Showing posts with label निर्झर. Show all posts
Showing posts with label निर्झर. Show all posts

Saturday 14 March 2020

अक्सर

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

निर्बाध, समय बह चलता है,
जीवन, कब रुकता है!
खो जाती हैं सारी बातें, कालचक्र पर,
पथ पर, रह-रह कर,
कसक कहीं, उठती है मन पर,
कह देनी थी, वो बातें,
रुक जाती थी जो आकर,
इन होंठों पर, 
अक्सर!

ठहरी सी, बातों के पंख लिए,
पखेरू, बस उड़ता है!
हँसता है वो, जीवन के इस छल पर,
रोता है, रह-रह कर,
मंडराता है, विराने से नभ पर,
कटती हैं, सूनी सी रातें, 
अनथक, करवट ले लेकर,
जीवन पथ पर, 
अक्सर!

कल-कल, बहता सा ये निर्झर,
रोके से, कब रुकता है!
फिसलन ही फिसलन, इस पथ पर,
नैनों में, बहते मंजर,
फिसलते हांथो से, वो अवसर,
देकर, यादों की सौगातें, 
चूमती हैं, आगोश में लेकर,
इन राहों पर,
अक्सर!

कुछ बातें, अक्सर!
आकर, रुक जाती हैं होठों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
...................................................
इसी क्रम में,  अगली रचना  "अक्सर, ये मन" पढ़ने हेतु यहाँ "अक्सर, ये मन"  पर क्लिक करे

Tuesday 19 February 2019

वो बोलती रही

वो बोलती रही, कल-कल झरता रहा झरना!

थी कुछ ऐसी, उसके स्वर की संरचना,
मुग्ध हुए थे सारे, स्तब्ध हुए तारे,
उस पल तो हम भी थे, खुद को हारे,
कोयल, भूल गई थी कूकना,
मुखर हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, कल-कल बहती रही रचना!

नव-पल्लव बन, पल्लवित हुए थे स्वर,
महुए की रस में, प्लावित वे स्वर,
उनकी अधरों पर, आच्छादित होकर,
स्वर, सीख रहे थे इठलाना,
सुघड़ हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, इठलाती बहती रही रचना!

मोहक है वो स्वर, उस कंठ है कलरव,
स्वर ने पाया, उस कंठ का वैभव,
डूबे आकण्ठ, उनकी जादू में खोकर,
स्वर, जान गई थी मुस्काना,
प्रखर हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, इतराती बहती रही रचना!

अब मचलकर, बोल उठे वो गूंगे स्वर,
सँवर कर, डोल रहे वो गूंगे स्वर,
झरने सी, कल-कल बहती मन पर,
स्वर ने था, जीवन को जाना,
जीवन्त हो चली , साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, कल-कल झरता रहा झरना!
जीती रही, साधारण सी अंकित रचना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
This poem has been Selected as FEATURED POST at INDIBLOGGER. Thanks to All. Regards.

Saturday 28 May 2016

लम्हों के विस्तार

निश्छल लम्हा, निष्ठुर लम्हा, यौवन लम्हों के साथ में...

हर लम्हा बीत रहा, इक लम्हे के इंतजार में,
हर लम्हा डूब रहा, उन लम्हों के ही विस्तार में,
आता लम्हा, जाता लम्हा, हर लम्हे के साथ में।

साँसे लेती ये लम्हा, बीते लम्हों की फरियाद में,
आह निकलती हर लम्हे से, उन लम्हों की याद में,
बीता लम्हा, खोया लम्हा, उन लम्हों के साथ में।

जीवन है हर लम्हा, बीता है जीवन इन लम्हों में,
हर पल बीतता लम्हा, खोया अपनों को इन लम्हों में,
रिश्ता लम्हा, नाता लम्हा, गुजरे लम्हों के साथ में।

हाथों से छूटा है लम्हा, लम्हे यादों सी सौगात में,
खुश्बू बन बिखरता लम्हा, हर लम्हा जीवन के साथ में,
हँसता लम्हा, हँसाता लम्हा, गम की लम्हों के बाद में।

वो पुकारता है लम्हा, लम्हा कहता है कानों में,
गुजरुँगा मैं तुझ संग ही, निर्झर सा तेरे संग विरानों में,
निश्छल लम्हा, निष्ठुर लम्हा, यौवन लम्हों के साथ में।

Wednesday 10 February 2016

विदाई के क्षण

छलकती हैं आँखों की देहरी पर नीर,
क्षण विदाई की घड़ियाँ के देती मन को चीर,
झरते हैं नैंनों से आँसू निर्झर सी रह रह,
नभ से झरते ओस की बूंदो की तरह।

क्षण अति कारुणामय होता है वह,
बिछड़ते मात, पिता, भाई बहन, बन्धु जब,
फफक फफक रो पड़ता हृदय तब,
देहरी बदल जाती जीवन की इस तरह।

विदाई नही सिर्फ एक जन की यह,
छूट जाते हैं रिश्ते, नाते, पड़ेसी, कुटुम्ब सब,
टीस दिलों की और बढ़ जाती तब,
नैन नीर अधीर हो बहती निर्झर की तरह।

रुके हुए शब्द

छलकते नैनों से बह गए हैं नीर निर्झर,
थरथराते लबों के शब्द गए हैं  निःशब्द,
ओस की बूंदों सी छलकी हैं नीर नीरव,
कहानी कोई अनकही रह गई है शायद।

झर झर निर्झर सी बह रही है अब आँखें,
खामोशियाँ की जुबाँ कह गई है सब बातें,
छलकते नीर शब्द बन गईं हैं अब लबों पे,
आह, दारुणिक कथा कितनी इन नैनों के।

रोक लेता कोई नीर, नैन छलकने से पहले,
निःशब्द को जुबाँ देता कोई कहने से पहले,
काँपते अधरों को शब्द दे जाता कोई पहले,
व्यथा कोई सुन लेता नैन छलकने से पहले।