,
क्षुधा, पिपासा, मृगतृष्णा का अन्त लक्ष्य जीवन का,
हरपल अनहद नाह की गूंज चाह श्रवण का,
हृदय के तार-तार टूटकर भी गाएँ मधुर गीत जीवन का ।

Saturday 26 March 2016

तुम दीप जलाने ना आई

तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया!
हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया!

प्रज्जवलित सदियों से एक दीप ह्रदय में,
जलता बुझ-बुझ कर साँसों की लौ मेंं,
नीर हृदय के लेकर जल उठता धू-धू कर मन में,
सूखे हैं अब वो नीर बुझ रहा दीप इस हिय में ।

तूम आ जाते जल उठता असंख्य दीप जीवन में,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।

निर्झर नीर जज्बातों का बह रहा चिर निरंतर,
रुकता है ये कब अरकंचन के पत्तों पर,
अधूरी प्यास हृदय की प्यासी सागर के इस तट पर,
आकुल प्राणों के कण-कण किसकी आहट पर।

तुम आ जाते जल उठता दीप हृदय के इस तट पर,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।

हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया।

Wednesday 23 March 2016

वो कौन

वो कौन जो पुकार रहा क्षितिज की ओर इशारों से।

पलक्षिण नृत्य कर रहा आज जीवन के ,
बौराई हैं सासें मंजरित पल्लव की खुशबु से,
थिरक रहीं हैं हर धड़कन चितवन के,
वो कौन जो भर लाया है मधुरस आज उपवन सेे।

जीर्णकण उल्लासित चहुंदिस उपवन के,
जैसे घूँट मदिरा के पी आया हो मदिरालय से,
झंकृत हो उठे है तार-तार इस मधुबन के,
वो कौन जो बिखेर रहा उल्लास मन के आंगन में।

मधुकण अल्प सी पी गया मैं भी जीवन के,
बज उठे नवीन सुरताल प्राणों के अंतःकरण से,
गीत नए स्वर के छेर रहे तार मन वीणा के,
वो कौन जो पुकार रहा क्षितिज की ओर इशारों से।

Monday 14 March 2016

एहसास गुमनाम गुम हुए

कुछ कण......!
क्षितिज पर अव्यवस्थित...!
क्या ताज्जुब हो,
गर वो रौशनी में गुम हुए.........!
वो रात सपनों का आना, भोर में उनका खो जाना,
बस कुछ रात्रि स्वप्न सुर रह गए,
जो प्रात दिवा में गुम हुए.........!

कुछ शब्द......!
एहसासों पर अव्यवस्थित...!
न कोई दहशत,
न खुद के खोने का डर........!
कुछ बुझें संवाद, कुछ अनकहे संबोधन,
कोई ग्रन्थ कोई संग्रह नहीं,
क्या हुआ गर गुम हुए.........!

कुछ चाहत......!
कभी चित्कार,कहकहे,क्रंदन,
सब यहीं कहीं हवा में घुल कर,
सांसों में गुम हुए........!
ओस के चंद कतरें ...
मिल बूंद बने, फिर गुम हुए़़......!
खुद जलकर ....
रोशनी को जलाने का अहसास,
बूझकर आँधी में,
धधककर जलने की शिद्दत में,
दिलों मे सुलगते अरमाँ गुम हुए.......!

कुछ क्षण.......!
आओं कोई मुठ्ठियों में भीजों मुझे,
कण कण समेट,
बूँद सदृश बंनाओ मुझे,
मै हूँ भी या नहीं,
मेरे होने का अहसास कराओं मुझे,
ढीली पड़ी जो मुठ्ठियाँ,
फिर ना कहना जो हम गुम हुए......!

आते जाते सड़कों की भीड़ में, हम गुमनाम गुम हुए...!

Tuesday 16 February 2016

बसंत ने ली अंगड़ाई

अंजुरी भर भर अाम रसीली मंजराई,
वसुधा के कणकण पर छाई तरुनाई,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

रूप अतिरंजित कली कली मुस्काई,
प्रस्फुटित कलियों के सम्पुट मदमाई,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

कूक कोयल की संगीत नई भर लाई,
मंत्रमुग्ध होकर भौंरे भन-भन बौराए,
स्वागत है बसंत ने ली फिर अंगड़ाई।

Monday 15 February 2016

स्वर्ण सम बालूकण

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।

स्वर्णकण सी चमक रही, बालूकण मरुस्थल के,
कड़कती तेज प्रखर धूप ज्वाला में जल जल के।
हे मानव, जीवनमरु में बालू सम निखरो जल के।

अकित हुई मरुस्थल स्वर्ण सी बालू की आभा में,
शोभित हो कर बिखर रहे स्वर्णकण चहु दिशा में,
हे मानव, स्वर्णकण सी बिखरो जीवन की राहों में।

उठी वेग से आंधी, धूलकण बिखरी स्वर्णकण बन,
बरस रही फेनिल स्वर्ण सी, उड़उड़ कर बालूकण।
हे मानव, तुम उड़ो मरूजीवन के स्वर्णकणों सम।

हे मानव, इस जीवन मरु मे स्वर्णकण सम निखरो तुम।

Tuesday 26 January 2016

तेरा अस्तित्व

इक जर्रा मात्र भी नही तू सृष्टि के विस्तार का,
अस्तित्व तेरा! व्योम के धूल कण सा भी नहीं!
इक लघुक्षण भी तो नही तू इस अनंतकाल का,
फिर क्यूँ भला इतना अभिमान तुझमें पल रहा।

अपनी लघुता का सत्य, तू स्वीकार कर यहाँ,
अस्तित्व की रक्षा को, तू संघर्ष कर रहा यहाँ,
पराशक्ति तो बस एक जो राज हमपे कर रहा,
फिर क्युँ भला तू नाज इतना खुद पे कर रहा।

उस दिव्य अनन्त की प्रखर से तो है तू खिला,
उस व्योम की ही किसी शक्ति ने तुझको जना,
इस धरा को उस शक्ति ने तेरी कर्मस्थली चुना,
फिर क्यूँ भला उस कर्मपथ से तू विमुख रहा।

Monday 28 December 2015

फिर दैदिप्य हुआ पूर्वांचल

फिर दैदिप्य हुआ पूर्वांचल,
प्रखर भास्कर ने पट हैं खोले,
लहराया गगण ने फिर आँचल,
दृष्टि मानस पटल तू खोल,
सृष्टि तू भी संग इसके होले।

कणक शिखर भी निखर रहे है,
हिमगिरि के स्वर प्रखर हुए हैं,
कलियों ने खोले हैं घूंघट,
भँवरे निकसे मादक सुरों संग,
छटा धरा का हुआ मनमोहक।

प्रखरता मे इसकी शीतलता,
रोम-रोम मे भर देती मादकता,
विहंगम दृष्टि फिर रवि ने फैलाया,
प्रकृति के कण-कण ने छेड़े गीत,
तज अहम् संग इनके तू भी तो रीत। 

Saturday 26 December 2015

शाकाहारी मांसाहारी

एक शाकाहारी नें गर्व से कहा, 
साग सब्जी भून रहा हूँ मैं खाने को,
जीवन नहीं लेता मैं किसी कि
अपनी क्षुधा, भूख, तृष्णा मिटाने को।

मैने कहा यह तो है सापेक्षिक समझ,
कण-कण में रजते बसते हैं प्राण,
कोशिकाओं ऊतकों से बनते ये भी,
तुम भी लेते हो प्राण उस कण की।

उन कोशिकाओं मे भी होती है जान,
श्वाँस लेते ये भी इन्हे भी होती है पीड़ा,
दर्द हो सके तो तू इसकी भी पहचान,
स्वार्थ में रजकर क्यों रचता है तू भी स्वांग।

कण कण मे बसे हैं सूक्ष्म प्राण
प्रसव पीड़ा तू इनकी भी पहचान।
हो चुका था वो बिल्कुल निरुत्तर ,
विवश हो उठे थे उसके प्राण ।

शाकाहारी मांसाहारी तो है विभिन्र रुचि बस,
नही झलकते इनसे अलग विचार,
भाव अगर हो सूक्ष्म जीवन की रक्षा,
करो तुम कर्म महान हो जग का कल्याण ।

Friday 25 December 2015

क्षण-क्षण मधु-स्मृतियाँ

धुँधली रेखायें, खोई मधु-स्मृतियों के क्षण की,
चमक उठें हैं फिर, विस्मृतियों के काले घन में,

घनघोर झंझावात सी उठती विस्मृतियों की,
प्रलय उन्माद लिए, उर मानस कम्पन में,

जाग उठी नींद असंख्य सोए क्षणों की,
हृदय प्राण डूब रहे, अब धीमी स्पन्दन में,

गहरी शिशिर-निशा में गूंजा जीवन का संगीत,
जीवन प्रात् चाहे फिर, अन्तहीन लय कण-कण में,

जीवन पार मृत्यु रेखा निश्चित और अटल सी,
प्राण अधीर प्रतिपल चाहे मधुर विस्मृति प्रांगण मे,

बीते क्षणों के स्पंदन में जीवन-मरण परस्पर साम्य,
मिले जीवन सौन्दर्य, मर्त्य दर्शन, प्रतिपल हर क्षण में,

धुँधली रेखाओं की उन खोई मधु-स्मृतियों संग,
कर सकूं मृत्यु के प्रति, प्राणों का आभार क्षण-क्षण में!

Thursday 24 December 2015

ओस के बूंदों की प्रीत

आखिर प्रीत जो ठहरी ...बूंदों से!!
इन ओस की
अल्प बूंदों से भी,
बुझ सकती है मेरी प्यास,
जरा ठहरो तो सही।

पर वो तो ओस हैं,
वो भी एक बूंद,
क्षणिक हैं इनका जीवन,
क्या बुझा पाएगी ये प्यास?
सम्पूर्ण धरा है इसकी प्यासी।

ओस की अल्प बूँद,
तुम्हारा लक्ष्य महान,
अपना हश्र जानते हुए भी
बिछ जाती हो हर रात
धरा के 
कण-कण पर,
इसकी प्यास बुझाने,
आखिर प्रीत जो ठहरी ...!!