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Sunday 29 July 2018

भूलोगे कैसे

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

वो सूनी राहें, वो बलखाते से पल,
बहते से लम्हे, ये हवाएं चंचल,
वो टूटे पत्ते, वो बिखरा सा आँचल,
यूं मुझमें खो जाओगे तुम,
बहते लम्हों संग, उड़ आओगे तुम,
मौसम के रंग बदलेंगे,
घटा घनघोर जमकर बरसेंगे,
भिगाएंगे, मन विरहाकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

उड़-उड़कर कागा मुंडेरे पे आएंगे,
काँव-काँव कर संदेशे लाएंगे,
अकुलाहट आने की ये दे जाएंगे,
सोचोगे, राह तकोगे तुम,
सूनी राहों के पदचाप गिनोगे तुम,
कागा फिर फिर आएंगे,
मुंडेर चढ़ गाएंगे, चिढाएंगे,
तरसाएंगे, मन आकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

कुहू-कुहू कोयल झुरमुट में गाएगी,
छुप-छुप विरहा ये सुनाएंगी,
यादें मेरी लेकर वो भी आएंगी,
मन ही मन, गाओगे तुम,
कुछ गीत मेरे, यूं दोहराओगे तुम,
सूने नैने छलक आएंगे,
कोयल, रुक-रुककर गाएंगे,
जलाएंगे, मन व्याकुल कर जाएंगे....

हर क्षण कण-कण मेरी याद दिलाएंगे......

Wednesday 17 February 2016

गौरैय्या तू चुप क्युँ?

गौरैय्या रे तू आज चुप क्युँ,
मौन तोड़ कुछ कह दे तू,
क्या हुआ जो रूठ गया वो,
संगा संबंधी था छोड़ गया वो।

छोटी सी तो दुनिया है तेरी,
सुख और दुख दोनो तेरे साथी,
जीवन संगी के संग प्रीत लगा तू,
बहाने खुशी के ढूंढ़ नया तू।

तिनके नए पुराने तू चुन ले,
बसेरा सुन्दर सा तू बुन ले,
चीं चीं वाणी मे तू गाता जा,
नए दोस्त संबंधी तू बनाता जा।

गुलशन मंद तेरी वाणी बिन,
झुरमुट उदास तेरी चीं चीं बिन,
मेरी मन में तू इक आस जगा,
गौरैय्या तू चुप क्युँ गीत कोई गा।

Monday 1 February 2016

अरण्य भ्रमण

शुकून कितना इस अरण्य में,
विशाल घने वृक्ष घास झुरमुट मे,
अरण्य के मौन एकाकीपन में,
अन्तस्थ मंडराते कोलाहल में।

विचरते मयुर स्वच्छंद कलरव कर,
नर नृत्य भंगिमा करते पंख फैलाकर,
सम्मोहित मादा मयुर हुए जातीं,
दृश्य अति मनभावन ये दिखलातीं।

साँभर हिरनों नें मूक यूँ साधा है,
जैसे ईश्वर साधना मे खुद को बांधा है,
निःस्वर तकते फलक जमी पर,
चंचल हो उठते सुन घनघोर स्वर।

विशालकाय गज छुपा झुरमुट मे,
ताकते इधर उधर दूर गगन मे,
घोर चिंघार करता फिर अरन्य मे,
लीन बसंत ऋतु की स्वागत मे।

गैंडों की अपनी ही कथा है,
वर्चस्व किसकी हो यही व्यथा है,
लहुलुहान हुए लड़कर आपस में,
अरण्य निःस्तब्ध देखता कोलाहल में।

गीत कहीं गाते विहगझुंड,
स्वर लहरी में लहराते पशुझुंड,
विशाल वृक्ष झूम-झूम लहराते,
एकाकी मन मृदंग ताल छेड़ जाते।

(At Jaldhapara National Park, Madarihat WB on 31.01.2016

Saturday 9 January 2016

झुरमुट के तले

झुरमुट के तले साए में बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

राहें रुबड़ खाबर,
नित् नई चिन्ताएँ,
न पीछे की बूझ,
न आगे रहा कुछ सूझ,
घर छोड़ा था क्या सोंचकर,
यह भी याद नहीं अब,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

बिटिया बड़ी हो गई होगी,
शायद हाथ पीले होंगे अब करने,
माँ भी अब दिखती होगी बूढ़ी,
कब वापस जा पाऊँगा?
क्या उन्हें फिर देख पाऊँगा?
जिम्मेवारियों की लगी है फेहरिस्त,
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

लक्ष्य क्या था इस जीवन का?
लक्ष्य क्या साधा है मैंने?
दोनों मे इतनी क्युँ विषमता?
कल जो हैं मुझे करने,
क्या है वो मेरी विवशता?
भविष्य कहाँ ले जाए मुझको?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?

पल जीवन के हैं अनिश्चित,
पर लक्ष्य सभी करने सुनिश्चित,
एहसानों का है बोझ प्रबल,
दायित्व इनके आगे निर्बल,
मार्ग सही क्या चुना है मैंने?
क्या इस राह सध पाएंगे दोनो?
सायों मे झुरमुट के बैठ,
सोचता वह मुसाफिर,
क्या पाया मैंने इस राह पर?