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Thursday 29 July 2021

जागती प्रकृति

वो, शून्य सा किनारा, स्तब्ध वो नजारा,
शायद, जाग रही हो प्रकृति,
वर्ना, ये पवन, न यूँ हमें छू लेती,
इक सदा, यूँ, हमें दे जाती!

निःशब्द कर गई, ठहरी सी झील कोई,
सदियों, कहीं हो जैसे खोई,
पथराई सी, डबडबाई, वो पलकें,
बोलती, कुछ, हल्के-हल्के!

वो शिखर! पर्वतों के हैं, या कोई योगी,
खुद में डूबा, तप में खोया,
वो तपस्वी, ज्यूँ है, साधना में रत,
युगों-युगों, यूँ ही, अनवरत!

हल्की-हल्की सी, झूलती, वो डालियाँ,
फूलों संग, झूमती वादियाँ,
बह के आते, वो, बहके से पवन,
बहक जाए, क्यूँ न ये मन!

बे-आवाज, गहराता कौन सा ये राज!
जाने, कौन सा है ये साज,
बरबस उधर, यूँ, खींचता है मौन,
इक सदा, यूँ देता है कौन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 24 December 2020

झील सा, अधबहा

गुफ्तगू, बहुत हुई गैरों से,
पर गाँठ, गिरह की, खुल न पाई!
है अन्दर, कितना अनकहा!
झील सा, अनबहा!
अब, बहना है,
इक दीवाने से, कहना है!

मिल जाए, तो अपना लूँ, 
माना, इक फलक है, बिखरा सा,
खुद में, कितना उलझा सा,
बंधा या, अधखुला!
कितना, टूटा है,
उन टुकड़ों को, चुनना है!

दो होते, तो होती गुफ्तगू,
चुप-चुप, करे क्या, मन एकाकी!
गगन करे भी क्या, तन्हा सा!
भींगा या, अधभींगा!
शायद, तरसा है!
उसे तन्हाई में, पलना है!

पहले, सहेज लूँ ये बहाव,
समेट लूँ, मन के सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ किनारों पर!
बहने दूँ, ये अधबहा!
भँवर विहीन सा,
फिर बहाव में, बहना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 12 July 2020

एकाकी

यूँ संग तुम्हारे,
देर तक, तकता हूँ, मैं भी तारे,
हो, तुम कहीं,
एकाकी हूँ, मैं कहीं,
हैं जागे,
रातों के, पल ये सारे!

यूँ तुमको पुकारे,
शायद तुम मिलो, नभ के किसी छोर पर,
कहीं, सितारों के कोर पर,
मिलो, उस पल में, किसी मोड़ पर,
एकाकी पल हमारे,
संग तुम्हारे,
व्यतीत हो जाएंगे, सारे!

यूँ बिन तुम्हारे,
शायद, ढूंढ़ते हैं, उस पल में, खुद ही को,
ज्यूँ थाम कर, प्रतिबिम्ब को,
मुखर है, झील में, ठहरा हुआ जल,
हैं चंचल ये किनारे,
और पुकारे,
बहते, पवन के इशारे!

यूँ संग हमारे,
चल रे मन, चल, फिर एकाकी वहीं चल!
अनर्गल, बिखर जाए न पल,
चल, थाम ले, सितारों सा आँचल,
नैनों में, चल उतारे,
वो ही नजारे,
जीत लें, पल जो हारे!

यूँ संग तुम्हारे,
देर तक, तकता हूँ, मैं भी तारे,
हो, तुम कहीं,
एकाकी हूँ, मैं कहीं,
हैं जागे,
रातों के, पल ये सारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 29 December 2019

सांझ सकारे

सांझ सकारे, झील किनारे,
वो कौन पुकारे, जानूं ना, मैं जानूं ना!

मन की गली, जाने कहाँ, मुड़ जाए,
तन ये कहे, चलो वही, कहीं चला जाए,
सांझ सकारे, गली वो पुकारे!

अपने मेरे, मन के, वहीं मिल जाए,
सपन मेरे, शायद वहीं, कहीं खिल जाए,
सांझ सकारे, चाह वो पुकारे!

वो कौन डगर, वो नजर, नहीं आए,
जाऊँ मैं ठहर, जो नजर, वो कहीं आए,
सांझ सकारे, राह वो पुकारे!

रुके जो कदम, तो लगे, वो बुलाए,
चले जो पवन, सनन-सनन, सांए-सांए,
सांझ सकारे, रे कौन पुकारे!

धुंध जो हटे, ये मन, उन्हें ले आए,
पलकों की छाँव, वो गाँव, ढूंढ़ ही लाए,
सांझ सकारे, वो ठाँव पुकारे!

सांझ सकारे, झील किनारे,
वो कौन पुकारे, जानूं ना, मैं जानूं ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 23 November 2017

डोल गया मन

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
सर रखकर 
इठलाई रवि किरण,
झील में 
तैरते फाहों पर, 
आई रख कर चरण,
आह, उस सौन्दर्य का 
क्या करुँ वर्णन
पल भर को
मूँद गए मेरे मुग्ध नयन....

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
श्रृंगार कर गया कोई,
नैनों में काजल
मस्तक पर
लालिमा सी फैली
सिंदूरी रंग
उफक पर भर गया कोई,
रौशन मुख
पीत वस्त्र
चमकीले आभूषण
मन हर गए श्वेत वर्ण...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

उफक पर
तैरते से तल पर
जैसे हो
तैरते से भ्रम
कौन जाने
जल में है कुंभ या
है कुंभ में जल,
घड़ा जल में 
या है जल घड़े में
असमंजस में
भ्रम की स्थिति में रहे हम...

फिर क्या था, डोल गया, कुछ बोल गया ये मन.....

Saturday 2 September 2017

झील

झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से....

कहते हैं कि झील का कोई समुंदर नही होता!
मैं कहता हूँ कि झील सा सुन्दर कोई समुन्दर नही होता!

अपनी ही स्थिरता, विराम, ठहराव है उस झील का,
आभा अद्भुद, छटा निराली, चारो तरफ हरियाली,
प्रकृति की प्रतिबिम्ब को खुद में लपेटे हुए,
अपने आप में पूरी पूर्णता समेटे हुए झील का किनारा।

प्यार है मुझको उस ठहरे हुए झील से,
रमणीक लगती मन को सुन्दरता तन की उसके।

कमल कितने ही जीवन के खिलते हैं इसकी जल में,
शान्त लगती ये जितनी उतनी ही प्रखर तेज उसके,
मौन आहट में उसकी स्वर छुपते हैं जीवन के,
बात अपने मन की कहने को ये आतुर नही समुन्दर से।

झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से।

Wednesday 11 May 2016

मुझसे मिली जिन्दगी

उस झील सी आँखों में अब तैरती ये जिन्दगी।

जिन्दगी अभ्र पर ही थी मेरी कहीं,
आज मुझसे आकर मिली झूमती वो वहीं,
नूर आँखों मे लिए वही दिलकशीं,
कह रही मुझसे तू आ के मिल ले कहीं।

हँस पड़ी जिन्दगी पल भर को मेरी,
बन्द लब्जों से ही करने लगी वो बातें कईं,
रंग होठों पे लिए फिर वही शबनमी,
कह रही जिन्दगी तू रोज आ के मिल कहीं।

मैं दिखा उन लकीरों में ही बंद कही,
उनकी हाथों में जब लकीरें असंख्य दिखीं,
स्नेह पलकों पे लिए हाथ वो पसारती,
कहने लगी जिन्दगी दूर मुझसे जाना नहीं।

उस अभ्र पर बादलों में अब तैरती ये जिन्दगी।

Tuesday 5 April 2016

आकृति

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

कहीं खयालों में उभरी है इक तस्वीर,
कुछ धुंधली सी अबतक मानस पटल पर अंकित,
ठहरे झील में नजर आई थी वो मुस्काती,
लहर ये कैसी? कही गुम हुई वो झिलमिल आकृति।

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

नभ पर घटाओं में उभरी है वो तस्वीर,
पल पल रूप बदलती चंचल बादलों में मुस्काती,
लट काले घुँघराले ठिठोली बूँदों संग वो करती,
हवा ये कैसी? कही गुम हुई बिखरी नभ में वो आकृति।

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

मन के सूने महल में अंकित वो तस्वीर,
खाली घर की दीवारों पर उभर आती वो रंगों सी,
स्नेहिल पलकों से अपलक वो निहारती,
आहट ये कैसी? कही गुम हुई नजरों में वो आकृति!

कहीं खयालों में कैद तस्वीर इक सलोनी सूरत की!

Sunday 27 March 2016

प्रेयसी

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही स्वप्निल झील सी नीली आँखें,
मदमाई अलसाई झुकी हुई सी पलकें,
काले-काले इन नैनों में नींद के पहरे,
जिक्र बादलों का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही होठ अधखुले दो पंखुड़ियाँ से,
लरजते, कांपते, शबनम की बूंदों में डूबे,
लालिमा इन पर सूरज की किरणों के,
जिक्र गुलाब का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

वही चेहरा चांदनी में धुला आभामय,
हसीन नूर सा रेशमी अक्श मुख पर लिए,
अक्श रुहानी जैसे दीप जली मन्दिर में,
जिक्र पूजा का कर लूँ तुमको प्रेयसी कहने से पहले।

शायद हम कहीं मिल चुके हैं पहले.........!

Monday 21 March 2016

एक टुकड़ा नीरद

एक टुकड़ा नीरद, मीनकेतु सा छाया मन पर,
चातक मन बावरा उस नीरद का,
उमर घुमर वो नीरद वापस आता इस मन पर,
मनसिज सा बूँद बन बिखरा ये मन पर।

आज कहीं गुम वो मनसिज नीरद,
परछाई खोई कहीं बेचैन सी झील मे उसकी,
हलचल इस जल में आज कितनी,
सूख चुकी है शायद उस नीरद की बूँद भी?

नीरद आशाओं के कल फिर वापस आएंगे,
मन के झील पर ये फिर झिलमिलाएंगे,
तस्वीर नीरद की नई उभरेगी परछाई बन,
मनसिज नीरद की बूँदे फिर बरस जाएंगे मन पर।

Saturday 19 March 2016

झील का कोई समुंदर नहीं

कहते हैं कि झील का कोई समुंदर नही होता!
मैं कहता हूँ कि झील सा सुन्दर कोई समुन्दर नही होता!

अपनी ही स्थिरता, विराम, ठहराव है उस झील का,
आभा अद्भुद, छटा निराली, चारो तरफ हरियाली,
प्रकृति की प्रतिबिम्ब को खुद में लपेटे हुए,
अपने आप में पूरी पूर्णता समेटे हुए झील का किनारा।

प्यार है मुझको उस ठहरे हुए झील से,
रमणीक लगती मन को सुन्दरता तन की उसके।

कमल कितने ही जीवन के खिलते हैं इसकी जल में,
शान्त लगती ये जितनी उतनी ही प्रखर तेज उसके,
मौन आहट में उसकी स्वर छुपते हैं जीवन के,
बात अपने मन की कहने को ये आतुर नही समुन्दर से।

झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से।

Sunday 13 March 2016

झीलों के झिलमिल दर्पण में वो

नजरों मे वो, झीलों के झिलमिल दर्पण मे वो।

नजरों में हरपल इक चेहरा वही,
चारो तरफ ढूढूा करूँ पर दिखता नहीं,
झीलों के झिलमिल दर्पण मे वो,
देखें ये नजरें पर हो ओझल सी वो।

धुआँ-धुआँ वो अक्स, धूँध मे गुम हो जाए वो।

जगी ये अगन कैसी दिल में मेरे,
ख्यालों मे दिखता धुआँ सा अक्स सामने,
जाने किस धूँध में हम चलते रहे,
हर तरफ ख्यालों की धूँध मे खोया किए।

मन में वो, मन की खामोश झील में गुम सी वो।

चाँदनी सी बादलों में वो ढ़लती रहे,
झिलमिल सितारों मे उनको हम देखा करें,
आते नजर हो झीलो के दर्पण में तुम,
अब तो नजरों में तुम ही हो, जीवन में तुम।

नजरों मे तुम हो, झीलों के झिलमिल दर्पण मे तुम।