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Friday 21 May 2021

लब खोल दो

बोल दो, अबोले बोल दो!
लब, खोल दो!

आज, चुप है क्यूँ ये चूड़ियाँ,
चुप है, क्यूँ पायल,
चुप, हो तुम,
सूने पल को, दो, बोल दो,
लब खोल दो!

छनन-छन, छनकते वो क्षण,
इठलाते से, वो घन,
बहती पवन,
ये, मौन कितने, बोल दो,
लब खोल दो!

पर्वतों पर, झुक रही वो घटा,
न्यारी सी, वो छटा,
विहँसता घटा,
दो बोल, ऐसे ही बोल दो,
लब खोल दो!

घड़ी भर, चैन पा ले, ये मन,
खनक ले, ये क्षण,
आवाज संग,
ये राज, है क्या, बोल दो,
लब खोल दो!

बोल दो, अबोले बोल दो!
लब, खोल दो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 7 March 2021

चुप न रह पाओगे

मेरी ख़ामोशियों को,
जब भी, तन्हाईयों में गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

रोक ही लेगी तेरी राहें, मेरी सर्द आहें, 
कदम, डगमगाएंगे,
थमीं पलकें, भिगो ही जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

यूँ तो, मन के हारे, तुम हो संग हमारे,
नहीं हम, बेसहारे,
इक छवि में, ढ़ल कर गाओगे,
चुप न रह पाओगे!

गगण के पार हो, या हो गगण से परे,
सर्वदा ही, हो मेरे,
मल्हार बन कर, बरस जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खुद में झाँकना, यूँ खुद को आँकना,
खुदा को, माँगना,
सारी खुदाई, यूँ भूल जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

रह-रह बज उठेंगी, हाथों की चूड़ियाँ,
तोड़ कर, बेरियाँ,
खाली पाँव, दौड़ कर आओगे,
चुप न रह पाओगे!

गुजरते वक्त की, हर शै पर मैं लिखूँ,
चुप रहूँ, खुद बुनूँ,
जब पढ़़ोगे, तुम जान जाओगे,
चुप न रह पाओगे!

खनक ही उठेंगे, जीर्ण वीणा के तार,
कर उठोगे, श्रृंगार,
ये हृदय, कैसे संभाल पाओगे,
चुप न रह पाओगे!

मेरी ख़ामोशियों को,
तन्हाईयों में, जब भी गुनगुनाओगे!
चुप न रह पाओगे!

Wednesday 4 September 2019

कहीं न कहीं

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
जिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

कोई कल्पना, पूरा न था उनका मेरे बिन!
सारे सपने, अधूरे थे उनके मेरे बिन!
मेरी यादों से, उसने रंगे थे जीवन के पन्ने,
श्रृंगार उसने किए थे, आँखों से मेरी,
दूर थे हम, उस कल्पना में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खामोश थे लब, अधूरी थी बातें मेरे बिन!
अधजगी, उनींदी थी रातें मेरे बिन!
किसी काम के, न थे आसमाँ के सितारे,
हजारों थे वो, मगर न थे मुझसे प्यारे,
दूर थे हम, उनकी जेहन में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

खनकती न थी, उनकी चूड़ियाँ मेरे बिन!
उजरी सी थी, वो ही दुनियाँ मेरे बिन!
चुप सी थी, उनके पायलों की रुन-झुन,
गुम-सुम से थे, उन होठों के तरन्नुम,
दूर थे हम, उन चुप्पियों में जरूर थे हम!

कहीं न कहीं...

न चाह कर भी, चाहतों से दूर थे हम!
फिक्र उनकी बातों में, अब भी थी मेरी ही!
कहीं न कहीं...
उनकी यादों में, जिन्दा जरूर थे हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 27 May 2016

वो चाय जो आदत बन गई

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

सुबह की मंद बयार तन को सहलती जब,
अलसाई नींद संग बदन हाथ पाँव फैलाते तब,
अधखुले पलकों में उभरती तभी एक छवि,
चाय की प्याली हाथों में ले जैसे सामने कोई परी,
स्नेहमई मूरत चाय संग प्यार छलकाती रही,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

चाय की वो चंद बूँदें लगते अमृत की धार से,
एहसास दिलाते जैसे छलके हो मदिरा उन आँखों से,
सिंदुरी मांग सी प्यारी रंग दमकती उन प्यालों में,
चूड़ियों की खनखन के संग चाय लिए उन हाथों में,
अलबेली मूरत वो मन को सदा लुभाती रही,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

सांझ ढ़ले फिर कह उठते वो चाय के प्याले,
कुछ फुर्सत के मदहोश क्षण संग मेरे तू और बीता ले,
जहाँ बस मैं हुँ, तुम हो और हो नैन वही दो मतवाले,
तेरी व्यथा कब समझेंगे हृदयविहीन ये जग वाले,
मनमोहिनी सूरत वो चाय संग तुझे पुकारती,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....