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Friday 12 November 2021

छाँव

तनिक छाँव, कहीं मिल जाए,
तो, जरा रुक जाऊँ!

यूँ तो, वृक्ष-विहीन इस पथ पर,
तप्त किरण के रथ पर,
तारों के उस पार, तन्हा मुझको जाना है,
इक साँस, कहीं मिल जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

काश ! कहीं, इक पीपल होता,
उन छाँवों में सो लेता,
पांवों के  छालों को, राहत के पल देता,
इक छाँव, कहीं मिल जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

वो कौन यहाँ जो छू जाए मन,
कौन सुने ये धड़कन,
बंजर से वीरानों में, फलते आस कहाँ,
इक आस, कहीं मिल जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

पथ पर, कुछ बरगद बोने दो,
पथ प्रशस्त होने दो,
चेतना के पथ पर, पलती हो संवेदना,
इक भाव, कहीं जग जाए,
दो पल, रुक जाऊँ!

तनिक छाँव, कहीं मिल जाए,
तो, जरा रुक जाऊँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 2 April 2020

कतरा भर

चेहरों को जलाता,
सुलगता सा,
धूप,
और
मुझसे ही,
परे!
कतराता सा,
दूर होता,
कतरा भर, आसमान!

नजरों से,
अब तलक,
ओझल वो गाँव,
दूर भागते,
कतराते से वो छाँव!
और
न रुकने की,
अनथक,
चलने की,
एक, मेरी भी जिद!

पराए ही रही,
वो धूप,
पराया सा,
फसलों से गुजरता,
वो आसमां,
और
पराए से,
कतराते,
कहीं,
दूर जाते, वो साए!

कतरा-कतरा,
बिखरता,
मैं!
छल,
करती रही थी,
रौशनी ही,
राह भर,
यूँ,
कतरा भर,
पल-पल,
कटता रहा, ये सफर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 29 December 2019

सांझ सकारे

सांझ सकारे, झील किनारे,
वो कौन पुकारे, जानूं ना, मैं जानूं ना!

मन की गली, जाने कहाँ, मुड़ जाए,
तन ये कहे, चलो वही, कहीं चला जाए,
सांझ सकारे, गली वो पुकारे!

अपने मेरे, मन के, वहीं मिल जाए,
सपन मेरे, शायद वहीं, कहीं खिल जाए,
सांझ सकारे, चाह वो पुकारे!

वो कौन डगर, वो नजर, नहीं आए,
जाऊँ मैं ठहर, जो नजर, वो कहीं आए,
सांझ सकारे, राह वो पुकारे!

रुके जो कदम, तो लगे, वो बुलाए,
चले जो पवन, सनन-सनन, सांए-सांए,
सांझ सकारे, रे कौन पुकारे!

धुंध जो हटे, ये मन, उन्हें ले आए,
पलकों की छाँव, वो गाँव, ढूंढ़ ही लाए,
सांझ सकारे, वो ठाँव पुकारे!

सांझ सकारे, झील किनारे,
वो कौन पुकारे, जानूं ना, मैं जानूं ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 24 November 2019

मौसम 26वाँ

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

तुम, जैसे, गुनगुनी सी हो कोई धूप,
मोहिनी सी, हो इक रूप,
तुम्हें, रुक-रुक कर, छू लेती हैं पवन,
ठंढ़ी आँहें, भर लेती है चमन,
ठहर जाते हैं, ये ऋतुओं के कदम,
रुक जाते है, यहीं पर हम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

कब ढ़ला ये दिन, कब ढली ये रातें,
गई जाने, कितनी बरसातें,
गुजरे संग, बातों में कितने पलक्षिण,
बीते युग, धड़कन गिन-गिन,
हो पतझड़, या छाया हो बसन्त,
संग इक रंग, लगे मौसम!

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

ठहरी हो नदी, ठंढ़ी हो छाँव कोई,
शीतल हो, ठहराव कोई,
क्यूँ न रुक जाए, इक पल ये पथिक,
क्यूँ न कर ले, थोड़ा आराम,
क्यूँ ढ़ले पल-पल, फिर ये ऋतु,
क्यूँ ना, ठहरे ये मौसम?

हो तुम, तो है, वही ऋतु, वही मौसम...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
अपनी शादी कीं 26वीं वर्षगाँठ (यथा 24 नवम्बर 2019) पर, श्रीमति जी को समर्पित ...वही मौसम!

Wednesday 29 May 2019

चल रे मन उस गाँव

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

आकाश जहाँ, खुलते थे सर पर,
नित नवीन होकर, उदीयमान होते थे दिनकर,
कलरव करते विहग, उड़ते थे मिल कर,
दालान जहाँ, होता था अपना घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

धूप जहाँ, आती थी छन छनकर,
छाँव जहाँ, पीपल की मिल जाती थी अक्सर,
विहग के घर, होते थे पीपल के पेड़ों पर,
जहाँ पगडंडी, बनते थे राहों पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

लोग जहाँ, रहते थे मिल-जुल कर,
इक दूजे से परिहास, सभी करते थे जम कर,
जमघट मेलों के, जहाँ लगते थे अक्सर,
जहाँ प्रतिबंध, नहीं होते थे मन पर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

जहाँ क्लेश-रहित, था वातावरण,
स्वच्छ पवन, जहाँ हर सुबह छू जाती थी तन,
तनिक न था, जहाँ हवाओं में प्रदूषण,
जहाँ सुमन, करते थे अभिवादन!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

उदीप्त जहाँ, होते थे मन के दीप,
प्रदीप्त घर को, कर जाते थे कुल के ही प्रदीप,
निष्काम कोई, जहाँ कहलाता था संदीप,
रात जहाँ, चराग रौशन थे घर-घर!
चल रे मन, चल उस गाँव चल......

चल रे मन! उस गाँव, उसी पीपल की छाँव चल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 25 August 2018

अधूरा संवाद

करो ना कुछ बात, अभी अधूरा है ये संवाद.....

बिन बोले तुम सो मत जाना,
झूठमूठ ही, चाहे कुछ भी बतियाना,
या मेरी बातों में तुम खो जाना,
मुझको करनी है तुमसे, पूरी मन की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

भटका सा था मैं इक बंजारा,
तेरी ही पनघट पर था मैं तो ठहरा,
कुछ छाँव मिली मैं सब हारा,
बड़ी अद्भुद सी थी, उस छैय्यां की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

छाँव घनेरी, थी वो बरगद सी,
इक मंद बयार, वहीं थी आ ठहरी,
करता भी क्या अब मैं बेचारा,
उस बयार में थी, शीतल सी कोई बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

अति लघु जुड़ाव जीवन का,
लधुत्तर फुर्सत के ये चंद लम्हात,
चुप चुप सी हो तुम क्यूं बोलो,
कह दो ना तुम, कुछ अनसूनी सी बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

प्रिये, करो ना कुछ बात.....

बिन बोले तुम सो मत जाना,
रिक्त कभी ना, ये झूला कर जाना,
इन बाहों का हो ना रिक्त शृंगार,
रिक्त ना रह जाए, आलिंगन की बात,
अभी अधूरा है इक संवाद......

करो ना कुछ बात, अभी अधूरा है ये संवाद.....

Sunday 18 March 2018

अधलिखा अफसाना

बंद पलकों तले, ढ़ूंढ़ता हूं वही छाँव मैं...
कुछ देर रुका था जहाँ, देखकर इक गाँव मैं....

अधलिखा सा इक अफसाना,
ख्वाब वो ही पुराना,
यूं छन से तेरा आ जाना,
ज्यूं क्षितिज पर रंग उभर आना..
और फिर....
फिजाओं में संगीत,
गूंजते गीत,
सुबह की शीत,
घटाओं का उड़ता आँचल,
हवाओं में घुलता इत्र,
पंछियों की चहक,
इक अनोखी सी महक,
चूड़ियों की खनक,
पत्तियों की सरसराहट,
फिर तुम्हारे आने की आहट,
कोई घबराहट,
काँपता मन,
सिहरता ये बदन,
इक अगन,
सुई सी चुभन,
फिर पायलों की वही छन-छन,
वो तुम्हारा पास आना,
वो मुस्कुराना,
शर्म से बलखाना,
वो अंकपाश में समाना,
वापस फिर न जाना,
मन में समाना,
अहसास कोई लिख जाना,
है अधलिखा सा इक वो ही अफसाना....

बंद पलकों तले, ढ़ूंढ़ता हूं वही छाँव मैं...
कुछ देर रुका था जहाँ, देखकर इक गाँव मैं....

Saturday 1 October 2016

पलकों की छाँव

छाँव उन्हीं पलकों के, दिल ढूंढता है रह रहकर....

याद आता हैं वो पहर, जब मिली थी वो नजर,
खामोशी समेटे हुए, हँस पड़ी थी वो नजर,
चिलचिलाती धूप में, छाँव दे गई थी वो नजर,
वो पलकें थी झुकी और हम हुए थे बेखबर......

है दर्द के गाँवों से दूर, झुकी पलकों के वो शहर....

बेचैन सी कर जाती है जब तन्हा ये सफर,
जग उठते हैं दिल में जज्बातों के भँवर,
एकाकी मन तब सोंचता है तन्हाईयों में सिमटकर,
काश वो पलकें बन जाती मेरी हमसफर ........

छाँव उन्हीं पलकों के, दिल ढूंढता है रह रहकर....

Sunday 26 June 2016

प्यासी छाया

छाया क्षणिक सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

कोरा भ्रम मन का,
कि पा जाऊँ क्षण भर,
उस अल्प छाया में विश्राम,
भ्रमित मन भँवरा सा,
आ पहुँचा है किस गाँव?

छाया खुद तपती सी,
वो क्या दे पाएगी गहरी छाँव?

छाया वो प्यासी सी,
तप्त किरणों में कुचली सी,
झमाझम बूंदों की उसको चाह,
बरसूँ मैं भींगा बादल सा,
ले आऊँ संग उसे अपने गाँव!

छाया लहराई सी,
अब हसती बनकर गहरी छाँव?

Sunday 5 June 2016

बहारें

अपलक देखता ही रहा मैैं और बहारें गुजरती गईं।

खूबसूरत से ये नजारे कलियाँ खिली खिली,
हरे भरे ये बाग सारे पत्तियाँ सब मुस्कुराती मिली,
पंछियों की ये चहचहाहट इन हवाओं में घुली,
झमझमाती बारिशों में, थिरकती रहीं वो बूँदें वहीं,

खोया सा है अब मन मेरा, पलके हमारी हैं खुली।

अपलक बस देखता हूँ मैं इन नजारों को अब,
सोचता हूँ मैं खड़ा शिल्पकार कितना बड़ा है रब,
सौन्दर्य धरा का निखारने को उसने रचाया सब,
मुस्कुराती होंगी ये बहारे, रब मुस्कुराया होगा जब,

गुजरती हैं ये बहारे यहाँ, मेरी नजरों के सामने अब।

ऐ बहारों मुस्कुराओ निहारता बस मैं तुझको रहूँ,
देखकर निराली छटा कल्पना मैं रब की करूँ,
कुछ क्षण मन को मैं थाम लूँ छाँव में बस तेरी रहूँ,
शिल्प की अप्रतिम रचना मैं अपलक निहार लूँ,

बहारें यूँ ही गुजरती रहें, अपलक बस मैं देखता रहूँ।

Thursday 19 May 2016

यादों की एकान्त वेला

मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
आह ! यह एकान्त वेला, फिर याद लेकर उनकी आई...!

अतिशय उलझा है मन फिर ये कैसी रानाई,
घटाएँ उनके यादों की बदली सी इस मन पर छाई,
निस्तब्ध इस एकान्त वेला में ये कैसी है तन्हाई....?

यादों में पल पल वो झूलों से आते लहराकर,
मुखरे पर वही भीनी सी मंद मुस्कान बिखराकर,
कर जाते वो निःशब्द मुझको अपनाकर....!

लहराते जुल्फों की छाँवो में ही रमता है ये मन,
उनकी यादों की गाँवों में ही बसता है अब ये मन,
मन चल पड़ता उस ओर पाते ही एकान्त क्षण....!

तन्हाई डसती नहीं उनकी यादें जब हो संग,
मन एकान्त सा होता नही यादों में जब होते वो संग,
काश! क्षण उम्र के यूँ ही गुजरे यादों में उनकी संग....!