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Sunday 11 April 2021

सफर

अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

जाना किधर, ये है किसको खबर,
कोई रह-गुजर, रोक ले, ये बाहें थामकर,
खोकर नेह में, रुक गए,
किसी की, स्नेह में, कहाँ झुक गए!
ये किसने जाना!

रोकती है राहें, छाँव, ये सर्द आहें,
पर जाना है मुझको, तू कितना भी चाहे,
भले हम, छाँव में सो गए,
यूँ कहीं ठहराव में, पल भर खो गए!
ये किसने जाना!

कोई पल न जाने, भिगो दे कहाँ, 
ये अँसुअन सी, नदी, ये बहता सा, शमाँ,
विह्वल, जो ये पल हो गए,
इक मझधार में, जाने कहाँ खो गए!
ये किसने जाना!
अंजान सी, राह ये, सफर अंजाना,
बस, चले जा रहे, बेखबर इन रास्तों पर,
दो घड़ी, कहाँ रुक गए!
कदम, दो चार पल, कहाँ थम गए!
ये किसने जाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 27 March 2021

चल, होली है, पागल!

चल, होली है, पागल!
यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....

नेह लिए प्राणों मे, दर्द लिए तानों में,
सहरा में, या विरानों में,
रंग लिए पैमानों में, फैला ले जरा आँचल,
चल, होली है, पागल!

यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....

आहट पर, हल्की सी घबराहट पर,
मन की, तरुणाहट पर,
मौसम की सिलवट पर, शमाँ जरा बदल,
चल, होली है, पागल!

यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....

विह्वल गीत लिए, अधूरा प्रीत लिए,
तन्हा सा, संगीत लिए,
विरह के रीत लिए, क्यूँ आँखें हैं सजल,
चल, होली है, पागल!

यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....

बरस जरा, यूँ ही मन को भरमाता,
बादल सा, लहराता,
इठलाता खुद पर, बस हो जा तू चंचल,
चल, होली है, पागल!

यूँ छेड़ न तू, तन्हा सा गजल.....
चल, होली है, पागल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 3 November 2019

पराई साँस

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

हूँ सफर में, साँसों के शहर में!
इक, पराए से घर में!
पराई साँस है, जिन्दगी के दो-पहर में!
चल रहा हूँ, जैसे बे-सहारा,
दो साँसों का मारा,
पर भला, कब कहा, मैंने इसे!
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

बुलाऊँ क्यूँ, उसको सफर में!
अंजाने, इस डगर में!
पराया देह है, क्यूँ परूँ मैं इस नेह में!
बंध दो पल का, ये हमारा,
दो पल का नजारा,
टोक कर, कब कहा, मैने उसे,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

चले वो, अपनी मर्जी के तले!
इक, अपनी ही धुन में!
अकारण प्रेम, पनपाता है वो मन में!
हूँ इस सफर का, मैं बंजारा,
दे रहा ये मौत पहरा,
इस प्रवाह को, मैने कब कहा,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 3 November 2017

स्नेह वृक्ष

बरस बीते, बीते अनगिनत पल कितने ही तेरे संग,
सदियाँ बीती, मौसम बदले........
अनदेखा सा कुछ अनवरत पाया है तुमसे,
हाँ ! ... हाँ! वो स्नेह ही है.....
बदला नही वो आज भी, बस बदला है स्नेह का रंग।

कभी चेहरे की शिकन से झलकता,
कभी नैनों की कोर से छलकता,
कभी मन की तड़प और संताप बन उभरता,
सुख में हँसी, दुख में विलाप करता,
मौसम बदले! पौध स्नेह का सदैव ही दिखा इक रंग ।

छूकर या फिर दूर ही रहकर!
अन्तर्मन के घेरे में मूक सायों सी सिमटकर,
हवाओं में इक एहसास सा बिखरकर,
साँसों मे खुश्बू सी बन कर,
स्नेह का आँचल लिए, सदा ही दिखती हो तुम संग।

अमूल्य, अनमोल है यह स्नेह तेरा,
दूँ तुझको मैं बदले में क्या? 
तेरा है सबकुछ, मेरा कुछ भी तो अब रहा ना मेरा,
इक मैं हूँ, समर्पित कण-कण तुझको,
भाव समर्पण के ना बदलेंगे, बदलते मौसम के संग।

है सौदा यह, नेह के लेन-देन का,
नेह निभाने में हो तुम माहिर,
स्नेह पात लुटा, वृक्ष विशाल बने तुम नेह का,
छाया देती है जो हरपल,
अक्षुण्ह स्नेह ये तेरा, क्या बदलेगा मौसम के संग?

Tuesday 9 August 2016

नेह ये कैसा?

नेह ये कैसा?

मासूम सा वो जिद्दी पतंगा,
कोमल पंख लिए लौ पर उड़ता फिरता,
नेह दिल में लिए दिए से कहता,
पनाह मे अपनी ले ले, जीवन के कुछ पल देता जा......

निरंकुश वो दिया है कैसा?
कहता पतंगे से, तू जिद क्युँ करता,
जीवन नहीं, यहाँ मौत है मिलता,
जीवन तू अपना दे दे, जीवन के कुछ पल लेता जा.....

धुन का पक्का पर वो पतंगा,
रंग सुनहरे अपनी निर्दयी दिए को देता,
प्रेम में ही जीता, प्रेम में ही मरता,
आहूति जीवन की देकर, जीवन के कुछ पल जीता....

दिया रोता तब अपने किए पर,
भभककर जल उठता अब रो रोकर,
बुझ जाता पतंगे संग जल जलकर,
कारिख पतंगो को देकर, निशानी नेह की उनको देता...

नेह ये कैसा?

Monday 25 July 2016

नेह चाहता स्नेह

नेह पल रहा मन में तुम स्नेह का इक स्पर्श दे दो.....

स्नेह अंकुरते हैं तेरी ही कोख में,
धानी चुनर सी रंगीली ओट में,
कजरारे नैनों संग मुस्काते होठ में....,

तड़पता है प्यासा नेह तुम स्नेह की बरसात दे दो....

नित रैन बसेरा तुम संग स्नेह का ,
आँगन तेरा ही है घर स्नेह का,
तेरी ही बोली तो बस भाषा स्नेह का....,

मूक बिलखता है नेह तुम स्नेह का मधु-स्वर दे दो.....

स्नेह उपजता है तेरे हाथों की स्पर्श से,
स्नेह छलकता तेरे नैनों की कोने से,
जा छुपता है स्नेह तेरी आँचल के नीचे.....,

बिन आँचल है मेरा नेह तुम स्नेह का आँचल दे दो.....

तेरे हृदय खिलती है स्नेह की फुलवारी,
मैने तो बस माँगा थोड़ा सा स्नेह,
नेह भरा ये मन चाहो तो बदले में ले लो....,

कुम्हलाया है मेरा नेह तुम स्नेह की ये बगिया दे दो....

Friday 29 January 2016

नेह निमंत्रण

हे प्रिय, तुम मेरे हृदय का नेह निमंत्रण ले लो!

मेरा हृदय ले लो तुम प्रीत मुझे दे दो,
स्वप्नमय नैनों में मुग्ध छवि सी बसो,
स्मृति पलकों के चिर सुख तुम बनो।

हे प्रिय, तुम मेरा प्रीत निवेदन सुन लो!

मैं पाँवो की तेरे लय गति बन जाऊँ,
प्राणों मे तुझको भर गीत बन गाऊँ
तेरी चंचल नैनों का नींद बन जाऊँ।

हे प्रिय, तुम नैन किरण आमंत्रण सुन लो!

तूम जीवन की नित उषा सम उतरो,
मेरी परछाई बन रजनी सम निखरो,
चिर जागृति की तू स्वप्न सम सँवरो।

हे प्रिय, तुम अधरों का गीत तो सुन लो!

मैं सृष्टि प्रलय तलक तेरा संग निभाऊँ,
तेरी अधरों का अमृत पीकर इठलाऊँ,
तुझ संग सृष्टि वीणा का राग दुहराऊँ।

हे प्रिय, मेरे भावुक हृदय का नेह निमंत्रण स्वीकारो!