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Sunday 18 April 2021

मायूस ख्याल

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

उन पर, आ ही जाता है, रहम,
सो, चलाता हूँ कलम,
कागजों पर, 
टूट जाते है, सारे ही भरम,
बिखर जाते हैं,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

न जाने क्यूँ, कुछ बोलते नहीं!
क्यूँ लब, खोलते नहीं,
सिलते हैं ये,
बुनते हैं, सारे ही बवाल,
सिमट जाते है,
सवाल!

मायूस से, कुछ ख्याल!

क्या करे, बेजान से ये कागज!
नादान से, ये कागज,
ये कहे कैसे,
अधलिखे, हैं जो ख्याल,
मुकर जाते हैं, 
सवाल!

लबों पे, ठहर जाते हैं, कुछ सवाल,
मायूस से, कुछ ख्याल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 10 August 2016

उभरते जख्म

शब्दों के सैलाब उमरते हैं अब कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते है ये शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....

अंजान राहों पे शब्दों ने बिखेरे थे ख्वाबों को,
हसरतों को पिरोया था इस मन ने शब्दों की सिलवटों से,
एहसास सिल चुके थे शब्दों की बुनावट से,
शब्दों को तब सहलाया था हमने कलम की नोक से।

ठोकर कहीं तभी लगी इक पत्थर की नोक से,
करवटें बदल ली उस एहसास ने शब्दो की चिलमनों से,
जज्बात बिखर चुके थे शब्दों की बुनावट से,
कुचले गए तब मायने शब्दों के इस कलम की नोक से।

अंजान राहों पर भटक चले थे कलम की नींव ये,
शब्दो को बेरहमी से तब कुचला था कलम की नींव ने,
मायने शब्दों के बदल चुके बस एक ठोकर से,
जज्बात नहीं सैलाब उमरते है अब कलम की नोक से।

शब्दों के सैलाब उमरते गए कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते रहे शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....