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Monday 21 March 2016

एक टुकड़ा नीरद

एक टुकड़ा नीरद, मीनकेतु सा छाया मन पर,
चातक मन बावरा उस नीरद का,
उमर घुमर वो नीरद वापस आता इस मन पर,
मनसिज सा बूँद बन बिखरा ये मन पर।

आज कहीं गुम वो मनसिज नीरद,
परछाई खोई कहीं बेचैन सी झील मे उसकी,
हलचल इस जल में आज कितनी,
सूख चुकी है शायद उस नीरद की बूँद भी?

नीरद आशाओं के कल फिर वापस आएंगे,
मन के झील पर ये फिर झिलमिलाएंगे,
तस्वीर नीरद की नई उभरेगी परछाई बन,
मनसिज नीरद की बूँदे फिर बरस जाएंगे मन पर।

Friday 18 December 2015

मन पाए न विश्राम क्यूँ?


मन पाए न विश्राम क्युँ?
चातक बन चाहे उड़ जाऊँ,
खुले गगन की सैर करूँ,
आसमान को बाहों मे भर लाऊं

मन की चाह अति निराली,
गति इसकी लांघे व्योम,
बात कहे वो अजब अनोेखी,
पर विवेक करता इसके विलोम,

मन की बात सुनुं तो,
जग कहता, अपने मन की करता है
दूसरों की तो सुनता ही नही,
बावरा है यूं ही डग भरता रहता है

इन्सानों के मन आपस मे कब मिलते है,
यहां तो मन पे पहरे हैं
मन की निराली बातें रह जाती,
मन मे ही व्यथित, कुचलित,
मन की तो भावनाएं ही जग में
कही जाती "कुत्सित"

मन तू कर विश्राम जरा,
अपनी पीड़ा को दे आराम जरा,
जग की वर्जनाओं का तू रख ख्याल,
तुझे भी तो जीना है इसी कोलाहल में,
पूरी संजीदगी के साथ,

अपनी संवेदनाओं को ना तु और जगा,
मन कर तू विश्राम जरा, विश्राम जरा!