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Monday 7 June 2021

वो कौन था

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

शायद दूर था, उसकी आशाओं का घर!
बांध रखी थी, उम्मीदों की गठरियाँ,
और, ये सफर, काँटों भरा....
राहों में, वो ही कहीं, अब गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद, धू-धू, सुलग रही थी, आग इक!
जल चुके थे, सारे सपनों के शहर,
और, धुँआ सा, उठता हुआ.....
उस धुँध में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

शायद था थका, हताश अब भी न था!
वो इक परिंदा, था उम्मीदों से बंधा,
और, नीलाभ, तकता हुआ....
आकाश में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!

वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 10 February 2019

छद्म-एहसास

छद्म-एहसास या इक विश्वास,
फिर कितने पास, ले आया है नीलाभ-नभ!

सीमा-विहीन शून्यता, अंतहीन आकाश,
नीलाभ सा, वो रिक्त आभास,
यहीं-कहीं तुम्हारे होने का, छद्म-एहसास,
शून्य सा, वो ही लम्हा,
खाली-खाली ही, पर भरा-भरा,
इक विश्वास, पास, ले आया है नीलाभ नभ!

ये दिशाएं बाहें फैलाए, कुछ कहना चाहे,
शून्य में, भटकती वो आवाज,
रंगमच पर, दृष्टिगोचर होते बजते साज,
छंद-युक्त, पर चुप-चुप,
थिरकता पल, पर ठहरा-ठहरा,
इक विश्वास, पास, ले आया है नीलाभ नभ!

हर सुबह ले आती है, ये छद्म-एहसास,
जब देखता हूँ, वो नील-आकाश,
किसी झील मे तैरते, श्वेत हंसो के सदृश,
श्वेताभ बादलों के पुंज,
क्षणिक ही, पर उम्मीद जरा-जरा,
इक विश्वास, पास, ले आया है नीलाभ नभ!

या छद्म-एहसास, ले आया है नीलाभ-नभ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 9 January 2019

छद्मविभोर

हर सांझ, मैं किरणों के तट पर,
लिख लेता हूँ, थोड़ा-थोड़ा सा तुझको.....

कहीं तुम्हारे होने का,
छद्म विभोर कराता एहसास,
और ये दूरी का,
विशाल-काय आकाश,
सीमा-विहीन सी शून्यता,
गहराती सी ये सांझ,
रिक्तता का देती है आभास,
गगन पर दूर,
कहीं मुस्काता है वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, सीमा-हीन इस तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....

पंछी से लेता हूँ कलरव
किरणों से ले लेता हूँ तुलिकाएँ,
छंद कोई गढ़ लेता हूँ,
तस्वीर अधूरी सी,
उभार लाती है ये सांझ,
सजग हो उठती है कल्पना,
दूर क्षितिज पर,
नीलाभ सा होता आकाश,
संग मुस्काता वो चाँद,
छद्मविभोर हो उठता है ये मन...

हर सांझ, नील गगन के तट पर,
लिख लेता हूँ, मैं थोड़ा-थोड़ा तुझको.....