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Friday 14 February 2020

कोशिशें

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

असंख्य तारे, टंके आसमां पर,
कर कोशिशें, लड़े अंधेरों से रात भर,
रहे जागते, पखेरू डाल पर,
उड़ना ही था, उन्हें हर हाल पर,
चाहे, करे कोशिशें,
अंधेरे, रुकने की रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

ठहर जा, दो पल, ऐ चाँद जरा,
अंधेरे हैं घने, तू लड़, कुछ और जरा,
भुक-भुक सितारों, संग खड़ा,
हो मंद भले, तेरे दामन की रौशनी,
पर, तू है चाँदनी,
कोशिशें, कर तू रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

यूँ जारी हैं, हमारी भी कोशिशें,
जलाए हमने भी, उम्मीदों के दो दीये,
लेकिन भारी है, इक रात यही,
व्याप्त निशा, नीरवता ये डस रही,
बुझने, ये दीप लगी,
करती कोशिशें, रात भर!

नीरवता! ठहरी क्यूँ है रात भर?
है कैसी, ये कोशिशें?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 8 November 2018

बुझते दीप

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
शामत, अंधेरों की, आनेवाली थी!
कुछ दीप जले, प्रण लेकर,
रौशन हुए, कुछ क्षण वो भभककर,
फिर, उनको बुझता देखा मैनें,
अंधेरी रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

कमी, आभा की थी?
या, गर्भ में दीप के, आशा कम थी?
बुझे दीप, यही प्रश्न देकर,
निरुत्तर था मैं, उन प्रश्नों को लेकर!
दृढ-स॔कल्प किया फिर उसने,
दीप्त दीपों को,
तिमिर से लड़ते देखा मैनें....

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

अलख, कहाँ थी....
इक-इक दीप में, विश्वास कहाँ थी!
संकल्प के कुछ कण लेकर,
भीष्म-प्रण लिए, बिना जलकर,
इक जंग लड़ते देखा मैनें,
तम की रातों को,
फिर से गहराते देखा मैनै...

कल ही दिवाली थी...
कल ही, जलते दीयों को बुझते देखा मैनें....

Wednesday 25 July 2018

वीरान बस्तियां

आशियाँ उजड़े, वीरान हुई ये बस्तियां,
है बस अनुत्तरित से कुछ अनसुलझे सवाल!

एक एक कर बुझते गए दीये सारे,
धूप, अंधेरों में हौले-हौले से घुलते गए,
किरणों में सिलते गए सैकड़ों मलाल,
आसमां पर आ बिखरे रंग गुलाल!

बस्तियों से दूर हो चले ये उजाले,
सांझ हुई या हैं ये गर्त अंधेरों के प्याले,
स्तब्ध खमोश हो चले सब सहचर,
सन्नाटों में चीख रहे ये निशाचर!

छल-छल करती पसरती ये रात,
पल-पल बोझिल होता ये सूना मंजर,
हर क्षण फैला है मरघट सा आलम,
बस्तियों में व्याप चुके हैं मातम!

अब शेष रह गए हैं कुछ सवाल,
और शेष बची हैं कुछ टूटी सी तस्वीरें,
उस रौशनी का है  बस  ख्याल भर,
शायद, वापस आएं वो मुड़कर!

आशियाँ उजड़े, वीरान हुई ये बस्तियां,
है बस अनुत्तरित से कुछ अनसुलझे सवाल!