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Saturday 12 June 2021

जिक्र आपका

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

झील सी, दो नीली आँखें,
झुकी, पर्वतों पर, अलसाई सी पलकें,
कजराए नैनों में, नींदों के पहरे,
कुछ, तुझे कहने से पहले,
जिक्र थोड़ा, 
बादलों का, कर लूँ!

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

अधखुली सी, दो पंखुड़ी,
किसी शाख पर, विहँस कर, हों पड़ी,
यूँ भींग कर, हो रही शबनमी,
कुछ, तुझे कहने से पहले,
जिक्र थोड़ा, 
गुलाबों का, कर लूँ!

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

आभामयी, जैसे चांदनी,
अक्स, ज्यूँ अंधेरों में, प्रदीप्त रौशनी,
जली अनवरत, दीये की नमीं,
कुछ, तुझे कहने से पहले,
जिक्र थोड़ा, 
पूजा का, कर लूँ!

फिर, करूँ जरा, जिक्र आपका!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 29 March 2020

तुम न आए

तुम न आए....
बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!

इस बार, खिल सका न गुलाब!
न आई, कलियों के चटकने की आवाज,
न बजे, कोपलों के थिरकते साज,
न चली, बसंती सी पवन,
कर गए, जाने पतझड़ कब गमन,
वो काँटे भी मुरझाए!

जो तुम न आए!

रह गई, छुपती-छुपाती चाँदनी!
न आई, शीतल सी, वो दुग्ध मंद रौशनी,
छुप चली, कहीं, तारों की बारात, 
चुप-चुप सी, रही ये रात,
सोने चले, फिर वो, निशाचर सारे, 
खोए रातों के साए!

जो तुम न आए!

चुप-चुप सी, ये क्षितिज जागी!
न जागा सवेरा, ना जागा ये मन बैरागी,
न रिसे, उन रंध्रों से कोई किरण,
ना हुए, कंपित कोई क्षण,
कुछ यूँ गुजरे, ये दिवस के चरण,
उन दियों को जलाए!

जो तुम न आए!

खुल न सके, मौसम के हिजाब!
न आई, कोयलों के कुहुकने की आवाज,
न बजे, पंछियों के चहकते साज,
न सजे, बागों में वो झूले,
खोए से सावन, वो बरसना ही भूले,
सब मन को तरसाए!

बदला न ये मौसम, ना मेरे ये साये!
जो तुम न आए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 18 November 2018

सुरभि

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

मुखरित, हुए फिर वो वादे,
वो चटक रंग, वो चेहरे, वो रूप सीधे-सादे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन खुले पन्नों से.....

महक उठे हैं, फिर वो छंद,
बनते-बिगड़ते, नए-पुराने से कई अनुबंध,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन भूले लम्हों से....

मन की लिप्सा, जागी फिर,
अँकुर आए, फिर आँखों में चाह अनगिन,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन गुजरे राहों से....

तंद्रा टूटी, इक बूँद से जैसे,
सूखी नदिया की, प्यास जगी है कुछ ऐसे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन नन्हीं बूंदों से....

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

Wednesday 7 February 2018

कुछ ऐसा ही है जीवन

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ अनाहूत ही आ जाना,
बिन कुछ कहे यूँ ही चल देना,
भीगी पलकों से बस यूँ रो लेना,
यूँ एकटक क्षितिज देखना,
मनमाना बेगाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

बूंदों की भीगी सी लड़ियाँ,
भीगी गुलाब की ये पंखुड़ियाँ,
क्षण-क्षण यूँ खिलती ये कलियाँ,
रंगरूप बदलती ये दुनियाँ,
जाना पहचाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ खिल कर हँसते गुलाब,
यूँ हिल कर भीगते बेहिसाब,
फिर टूट बिखरते इनके ख्वाब,
यूँ ही माटी में मिलना,
पाकर खो जाने सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

Sunday 27 March 2016

प्रेयसी

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही स्वप्निल झील सी नीली आँखें,
मदमाई अलसाई झुकी हुई सी पलकें,
काले-काले इन नैनों में नींद के पहरे,
जिक्र बादलों का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही होठ अधखुले दो पंखुड़ियाँ से,
लरजते, कांपते, शबनम की बूंदों में डूबे,
लालिमा इन पर सूरज की किरणों के,
जिक्र गुलाब का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही चेहरा चांदनी में धुला आभामय,
हसीन नूर सा रेशमी अक्श मुख पर लिए,
अक्श रुहानी जैसे दीप जली मन्दिर में,
जिक्र पूजा का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!