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Wednesday 21 July 2021

चली रे

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

खुद भटके, भटकाए, कौन दिशा ले जाए,
बहा उस ओर, कहाँ ले जाए,
जाने, कौन गली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

बिछड़े गाँव सभी, बह गए बंधे नाव सभी,
तिनके-तिनके, बिखरे मन के,
खाली, हर डाली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

नई सी हर बात, करे है मन के पात-पात,
नव-स्वप्न तले, ढ़ल जाए रात,
इक साँस, ढ़ली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

पीछे छूट चले, कितनी बातें, कितने बंध,
निशिगधा के, वो महकाते गंध,
खोई, बंद कली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

वो डगर, वो ही घर, चल, वापस ले चल,
या, ले आ, वो सारे बिछड़े पल,
वही, नेह गली रे!

चली रे, ये पुरवा, कहाँ ले चली रे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 2 June 2020

गौण

वो, जो गौण था!
जरा, मौन था!
वो, तुम न थे, तो वो, कौन था?

मंद सी, बही थी वात,
थिरक उठे थे, पात-पात,
मुस्कुरा रही, थी कली,
सज उठी, थी गली,
उन आहटों में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था

सिमट, रही थी दिशा,
मुखर, हो उठी थी निशा,
जग रही थी, कल्पना,
बना एक, अल्पना,
उस अल्पना में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था

वो ख्वाब का, सफर,
उनींदी राहों पे, बे-खबर,
वो जागती, बेचैनियाँ,
शमां, धुआँ-धुआँ,
उस रहस्य में, कुछ न कुछ, गौण था!
वो, तुम न थे, तो वो कौन था

वो, जो गौण था!
जरा, मौन था!
वो, तुम न थे, तो वो, कौन था?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 11 February 2020

रुग्ध मन

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

बहकी घटा,
हलकी सी छुवन,
गुम ये मन!

खिलती कली,
हिलती डाल-डाल,
क्षुब्ध ये मन!

 सुरीली धुन, 
फिर वो रूनझुन, 
डूबोए मन!

बहते नैन,
पल भर ना चैन, 
करे बेचैन!

गाती कोयल,
भाए न इक पल, 
करे बेकल!

 वही आहट,
वो ही मुस्कुराहट,
भूले न मन!

खुद से बातें, 
खुद को समझाते,
रहे ये मन!

अंधेरी रातें,
फिर वो सौगातें,
ढ़ोए ये मन!

ना कोई कहीं, 
कहें किस से हम,
रोए ये मन!

दुग्ध रौशन,
मुग्ध मंद पवन,
रुग्ध ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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हाइकु - कविता की एक ऐसी विधा, जिसकी उत्पत्ति जापान में हुई और जिसके बारे में आदरणीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी ने कहा कि "एइ कवितागुलेर मध्ये जे केवल वाक्-संयम ता नय, एर मध्ये भावेर संयम।" अर्थात, यह सिर्फ शब्द संयोजन नहीं, इसके मध्य एक भाव संयोजन है।

Saturday 11 January 2020

चोट

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

हुए बेजार, टूटे तार-तार!
टीस सी उठी, असह्य सी चोट लगी,
सर्द कोई, इक तीर सी चली,
मन ही, चीर चली,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

बार-बार, फिर वो बयार!
हिल उठी, जमीं, नींव ही ढ़ह चुकी,
खड़ी थी, वो वृक्ष भी गिरी,
बिखरे थे, पात-पात,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

टोके ना कोई, यूँ बेकार!
अपना ले, यूँ सपने तोड़े न हजार,
चोट यही, मन की न भली,
सूखी है, हर कली,
गुजरे, वो जिधर हो के...

शतदल हजार छू के, टोक गए झौंके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 30 July 2019

वो है अलबेला

वो है अलबेला,
वो ना भूला होगा!
फिर आएगा वो मौसम, फिर वो ही झूला होगा!

फिर से, घिर आई है ये बदली,
वो खिल आई है, फिर जूही की कली,
इन हवाओं नें, फिर हौले से छुआ,
वो ही, कुछ कह रहा होगा!
वो है अलबेला,
वो ना भूला होगा!

फिर आएगा वो मौसम, फिर वो ही झूला होगा!

सर्द सा, हो चला है ये मौसम,
बिखर सी गई हैं, हर तरफ ये शबनम,
वो भींग कर, हँस रही हैं कलियाँ,
देख, वो ही हँस रहा होगा!
वो है अलबेला,
वो न भूला होगा!

फिर आएगा वो मौसम, फिर वो ही झूला होगा!

कोई गीत, गा रही है ये पवन,
या उसी के, धुन की है ये नई सरगम,
थिरक उठा, है फिर ये सारा जहाँ,
वो ही, फिर गा रहा होगा!
वो है अलबेला,
वो न भूला होगा!

फिर आएगा वो मौसम, फिर वो ही झूला होगा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 10 May 2018

ओ बाबुल

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

कोई नन्ही कली सी, मैं तो थी खिली,
तेरे ही आंगन तो मैं थी पली,
चहकती थी मै, तेरा स्नेह पाकर,
फुदकती थी मैं, तेरे ही गोद आकर,
वही ऐतबार, तु मेरा देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

स्नेहिल स्पर्श, तुने ही दिया था मुझे,
प्रथम पग तूने ही सिखाया मुझे,
अक्षर प्रथम तुझसे ही मैं थी पढी,
शीतल बयार सी मै तेरे ही आंगन बही,
स्नेह का फुहार, वही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

बरखा बहार मैं, थी मेघा मल्हार मैं,
हर बार पाई तेरा दुलार मैं,
अब जाऊंगी कहाँ उस पार मैं,
न अलविदा तेरे मन से है होना मुझे,
विदाई का उपहार, यही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

मैं हूं विश्रंभी, तू मेरा ऐतबार रखना,
विश्वास का मेरे है तू ही गहना,
भूलूंगी ना मैं, तुझे अन्तिम घड़ी तक,
मिलने को आऊंगी, मैं तेरी देहरी तक,
मोह का संसार, यही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

Tuesday 23 May 2017

यादों के परदेश से

जब शाम ढली, इक नर्म सी हवा चली,
अभिलाषा की इक नन्ही कली फिर से मन मे खिली,
जाने कैसे मन यादों में बहक गया,
सिसकी भरते अन्तर्मन का अंतर्घट तक रीत गया,
तेरी यादों का ये मौसम, तन्हा ही बीत गया....

तब जेठ हुई, इक गर्म सी हवा चली,
झुलसी मन के भीतर ही अभिलाषा की वो नन्ही कली,
जाने कैसे ये प्यासा तन दहक गया,
पर उनकी सांसो की आहट से ये सूनापन महक गया,
यादों का ये मौसम, शरद चांदनी सा चहक गया....

आस जगी, जब बर्फ सी जमी मिली,
फिर धड़कन में मुस्काई अभिलाषा की वो नन्ही कली,
जाने कैसे ये सुप्तहृदय प्रखर हुआ,
विकल प्राण विहग के गीतों से अम्बर तक गूंज गया,
यादों के परदेश से लौटा, मन का जो मीत गया....

Monday 2 May 2016

सपने

कुछ सपने देखे ऐसे, सच जो ना हो सके,
आँखो में ही रहे पलते, बस अपने ना हो सके,

सपना देखा था इक छोटा सा,
मुस्कुराऊँगा जीवन भर औरों की मुस्कान बनकर,
फूलों को मुरझाने ना दूंगा,
इन किसलय और कलियों में रंग भर दूंगा,
पर जानता ही नहीं था कि आते हैं पतझड़ भी,
उजड़ चाते हैं कभी बाग भी खिल जाने से पहले,
हम सपने ही रहे देखते, इस सच को कब जान सके।

मेरी आँखो में ही रहे पलते, बस अपने ये ना हो सके।

सपना इक देखता था बचपन से,
जिन गलियों मे बीता बचपन उनकी तस्वीर बदल दूँगा,
निराशा हर चेहरे की हर लूंगा,
खुशहाली के बादल से जीवन रस टपकेगा,
पर जानता नही था कि मैं खुद ना वहाँ रहूंगा,
प्रगति के पथ पर, जीवन के आदर्श ही बदल लूंगा,
हम आदर्शों को रहे रोते, और खुद के ही ना हो सके।

इन आँखो में ऐसे ही सपने, बस अपने ये ना हो सके,
कुछ सपने देखे थे ऐसे, सच जो ना हो सके......!

Sunday 10 April 2016

रात

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात के साए,
खामोश गुजरते रहे,
लगी रही बस एक चुप सी,
सन्नाटे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात टूटी सी,
रात रोती रही रात भर,
काली कफन में लिपटी सी,
झिंगुर मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात गुमसुम सी,
कुछ कह गई थी कानों में,
सुन न पाए सपन में डूबे हम,
तारे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात खोई-खोई सी,
जाने किन उलझनों में फसी सी,
बरसती रही ओस बन के गुलाब पर,
कलियाँ मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात विरहन सी,
मिल न पाई कभी भोर से,
रही दूर ही उजालों के किरण से,
दीपक मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!