Showing posts with label कोख. Show all posts
Showing posts with label कोख. Show all posts

Thursday 11 June 2020

कोख

हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!

हँस उठी, कोख!

तब, कोख ने जना,
एक सत्य, एक सोंच, एक भावना,
एक भविष्य, एक जीवन, एक संभावना,
एक कामना, एक कल्पना,
एक चाह, एक सपना,
और, विरान राहों में,
कोई एक अपना!

हँस उठी, कोख!

वो हँसीं, एक जन्मी,
विहँस पड़ी, संकुचित सी ये दिशाएँ,
जगे बीज, हुए अंकुरित, करोड़ों आशाएँ,
करोड़ों नयन, करोड़ों मन,
धड़के, करोड़ों धड़कन,
जगी, एक सी गुंजन,
एक सा कंपन!

हँस उठी, कोख!

कह उठा, कालपथ,
जग पड़ा भविष्य, थाम ले तू ये रथ,
यही एक वर्तमान, ना ही दूजा कोई सत्य,
एक ही पथ, एक ही राह,
रख न कोई और चाह,
बदल न, तू प्रवाह,
एक है गर्भगाह!

हँस उठी, कोख!
मूर्त हो उठी, अधूरी कोई कल्पना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 20 May 2018

स्वार्थ

शायद, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

तेरी मोहक सी मुस्काहट में,
अपने चाहत की आहट सुनता हूं
तेरी अलसाए पलकों में,
सलोने जीवन के सपने बुनता हूं,
उलझता हूं गेसूओं में तेरे,
बाहों में जब भी तेरे होता हूं,
जी लेता हूं मैं तुझ संग,
यूं सपने जीवन के संजोता हूं,
हाँ तब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

भीगे तेरे आँसू में
दामन भी मेरे,
छलनी मेरा हृदय भी
हुआ दर्द से तेरे,
डोर जीवन की मेरी
है साँसों में तेरे,
मेरी डोलती नैया
है हांथों में तेरे,
यही तो हैं स्वार्थ....
मै वश में जिनके रहता हूं...
फिर, कैसे हुआ मैं निःस्वार्थ...
हाँ इनमें भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी, मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

कोई छोटी सी बात भी मेरी,
न बनती है बिन तेरे,
है तुझ पे ही पूर्णतः निर्भर,
मेरे जीवन के फेरे,
संतति को मेरी...
शरण मिली कोख में ही तेरे,
जीवन की इन राहों पर
इक पग भी
न चल पाया मैं बिन तेरे,
फिर, कहां हुआ मैं निःस्वार्थ,
हाँ अब भी, मैं अपना स्वार्थ ही देखता हूं!

कब पल-भर को भी मैं नि:स्वार्थ जीता हूं!

सब कहते हैं इसको ही प्यार....
पर, इसमें मैं अपने
स्वार्थ का संसार देखता हूं ....
बिल्कुल, मैं तुझमें अपना ही स्वार्थ देखता हूं....

(स्वार्थवश...., पत्नी को सप्रेम समर्पित)

Sunday 6 March 2016

कर्ण सा दुर्भाग्य किसी का न हो!

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस कुन्तीपुत्र कर्ण नें?

कोख मिला कुन्ती का किन्तु, कुन्ती पुत्र न कहलाया,
जिस माता ने जन्म दिया, उसने ही उसको ठुकराया,
कुल रत्न होकर भी,  कुल का यशवर्धन न बन पाया,
आह! विडम्बना ये कैसी,जीवन की कैसी है ये माया।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस दानवीर कर्ण नें?

उपाधि सूर्यपुत्र की पर,सूतपुत्र जीवन भर कहलाया,
कर्मों से बड़ा दानवीर पर, ग्यान का दान न ले पाया,
दान कवच-कुंडल का उससे, इंन्द्र नें कुयुँकर मांगा,
आह! ये कैसी विधाता की लीला, ये कैसी है माया।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस सूर्यपुत्र कर्ण नें?

ग्यान गुरू का पाने को,  कह गया छोटी सी झूठ वो,
सूत पूत्र के बदले खुद को, कह गया ब्राह्मण पूत्र वो,
शापित हुआ गुरू से तब, बना जीवन का कलंक वो,
अन्त समय जो काम न आया,पाया उसने ग्यान वो।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस महाग्यानी कर्ण नें?