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Wednesday 27 July 2022

खानाबदोश


मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

करता भी क्या, पंख लगे थे पैरों पर,
मुड़ जाता भी कैसे, मजबूरी हर कदमों पर,
रहा देखता, कभी, यूं रुक-रुक कर,
बहते राहों के, उन साहिल पर,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...

अनसुनी, संवेदनाओं की सिसकियां,
अनकहे जज्बातों की, बिसरी सब गलियां,
पुकारती हैं कभी, अनुगूंज बनकर,
रोकते कहीं, टूटे वादों के गूंज,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे...

धीर धरे कैसे, और, आए कैसे होश,
वश के बाहर, बेवश सा इक खानाबदोश,
बना लेता, भंगुर, अरमानों का ठांव,
ढूंढता, उन्हीं हसरतों का छांव,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

मुड़ कर, देख रही अखियां मींचे,
कितने ख्वाब, कितने अरमां, कितनी हसरतें,
छोड़ चला, जिनको पीछे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 18 April 2021

उभरता गजल

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

दैदीप्य सा, इक चेहरा, है वो,
सब, नूर कहते हैं जिसे,
पिघल कर, उतर आए जमीं पर,
चाँद कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

बड़ी ही, सुरीली सी सांझ ये,
सब, गीत कहते हैं जिसे,
जो, नज्म बनकर, गूंजे दिलों में, 
गजल कहते हैं, 
हम उसे!

सांझ के, बादल तले...

चह-चहाहट, या तेरी आहट,
कलरव, समझते हैं उसे,
सुरों की, इक लरजती रागिणी,
संगीत कहते हैं,
हम उसे!

सांझ के, बादल तले,
उभर आए हो, बनकर इक गजल,
देखें किसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 3 December 2020

आवाज

पुकारती ही रहना!
वही आवाज! साज थे, जो कल के मेेेरे,
वहीं, इस शून्य को पाटती है,
तुम्हारी गुनगनाहट!
तुम्हारी गूंज,
नदी के, इस पार तक आती है!

बने दो तीर कब!
इक धार, न जाने किधर बट चले कब!
अनमनस्क, बहते दो किनारे,
कब से बे-सहारे,
वो एक धार,
नदी के, इस पार तक आती है!

निश्छल, धार वो!
मगर, पहले सी, फिर हुई ना उत्श्रृंखल,
बस, किनारा ही, पखारती है,
मझधार कलकल,
एक हलचल,
नदी के, इस पार तक आती है!

कभी फिर गुजरना!
वैसी ही रहना, छल-छल यूँ ही छलकना,
वही, दो किनारों को पाटती है,
तेरे पाँवों की आहट,
आवाज बनकर,
नदी के, इस पार तक आती है!

पुकारती ही रहना!
कुछ भी कहना! ठहरे हैं जो पल ये मेरे,
ठहर कर, तुझे ही ताकती हैं,
शून्य में, बिखरी हुई,
आवाज तेरी,
नदी के, इस पार तक आती है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 5 July 2020

शंकाकुल मन

आकुल करती, हल्की-सी भोर,
व्याकुल कोयल की कूक,
ढ़ुलमुल सी, बहती ठंढी पवन,
और शंकाकुल,
ये मन!

सुबह, जाने क्या-क्या ले आई?
क्यूँ, कोयल थी भरमाई?
क्यूँ पवन, यूँ बहती इठलाई?
प्रश्नों में घिरा,
ये मन!

है वो भोर की किरण, या मन का प्रस्फुटन!
वो गूंज है कोयल की, या अपनी ही धड़कन!
चलती है पवन या तेज है सांसों का घन!
यूँ बादलों को, निहारते ये नयन,
दिन में जागते से, ये सपन,
घबराए क्यूँ ना,
ये मन!

सपना ये कैसा? वो भोर इक हकीकत सा!
वो रव, कूक, वो कलरव, मन के प्रतिरव सा!
ढ़ुलमुल वो पवन, च॔चल सी इस मन सा,
असत्य के अन्तस, इक सत्य सा,
कल्पना कोई, इक मूरत सा,
पर माने ना,
ये मन!

धुन कोई, बुनता वो अपनी ही,
प्रतिरव, सुनता अपनी ही,
भ्रमित करते स्वर, वो आरव,
उस पर गरजाते,
वो घन!

फिर जगती, आकुल होती भोर,
कूकती, व्याकुल सी कूक,
बहती, ढ़ुलमुल सी ठ॔ढ़ी पवन,
और शंकाकुल,
ये मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 14 July 2019

वर्षों हुए दिल को टटोले

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

इक दौड़ था, इन धड़कनों में, जब शोर था,
गूँजती थी, दिल की बातें,
जगाती थी, वो कितनी ही रातें,
अब है गुमसुम सा, वो खुद बेचारा!
है वक्त का, ये खेल सारा,
बेरहम, वक्त के, पाश में जकड़ा,
भाव-शून्य है, बिन भावनाओं में डोले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

देखा तो, लगा चुप सा, वो बहुत आजकल,
जैसे, खुद में ही सिमटा,
था अपनी ही, सायों से लिपटा,
न था साथी कोई, न था कोई सहारा!
तन्हाईयों में वर्षों गुजारा,
फिरता रहा था, वो मारा-मारा,
बिन होंठ खोले, बिना कोई बात बोले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

वो रात थी, गुजरे दिनों की ही, कोई बात थी,
कई प्रश्न, उसने किए थे,
बिन बात के, हम लड़ पड़े थे,
बस कहता रहा, वो है साथी हमारा!
संग तेरे ही, बचपन गुजारा,
था तेरी यौवन का, मैं ही सहारा,
खेल, न जाने कितने, हमने संग खेले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

गिनते थे कभी, जिस दिल की, धड़कनें हम,
अनसुनी थी, वो धड़कनें,
ना ही कोई, आया उसे थामने,
टूटा था, उस दिल का, भरम सारा!
संवेदनाओं से, वो था हारा,
फिर भी, धड़कता रहा वो बेचारा,
बिन राज खोले, बिना कोई लफ्ज़ बोले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 11 May 2019

मशकूक

तन के कंपन, ये हृदय के स्पंदन,
है उनके ही कारण....

हम तो बस, मशकूक हैं,
निशाने, उनकी नजर के अचूक हैं,
उनके ही मकरूक हैं,
उनकी ही, ख्वाब में मशरूफ हैं,
महसूस करता हूँ, मैं अपनी धड़कन,
उनके ही कारण....

हर तरफ, हैं उनके नजारे,
बन कर पवन, छू ले, वो ही पुकारे,
वहाँ, जो वो न होते,
न होते, स्पंदन उन वादियों में, 
धड़कती है ये धड़कनें, गूंज बनकर,
उनके ही कारण.....

नेकियां, सब उसने किए,
यहाँ मशकूक तो, बस हम ही हुए,
पहले थे गुमनाम हम,
चर्चे मेरी नाम के, अब आम हैं,
नजर में उनकी भी, हम बदनाम हैं,
उनके ही कारण....

तन के कंपन, ये हृदय के स्पंदन,
है उनके ही कारण....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा