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Tuesday 15 June 2021

ये पल और वो कल

भूल कर, ये पल,
हम तलाशते रहे, वो कल!
कहीं, गौण वर्त्तमान,
मौन, अंजान!

इधर मुझे, ढ़ूँढ़ते रहे, कई पल,
करते, मेरा इन्तजार,
तन्हा, बेजार,
ठहरे, वो अब भी वहीं!

इन्हीं बेजार से, पलों के, मध्य,
कहीं, गौण वर्त्तमान,
मौन, अंजान,
संग, भविष्य भी वहीं!

पनपे, घने कुंठाओं के अरण्य,
हुई, रौशनी नगण्य,
चाहतें अनन्य,
कहीं, भटक रही वहीं!

क्यूँ ना मैं, जी लूँ ये पल यहीं,
वो कल तो है यही,
जीवंतता लिए,
मुझे सींचती, पल यही!

भूल कर, ये पल,
हम तलाशते रहे, वो कल!
कहीं, गौण वर्त्तमान,
मौन, अंजान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 15 June 2019

एकांत पल

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

यूँ लगा था, पहले पहल,
बड़े नीरव से हैं, वो एकांत पल,
दीर्घ श्वांस भरते होंगे, वो एकांत पल,
एकाकी रहती होंगी, वो हरपल,
सिमटे से, होंगे वो पल!
छाई होगी नीरवता, अनमना सा होगा हर पल!

यही सोच, सदियों तक,
पहुँचा था मैं, एकांत पलों तक,
ले अंकपाश, बेतहासा चूमती भाल,
कंठ लिए रव, चहक उठे पल,
जागृत थे, वो हर पल!
थी उनमें स्थिरता, धैर्य भरा था उनमें हर पल!

कलरव हैं, उनके अन्तः,
गुंजित हो उठते हैं, पल स्वतः,
मृदुल से वो पल, मुखर हैं अन्ततः,
रव उनमें, आदि से अन्त तक,
शान्त से, एकांत पल!
रव की मधुरता, आकंठ लिए थे एकांत पल!

इक रव है, आदि से एकांत पलों के अंत तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 13 July 2018

जीवन्त पल

आदि है यही, इक यही है अन्त,
संग गुजारे है जो पल, बस वही है जीवन्त!

इक मृत शिला सा,
मैं था पड़ा,
राह के ठोकरों सा,
मैं था गिरा,
चंद आस्था के फूल लेकर,
स्नेह स्पर्श देकर,
जीवन्त तूने ही किया....

संग बीते पल कई,
स्नेह तेरा मिला,
अब नहीं मैं मृत शिला,
भाव पाकर,
जी उठा अब ये शिला,
देवत्व सा मिला,
तेरे ही मन्दिर में खिला....

अब धड़कते हैं हृदय,
इक कंपन सी है,
नैनों में नीर आकर है भरे,
छलका है मन,
प्रारब्ध है ये प्रेम की,
या है ये अन्त मेरा,
क्षण है यही जीवन्त मेरा.....

पतझड़ है यही, यही है बसन्त,
तुम संग जो गुजरे, पल वही है जीवन्त.....