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Friday 24 February 2023

मतलबी

अबकी भी, बड़ी, प्रीत लगी मतलबी!

ऐ सखी, किन धागों से मन बांधूं?
कित ओर, इसे ले जाऊं,
कैसे बहलाऊं!
अजनबी ये, प्रीत लगी बड़ी मतलबी!

जीर्ण-शीर्ण, मन के दोनों ही तीर,
ना ही, चैन धरे, ना धीर,
बांध कहां पाऊं!
यूं बींध सी गई, ये प्रीत बड़ी मतलबी!

किंचित भान न था, छल जाएगा!
दु:ख देकर, खुद गाएगा,
अब, यूं घबराऊं!
यूं दुस्वार लगे, ये प्रीत, बड़ी मतलबी!

ऐ सखी, कित मन को समझाऊं?
इसे और कहां, ले जाऊं,
कैसे दोहराऊं!
अबकी भी, लगी, प्रीत बड़ी मतलबी!

अजनबी ये, प्रीत लगी बड़ी मतलबी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 2 April 2022

पतवार

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?
ठहर, ऐ नाव मेरे,
वक्त की पतवार ही, इक धार लाएगी,
बहा ले जाएगी, तुमको,
आंहें क्यूँ भरे!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?

अभी, बहते पलों में, समाया एक छल है,
ज्यूं, नदी में, ठहरा हुआ जल है,
बांध ले, सपने,
यूं, ठहरता पल कहां, रोके किसी के!
कहीं, तेरे संग ये पल,
छल ना करे!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?

पहलू अलग ही, वक्त के बहते भंवर का,
बहा ले जाए, जाने किस दिशा,
है जिद्दी, बड़ा, 
रोड़ें राह के, कभी थाम लेती हैं बाहें,
वास्ता, उन पत्थरों से,
यूं कौन तोड़े!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?

डोल जाए ना, कहीं, अटल विश्वास तेरा!
तू सोचता क्यूं, संशय में घिरा?
ले, पतवार ले,
धीर रख, मन के सारे संशय वार ले,
पार जाएगी, ये नैय्या,
मन क्यूं डरे!

ठहरे धार में, पतवार क्या करे?
ठहर, ऐ नाव मेरे,
वक्त की पतवार ही, इक धार लाएगी,
बहा ले जाएगी, तुमको,
आंहें क्यूँ भरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 29 June 2021

रुबरू वो

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

थाम कर अपने कदम, रुक चला यूँ वक्त,
पहर बीते, उनको ही निहार कर,
लगा, बहते पलों में, समाया एक छल हो,
ज्यूँ, नदी में ठहरा हुआ जल हो,
यूँ हुए थे, रूबरू वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

शायद, भूले से, कोई लम्हा आ रुका हो,
या, वो वक्त, थोड़ा सा, थका हो,
देखकर, इक सुस्त बादल, आ छुपा हो,
बूँद कोई, तनिक प्यासा सा हो,
रुबरू, यूँ हुए थे वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

पवन झकोरों पर, कर लूँ, यकीन कैसे!
रुक जाए किस पल, जाने कैसे,
मुड़ जाएँ, बिखेर कर, कब मेरी जुल्फें,
बहा लिए जाए, दीवाना सा वो,
बेझिझक, रुबरू हो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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- Dedicated to someone to whom I ADMIRE & I met today and collected Sweet Memories & Amazing Fragrance...
It's ME, to whom I met Today...

Sunday 15 November 2020

गहरी रात

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

इक दीप जला है, घर-घर,
व्यापा फिर भी, इक घुप अंधियारा,
मानव, सपनों का मारा,
कितना बेचारा,
चकाचौंध, राहों से हारा,
शायद ले आए, इक नन्हा दीपक!
उम्मीदों की प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

कतरा-कतरा, ये लहू जला,
फिर कहीं, इक नन्हा सा दीप जला,
निर्मम, वो पवन झकोरा,
तिमिर गहराया,
व्याकुल, लौ कुम्हलाया,
मन अधीर, धारे कब तक ये धीर!
कितनी दूर प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

तम के ही हाथों, तमस बना,
इन अंधेरी राहों पर, इक हवस पला,
बुझ-बुझ, नन्हा दीप जला,
रातों का छला,
समक्ष, खड़ा पराजय,
बदले कब, इस जीवन का आशय!
अधूरी, अपनी बात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!
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दीपावली का दीप, इक दिवा-स्वप्न दिखलाता  गया इस बार। कोरोना जैसी संक्रमण, विश्वव्यापी मंदी, विश्वयुद्ध की आशंका, सभ्यताओं से लड़ता मानव, मानव से ही डरता मानव आदि..... मन में पलती कितनी ही शंकाओं और इक उज्जवल सभ्यता की धूमिल होती आस के मध्य जलता, इक नन्हा दीप! इक छोटी सी लौ....गहरी सी ये रात.... और पलता इक दिवास्वप्न!
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 7 September 2020

चाँद चला अपने पथ

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

बोल भला, तू क्यूँ रुकता है?
ठहरा सा, क्या तकता है?
कोई जादूगरनी सी, है वो  स्निग्ध चाँदनी,
अन्तः तक छू जाएगी,
यूँ छल जाएगी!

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

कुछ कहता, वो भुन-भुन-भुन!
कर देता हूँ मैं, अन-सुन!
यथासंभव, टोकती है उसकी ज्योत्सना,
यथा-पूर्व जब रात ढ़ला,
यूँ कौन छला?

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

दुग्ध सा काया, फिर भरमाया,
चकोर के, मन को भाया
पाकर स्निग्ध छटा, गगण है शरमाया,
महमाई फिर निशिगंधा,
छल है छाया!

वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 13 August 2020

पाओगे क्या

सीने पर मेरे, सर रख कर पाओगे क्या?

गर, जिद है तो....
इस सीने पर, तुम भी, सर रख लो,
रिक्त है, सदियों से ये,
पाओगे क्या?

इन रिक्तियों में.....

है कुछ भी तो, नहीं यहाँ!
हाँ, कभी इक धड़कन सी, रहती थी यहाँ,
पर, अब है, बस इक प्रतिध्वनि,
किसी के, धड़कन की,
शायद, वो ही, सुन पाओगे!
पाओगे क्या?

इन रिक्तियों में.....

इक आकृति, थी उत्कीर्ण!
पर, अब तो शायद, वो भी हैं जीर्ण-शीर्ण,
और, सोए हों, एहसासों के तार,
भर्राए हों, दरो-दीवार,
आभाष, वो ही, कर पाओगे!
पाओगे क्या?

इन रिक्तियों में.....

टूटे बिखरे, हों कुछ पल!
समेट लेना उनको, भर लेना तुम आँचल,
कुछ कंपन, एहसासों के, देना,
पर, उम्मीद न भरना,
कल, तुम भी, छल जाओगे!
पाओगे क्या!

इन रिक्तियों में.....

गर, जिद है तो....
इस सीने पर, तुम भी, सर रख लो,
रिक्त है, सदियों से ये,
पाओगे क्या?

सीने पर मेरे, सर रख कर पाओगे क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 26 June 2020

अन्तराल

काश!
गहराता न ये अन्तराल,
इतने दूर न होते,
ये जमीं
ये आकाश!

मिलन!
युगों से बना सपना,
मध्य, अपरिमित काल!
इक अन्तरजाल,
एक अन्तराल!
दूर कहीं,
बस कहने को,
एक अपना!

सत्य!
पर इक छल जैसे,
ठोस, कोई जल जैसे!
आकार निराकार,
मूर्त-अमूर्त,
दोनों ही,
समक्ष से रहे,
भ्रम जैसे!

कशिश!
मचलती सी जुंबिश,
लिए जाती हो, कहीं दूर!
क्षितिज की ओर,
प्रारब्ध या अंत,
एक छद्म,
पलते अन्तराल,
यूँ न काश!

काश!
गहराता न ये अन्तराल,
इतने दूर न होते,
ये जमीं
ये आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 25 April 2020

कलयुग का काँटा

इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया,
काँटा ही कहलाया,
कुछ तुझको ना दे पाया,
सूनी सी, राहों में,
रहा खड़ा मैं!

इक पीपल सा, छाया ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
रोड़ों सा राहों में, 
रहा पड़ा मैं!

सत्य की खातिर, सत्य पर अड़ा मैं,
वो अपने ही थे,
जिनके विरुद्ध लड़ा मैं,
अर्जुन की भांति,
सदा खड़ा मैं!

धृतराष्ट्र नहीं, जो बन जाता स्वार्थी,
उठाए अपनी अर्थी,
करता कोई, छल-प्रपंच,
सत्य की पथ पर,
सदा रहा मैं!

संघर्ष सदा, जीवन से करता आया,
लड़ता ही मैं आया,
असत्य, जहाँ भी पाया,
पर्वत की भांति,
रहा अड़ा मैं!

गर, कर्म-विमुख, पथ पर हो जाता,
रोता, मैं पछताता,
ईश्वर से, आँख चुराता,
मन पे इक बोझ,
लिए खड़ा मैं!

इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
कंकड़ सा राहों में, 
रहा पड़ा मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 24 April 2020

भ्रम

यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

बहते कहाँ, बहावों संग, तीर कहीं,
रह जाती सह-सह, पीर वहीं,
ऐ अधीर मन, तू रख धीर वही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

तूफाँ हैं दो पल के, खुद बह जाएंगे,
बहती सी है ये धारा, कब तक रुक पाएंगे,
परछाईं हैं ये, हाथों में कब आएंगे,
ये आते-जाते से, साए हैं घन के,
छाया, कब तक ये दे पाएंगे?
इक भ्रम है, मिथ्या है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

गर चाहोगे, तो प्यास जगेगी मन में,
गर देखोगे, परछाईं ही उभरेगी दर्पण में,
बुन जाएंगे जाले, ये भ्रम जीवन में,
उलझाएंगे ही, ये धागे मिथ्या में,
सुख, कब तक ये दे पाएंगे?
इक छल है, तृष्णा है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

पिघले-पिघले हो, मन में नीर सही,
अनवरत उठते हों, पीर कहीं,
भींगे-भींगे हों, मन के तीर सही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 27 March 2020

छल

रहे थे, करीब जितने,
हुए, दूर उतने!
मेरे पल!

काटे-न-कटते थे, कभी वो एक पल,
लगती, विरह सी, थी,
दो पल, की दूरी,
अब, सताने लगी हैं, ये दूरियाँ!
तेरे, दरमियाँ,
तन्हा हैं, कितने ही पल!

डसने लगे हैं, मुझे वो, हर एक पल,
मेरे ही पहलू में, रहकर,
मुझमें सिमटकर,
लिए, जाए किधर, जाने कहाँ?
तेरे, दरमियाँ,
होते जवाँ, हर एक पल!

करते रहे छल, मुझसे, मेरे ही पल,
छल जाए, जैसे बेगाने,
पीर वो कैसे जाने,
धीर, मन के, लिए जाए कहाँ?
तेरे, दरमियाँ,
अधूरे है, कितने ये पल!

रहे थे, करीब जितने,
हुए, दूर उतने!
 मेरे पल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 9 October 2019

सहचर

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

छोड़ दे ये दामन, अब तोड़ न मेरा मन,
पग के छाले, पहले से हैं क्या कम?
मुख मोड़, चला था मैं तुझसे,
रिश्ते-नाते सारे, तोड़ चुका मैं तुझसे!
पीछा छोर, तु अपनी राह निकल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

माना, था इक रिश्ता सहचर का अपना,
शर्तो पर अनुबन्ध, बना था अपना!
लेकिन, छला गया हूँ, मैं तुझसे,
दुःख मेरी अब, बनती ही नही तुझसे!
अनुबंधों से परे, है तेरा ये छल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

चुभोए हैं काँटे, पग-पग पाँवों में तुमने,
गम ही तो बाँटे, हैं इन राहों में तूने!
सखा धर्म, निभा है कब तुझसे?
दिखा एक पल भी, रहम कहाँ तुझमें?
इक पल न तू, दे पाएगा संबल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

ये दर्द बेइन्तहा, सदियों तक तूने दिया,
बगैर दुःख, मैंनें जीवन कब जिया?
तू भी तो, पलता ही रहा मुझसे!
फिर भी छल, तू करता ही रहा मुझसे!
अब और न कर, मुझ संग छल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 8 September 2019

मेरी रचना

समर्पित थी, कुछ रचनाएँ रंगमंच पर!
नव-कल्पना के, चित्र-मंच पर!
चाहत थी, पंख लेकर उड़ जाना!
नाप जाना, उन ऊंचाईयों को!
कल्पनाओं के परे, रहीं अब तक जो,
करती दृढ़-संकल्प और विवेचना!
निकल पड़ी थी, ढ़ेरों रचना!

लगता था उन्हें, क्या कर लेगी रचना?
अभी, ये सीख रही है चलना!
आसान है, इन्हें पथ से भटकाना!
नवजात शिशु सी मूक है जो!
बस किलकारी ही भर सकती है वो!
करना है क्या, इनसे कोई मंत्रणा?
छल से आहत, हुई ये रचना?

भूले थे वो, कि सशक्त व प्रखर हैं ये!
कह देती हैं ये, सब बिन बोले,
है मुश्किल, इन्हें पथ से भटकाना!
उतरती हैं, ये चल कर दिल में,
खामोश कहाँ रहती हैं, ये महफिल में,
शब्द-शब्द इनकी, करती है गर्जना,
जब हुंकार, भरती हैं रचना!

रहीं है मानवता, रचनाओं के वश में,
घर कर जाती हैं, ये अन्तर्मन में,
मन की राह, चाहती हैं ये रह जाना!
अनवरत प्रवाह, बन बह जाना,
छलक कर नैनों में, भावों में उपलाना,
सह कर, प्रसव की असह्य वेदना,
पुनः जन्म, ले लेती है रचना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 7 June 2019

उसी कल में

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में ...

ये आज है, कि गुजरता ही नहीं,
क्या राज है कि मन समझता ही नहीं?
बदल से गए हैं पल,
या यहीं-कहीं ठहर से गए हैं पल,
चल रे चल, ऐ पल तू चल,
यूँ ना बदल,
कल, उनसे कहीं मिलना है हमें,
आने दे जरा, वो ही कल....

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में....

सुना था कि पंख होते हैं पलों के!
चाल, बड़े ही चपल, होते हैं इन पलों के!
इनको ये हुआ क्या?
उड़ते नहीं क्यूँ आज ये गगन पे,
ऐ, चपल पल, तू जरा चल!
ठहरा जो तू,
चल न दे, वो आने वाला कल,
ले आ जरा, वो ही कल....

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में....

निस्तब्ध हूँ मैं, देख कर तेरी अदा!
ऐसे न पहले, राह में तू कहीं था यूँ रुका!
निरंतर था तू चला,
क्यूँ आज ही, इस राह में तू रुका?
यूँ न कर मुझसे छल, तू चल!
तू आगे निकल,
उसी कल में, तू भी चल...

उसी कल की चाह में, रुका हूँ मैं राह में....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 20 November 2018

सांध्य-स्वप्न

नित आए, पलकों के द्वारे, सांध्य-स्वप्न!

अक्सर ही, ये सांध्य-स्वप्न!
अनाहूत आ जाए,
बातें कितनी ही, अनथक बतियाए,
बिन मुँह खोले,
मन ही मन, भन-भन-भन...

छलावे सा, ये सांध्य-स्वप्न!
छल कर जाए,
हर-क्षण, भ्रम-जाल कोई रच जाए,
बिन घुंघरू के,
पायल बाजे, छन-छन-छन......

पलकों में, ये सांध्य-स्वप्न!
नमी बन आए,
अधूरे ख्वाब कई, फिर से दिखलाए,
बिन सावन के,
बदरा गरजे, घन-घन-घन....

बेचैन करे, ये सांध्य-स्वप्न!
छम से आ जाए,
अद्भुद दृश्य, पटल पर रखता जाए,
बिन मंदिर के,
घंटी बाजे, टन-टन-टन......

नित आए, पलकों के द्वारे, सांध्य-स्वप्न! 

Sunday 8 May 2016

मुद्दतों गुजरे अफसाने

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

छलता ही रहा हर पल मन उस छलावे में,
भटकता ही रहा हर क्षण बदन उस बहकावे में,
टूटा सा इक दर्पण निकला वो अपना सा लगता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

घुँघरू सा बजता था वो दिल के तहखानों में,
पहचाना सा इक शक्ल लगता था वो अन्जानों में,
टूटा है अब मेरा घुँघरू वो, इस दिल में बजता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

जाने कितनी बार छला है ये मन इस दुनिया में,
ये पागल दिल भूल जाता है खुद भी को मृगतृष्णा में,
टूटा है अब जाल वो छल का उलझा था इस मन में जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

Tuesday 2 February 2016

तोहफा-ए-दीदार

दीदार-ए-तोहफा वो दे गया,
मेरा जीवन मुझको ही छल गया।
जिन्दगी मिली चंद पलों की,
यादों मे जीवन का हर पल गया।

खुश्बु-ए-दीदार फैली हर तरफ,
सिलसिला फसानों का कम हुआ,
तैरती रही नींद में परछाईं सी,
अब तो दीदार-ए-स्वप्न ही रह गया।

ए जिन्दगी तू फिर से सँवर,
छल न तू मुझको मुझ संग गुजर,
दे तोहफा-ए-दीदार के भँवर,
पल जीवन के इनमें ही जाए गुजर।