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Saturday 27 May 2017

कोरी सी कल्पना

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कविताओं में मैने उसको हरपल विस्तार दिया,
मन की भावों से इक रूप साकार किया,
हृदय की तारों से मैने उसको स्वीकार किया,
अभिलाषा इक अपूर्ण सा मैने अंगीकार किया...

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी यूँ ही मुलुर मुलुर तकते मुझको वो दो नैन,
वो प्रखर से शब्द मुझको करते हैं बेचैन,
फिर मूक वधिर बन कभी लूटते मन का चैन,
व्यथा में बीतते ये पल, न कटते ये दिन न ये रैन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

कभी निर्झरणी सी बह गई वो नैनों से अश्रुधार बन,
स्तब्ध मौन रही कभी नील गगन बन,
या रिमझिम बारिश सी भिगो गई तन्हा ये मन,
खलिश है ये कोई, या है ये कई जन्मों का बंधन.....

शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!

Wednesday 10 May 2017

इक खलिश

पलकें अधखुली,
छू गई सूरज की किरण पहली,
अनमने ढंग से फिर नींद खुली।।।
मन के सूने से प्रांगण में दूर तलक न था कोई,
इक तुम्हारी याद! निंदाई पलकें झुकाए,
सामने बैठी मिली...!

मैं करता रहा,
उसे अपनाने की कोशिश,
कभी यादों को भुलाने की कोशिश…
रूठे से ख्वाबों को निगाहों में लाने की कोशिश,
तेरी मूरत बनाने की कोशिश…
फिर एक अधूरी मूरत....!

क्या करूँ?
सोचता हूँ सो जाऊँ,
नींद मे तेरी ख्वाबों को वापस बुलाउँ,
फिर जरा सा खो जाऊँ,
मगर क्या करूँ...
ख्बाब रूठे है न मुझसे आजकल....!

इन्ही ख्यालों में,
इक पीड़ सी उठी है दिल में,
चाह कोई जगी है मन मॆं,
अब तोड़ता हूँ दिल को धीरे धीरे तेरी यादों में,
वो क्या है न, चाहत में...
रफ्ता रफ्ता मरने का मजा ही कुछ और है...!