Showing posts with label दंगा. Show all posts
Showing posts with label दंगा. Show all posts

Wednesday 26 February 2020

तंग गलियारे

माना, हम सब सह जाएंगे,
दंगों के विष, घूँट-घूँट हम पी जाएंगे,
आगजनी, गोलीबारी,
तन-बदन और सीनों पर, झेल जाएंगे,
लेकिन, मन की तंग गलियारों से,
आग की, उठती लपटें,
धू-धू, उठता धुआँ,
इन साँसों में, कैसे भर पाएंगे?

जलता मन, सुलगता बदन,
आघातों के, हर क्षण होते विस्फोट,
डगमगाता विश्वास,
बहती गर्म हवाएँ, सुलगते से ये होंठ,
जहरीली तकरीरें, टूटती तस्वीरें,
चुभते, बिखरे से काँच,
सने, खून से दामन,
इस मन को, कैसे जोड़ पाएंगे?

मन के, ये तंग से गलियारे,
नफ़रतों, साज़िशों की ऊँची दीवारें,
वैचारिक अंन्तर्द्वन्द,
अन्तर्विरोध व अन्तः प्रतिशोध के घेरे,
अवरुद्ध हो चली, वैचारिकताएं,
घिनौनी मानसिकताएं,
चूर-चूर, होते सपने,
इन नैनों में, कैसे बस पाएंगे?

इन, तंग गलियारों में ....
माना, हम सब सह जाएंगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 1 April 2018

दंगा

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!
क्युं इस गली अब कोई आता नही?

वो कहते हैं कि हुए थे दंगे!
दो रोटी को जब लड़ बैठे थे दो भूखे नंगे....
अब तक है वो दोनो ही भूखे!
है कौन उसे जो देखे?
भूख से ऐंठती विलखती पेट पकड़ कर,
संग देख रहे थे वो भी दंगे!
बस उन दंगो से, था उनका कोई नाता नहीं!
क्यूं उस पेट की...
जलती आग बुझाने कोई आता नही!

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!

ये दंगे तो यूं ही भड़केगे,
जब तक भूख, गरीबी से हम तड़पेंगे!
दिग्भ्रमित करेंगें ये धर्म के नारे,
शर्मसार करेगे ये हमको खुद अपनी नजरों में,
जवाब खुद को हम क्या देंगे?
छल, कपट, वैर, घृणा, वैमनस्य के ये बीज,
क्या अपनी हाथों खुद हम बोएंगे?
क्यूं ये वैर भाव....
ये द्वेष मन से मिटाने कोई आता नही?

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!

कश! अलग-अलग न होते,
ये मंदिर, ये मस्जिद, ये गिरिजाघर,
काश एक होता ईश्वर का घर,
एक होती साधना, एक ही होती भावना,
कहर दंगों का न हम झेलते,
लहू में धर्मान्धता के जहर न फैलते,
पीढ़ियाँ मुक्त होती इस श्राप से...
क्यू इस श्राप से...
जीवन मुक्त कराने कोई आता नहीं?

अब क्या हुआ जो मुझको कुछ भी भाता नही!
क्युं इस गली अब कोई आता नही?