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Monday 7 June 2021

वो कौन था

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

शायद दूर था, उसकी आशाओं का घर!
बांध रखी थी, उम्मीदों की गठरियाँ,
और, ये सफर, काँटों भरा....
राहों में, वो ही कहीं, अब गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद, धू-धू, सुलग रही थी, आग इक!
जल चुके थे, सारे सपनों के शहर,
और, धुँआ सा, उठता हुआ.....
उस धुँध में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद था थका, हताश अब भी न था!
वो इक परिंदा, था उम्मीदों से बंधा,
और, नीलाभ, तकता हुआ....
आकाश में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 4 October 2020

चुप सा सत्य


बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

उन ख़ामोशियों में, न जाने कितने थे सवाल!
मतिशून्य सा, मैं कहता भी क्या?
और, कहता भी किसे?
यहाँ सुनने को सत्य, बैठा है कौन?
सोचता, रह गया मैं मौन!
ओढ़ ली इक चुप्पी, और कई सवाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

शायद, वो इक चीख थी, जो कहीं रही दबी!
सिमट कर, शोर के आवरण में!
अन्तः,गहरी सी टीस थी!
पर ये अन्तः करण, तौलता है कौन?
अन्तर्मन, झांकता है कौन?
चुप-चुप ही रहा, खुद से कर सवाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

वो निष्काम सत्य, बेचैन सा, जूझता ही रहा!
समक्ष असत्य के, वो कब झुका!
पर, दुरूह वो काल था!
सत्य पर पड़ा, असत्य का जाल था!
तोड़ता है, वो जाल कौन?
सत्य को रहा, सदा ही इक मलाल!

बीतता रहा, चुप-चुप ही, दीर्घ सा अंतराल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 6 September 2020

"वो कौन" रहे तुम

मौन रहे तुम, हमेशा ही, "वो कौन" रहे तुम!
देखा ना तुमको, जाना ना तुमको!
संभव था, पा लेता, इक अधूरा सा अनुभव!
गर एहसासों में, भर पाता तुमको!

पर, शायद, शंकाओं के बंद घेरों में थे तुम!
या अपने होकर भी, गैरों में थे हम!
कदाचित, सर्वदा सारे अधिकारों से वंचित!
जाने क्यूँ,  रहा फिर भी चिंतित!

कोशिश है, बस यूँ , गढ़ लूँ इक छवि तेरी!
चुन लूँ उधेर-बुन, बुन लूँ यूँ तुमको!
कर लूँ बातें, समझाऊँ क्यूँ होती है बरसातें?
किंचित सूनी सी हैं, क्यूँ मेरी रातें!

छवि में, मौन रहे तुम, "वो कौन" रहे तुम!
कह भी पाती, क्या वो छवि मुझको?
शंकाकुल मन तेरा, दीपक तले जगा अंधेरा,
बुझ-बुझ जलता, विह्वल मन मेरा!

उभरेंगे अक्षर, कभी तो उन दस्तावेजों पर!
पलट कर पन्ने, तुम पढ़ना उनको,
बीते हर किस्से का, उपांतसाक्षी होऊँगा मैं,
जागूंगा तुममें,  फिर ना सोऊंगा मैं!

यूँ भी उपांतसाक्षी हूँ मैं, हर शंकाओं का!
जाने अंजाने, उन दुविधाओं का,
उकेरे हैं जहाँ, एकाकी पलों के अभिलेख,
बिखेरे हैं जहाँ, अनगढ़े से आलेख!

पर मौन रहे तुम, सर्वदा "वो कौन" रहे तुम!
भावहीन रहे तुम, विलीन रहे तुम!
संभव था, ले पाता, वो अधूरा सा अनुभव!
गर सुन पाता, तेरे धड़कन की रव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
...............................................................
उपांतसाक्षी - वह साक्षी या गवाह जिसने किसी दस्तावेज़ के उपांत या हाशिये पर हस्ताक्षर किया हो या अँगूठे का निशान लगाया हो।

Tuesday 23 June 2020

जिज्ञासा

रह जाए जैसे, जिज्ञासा!
रह गए हो तुम, वैसे ही, जरा सा!

नजर में समेटे, दिव्य आभा,
मुखर, नैनों की भाषा,
चुप-चुप, बड़े ही, मौन थे तुम,
न जाने, कौन थे तुम?

हौले-हौले, प्रकंपित थी हवा,
विस्मित, थे क्षण वहाँ,
कुछ पल, वहीं था, वक्त ठहरा,
जाने था, कैसा पहरा!

हैं तेज कितने, वक्त के चरण,
न ओढ़े, कोई आवरण,
पर रुक गए थे, याद बनकर,
जाने, कैसे वक्त उधर!

थे शामिल, तुम्हीं हर बात में,
मुकम्मिल, जज्बात में,
उलझे, सवालों में तुम ही थे,
न जाने, तुम कौन थे!

उठ खड़े थे, प्रश्न अन-गिनत,
थी, सवालों की झड़ी,
हर कोई, हर किसी से पूछता,
न जाने, किसका पता!

गर जानता, तुझको जरा सा,
संजोता, एक आशा,
भटकता न यूँ, निराश होकर,
न जाने, किधर-किधर!

रह जाए जैसे, जिज्ञासा!
रह गए हो तुम, वैसे ही, जरा सा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 9 November 2017

न आना अब

वो कौन है जो दस्तक, देकर गया मेरे दर तक?

शायद अजनबी कोई!
या शख्स पहचाना सा कोई?
बिसारी हुई बातें कोई!
या यादों की इक कहानी कोई!

वो कौन है जो लौटा, दस्तक देकर मेरे घर तक?

बेचैन कर गया कोई!
नींदे मेरी लेकर गया कोई!
इन्तजार दे गया कोई!
सुकून मन का ले गया कोई!

वो कैसी थी दस्तक, न मिलती है दिल को राहत?

ऐसा तो न था कोई!
दुश्मन तो मेरा न था कोई!
वो पागल होगा कोई?
या नशे में बहका होगा कोई?

वो दे गया ऐसी दस्तक, दुविधा में रहा मैं देर तक?

अब बीते हैं दिन कई,
दस्तक फिर दे रहा था कोई!
बाहर न खड़ा था कोई!
चुप, बुत सा मैं अकेला था वहीं!

एकाकीपन की दस्तक, न आना अब मेरे दर तक...

Wednesday 23 March 2016

वो कौन

वो कौन जो पुकार रहा क्षितिज की ओर इशारों से।

पलक्षिण नृत्य कर रहा आज जीवन के ,
बौराई हैं सासें मंजरित पल्लव की खुशबु से,
थिरक रहीं हैं हर धड़कन चितवन के,
वो कौन जो भर लाया है मधुरस आज उपवन सेे।

जीर्णकण उल्लासित चहुंदिस उपवन के,
जैसे घूँट मदिरा के पी आया हो मदिरालय से,
झंकृत हो उठे है तार-तार इस मधुबन के,
वो कौन जो बिखेर रहा उल्लास मन के आंगन में।

मधुकण अल्प सी पी गया मैं भी जीवन के,
बज उठे नवीन सुरताल प्राणों के अंतःकरण से,
गीत नए स्वर के छेर रहे तार मन वीणा के,
वो कौन जो पुकार रहा क्षितिज की ओर इशारों से।

Friday 18 March 2016

कौन हो तुम

कौन हो तुम?
इक सोच हो या बहती समय हो तुम,
या फिजाओं मे घुली हुई इक महक हो तुम,
बादलों का आँचल हो या फैली हुई धुँध हो तुम।

कौन हो तुम?
बहती नदी हो या चंचल सी छवि हो तुम,
घुल रही है वादियों मे जो, क्या वही स्वर हो तुम,
छलकती हुई धार हो या ठहरी हुई नीर हो तुम।

कौन हो तुम?
इस धरा पर कही मिलते नही हैं निशाँ तुम्हारे,
है कहाँ अस्तित्व तुम्हारा? सागर में या आसमान पर,
उस क्षितिज पर या कही और धरती से परे,
अस्तित्व कहीं इस जहाँ में तुम्हारा है भी या नहीं,
या सिर्फ गूँज बनकर आवाज में ढ़लती रही हो तुम।

कौन हो तुम?
ऐसा लगता है कभी महसूस की थी धड़कनें,
कुछ पल के लिए बैठी थी तुम कहीं मेरे सामने,
बहके हुए दिल तब कभी धड़कते भी थे मेरे लिए?

कौन हो तुम?
तुम क्षणिक बूँद, प्यास जिससे बुझती नहीं,
पी भी लूँ जो बूँद लाखों, प्यास अधूरी ज्युँ की त्युँ,
जलधार सी बहती रहो इस मन की आंगन में सदा तुम।

Tuesday 15 March 2016

कौन हो तुम?

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

किसी कलाकार की कल्पनाओं का वजूद हो तुम,
या किसी गीतकार की गजलों भरी रचना का रूप
सायों में जो ढ़लती रही देर तलक तुम हो वही धूप,
चाहतों की सुबह हो या तबस्सुम लिए शाम हो तुम।

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

तुम कल्पना हो किसी शिल्पकार के शिल्पकला की,
इक अद्वितीय संरचना हो शिल्पकला के विधाओं की,
तराशा हुआ संगमरमर हो शिल्पी के कुशल हाथों की,
या धरोहर अनमोल हो तुम शिल्पकृत्य के बाजीगरी की।

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

तुम मोहक तस्वीर हो किसी चित्रकार के खयालों की,
चटक तावीर हो रंगों मे रंगी किसी मोहिनी मनमूरत की,
अनदेखा सा सपना हो तुम चित्रकार के कल्पनाओं की,
या चित्रकारिता बेमिसाल हो तुम कुदरत के कारीगरी की।

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

Sunday 27 December 2015

पूछे जो कोई तुमसे

पूछे जो कोई तुमसे कौन हूँ मैं?
तुम कह देना,

एक बेगाना पागल दीवाना, 
जो अनकही बातें कई कह जाता है..!

एक धुंधला चेहरा,
 जो यादों में बस रह जाता है...!!

एक बेगाना अन्जाना,
जो जीवन दर्शन दे जाता है...!!

एक जाना पहचाना,
जो कभी-कभी बात पते की कह जाता है...!!

यूँ तो उसके होने, या फिर, 
ना होने से,
कुछ फर्क नही पड़ता जीवन पर..!!!

पूछे जो कोई तुमसे, तुम कह देना!!!!
पर क्या अपने दिल से 
तुम यही कह सकोगी??????
शायद नही........!!! कभी नही.......!!!