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Monday 13 December 2021

बिखरे हर्फ

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, संवेदनाओं में पिरोए शब्द,
नयन के, बहते नीर में भिगोए ताम्र-पत्र,
उलझे, गेसुओं से बिखरे हर्फ,
बयां करते हैं, दर्द!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, गहराती सी, हल्की स्पंदन,
अन्तर्मन तक बींधती, शब्दों की छुवन,
कविताओं से, उठता कराह,
ये, कवि की, आह!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

वो, नृत्य करते, खनकते क्षण,
समेटे हुए हों बांध कर, पंक्तियों में चंद,
बदलकर वेदना भी रूप कोई,
कह रही अब, वाह!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

मानता हूं, रवि से आगे कवि,
हमेशा, कल्पनाओं से आगे, भागे कवि,
खुद भी जागे, सबकी जगाए,
सोई पड़ी, संवेदनाएं!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

बेवाक, ख्यालों का विचरना,
खगों का, मुक्ताकाश पे बेखौफ उड़ना,
शीष पर, पर्वतों के डोलना,
कवि की, ये साधना!

महज, कवि की कल्पना तो नहीं वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा  
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 19 January 2020

कवि-मन

श्रृंगार नही यह, किसी यौवन का,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!
पीड़-प्रसव है, उमरते मनोभावों का,
तड़पता, होगा कवि!
जब भाव वही, लिखता होगा!

हर युग में, कवि-मन, भींगा होगा,
करे चीर हरन, दुस्साशन,
युगबाला का हो, सम्मान हनन,
सीता हर ले जाए, वो कपटी रावण,
विलखता, होगा कवि!
जब पीड़ कोई, लिखता होगा!

खुद, रूप निखरते होंगे शब्दों के,
शब्द, न वो गिनता होगा, 
खिलता होगा, सरसों सा मन,
बरसों पहर, जब, बंजर रीता होगा,
विहँसता, होगा कवि!
जब प्रीत वही, लिखता होगा!

क्या, मोल लगाएँ, कवि मन का,
देखो उसकी, निश्छलता,
अनमोल हैं उनका, हर लेखन,
लिख-लिख कर, सुख पाता होगा,
रचयिता, होगा कवि!
निःस्वार्थ वही, लिखता होगा!

किसी यौवन का, ये श्रृंगार नहीं,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 3 March 2018

व्याप्त सूनापन

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

छवि उस तारे की रमती है मेरे मन!
वो जा बैठा कहीं दूर गगन,
नभ विशाल है कहीं उसका भवन!
उस बिन सूना मेरा ये आँगन?
छटा विहीन सा है लगता, अब क्यूं ये गगन?
क्यूं वो तारे, आते नहीं अब इस आँगन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये अंधियारापन?
क्या पर्याप्त नहीं, छोटा सा मेरा ये आँगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

कवि मन रमता इक वो ही आरोहण!
क्या भूला वो मेरा ही गायन?
जर्जर सी ये वीणा मेरे ही आंगन!
असाध्य हुआ अब ये क्रंदन,
सुरविहीन मेरी जर्जर वीणा का ये गायन!
संगीत बिना है कैसा यह जीवन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये बेसूरापन?
क्या पर्याप्त नहीं, मेरे रियाज की ये लगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

Tuesday 27 February 2018

उभरते क्षितिज

शब्दों से भरमाया, शब्दों से इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

शब्द कई, शब्दों के प्रारूप कई,
हर शब्द, इक नया स्वरूप ले आया,
कुछ शब्द शीर्षक बन इतराए,
कुछ क्षितिज की ललाट पर चढ़ भाए,
क्षितिज विराट हो इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

चुप सा क्षितिज, चहका शब्दों से,
कूक उठा कोयल सा, मधुर तान में गाया,
नाचा मयूर सा, लहराकर शर्माया,
कितनी ही कविताएँ, क्षितिज लिख आया,
क्षितिज मंत्रनाद कर गाया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

सुनसान क्षितिज, गूंजा शब्दों से,
पूर्ण शब्दकोष, क्षितिज पर सिमट आया,
गद्य, पद्य क्षितिज पे आ उतरे,
कवियों का मेला, लगा है अब क्षितिज पे,
क्षितिज महाकाव्य रच आया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...

शब्दों से भरमाया, शब्दों से इतराया,
वो नभ पर, इक नया क्षितिज उभर आया...