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Thursday 2 February 2023

तुम या भ्रम


भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

अभी-अभी, इन लहरों में, तुम ही तो थे,
गुम थे हम, उन्हीं घेरों में,
पर, यूं लौट चले वो, छूकर मुझको,
ज्यूं, तुम कुछ कह जाते हो!

भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

रह जाती है, एकाकी सी तन्हा परछाईं,
और, आती-जाती, लहरें,
मध्य कहीं, सांसों में, इक एहसास,
ज्यूं, फरियाद लिए आते हों!

भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

अनायास बही, इक झौंके सी, पुरवाई,
खुश्बू, तेरी ही भर लाई,
कुहू-कुहू कूकते, लरजाते कोयल,
ज्यूं, मुझको पास बुलाते हों!

भ्रमित मुझे कर जाने को, तुम आते हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 22 October 2022

ले चला कौन

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

शायद, बरस चुके हैं, बादल!
बिखर चले हैं, घन,
इक शून्य सा है, अन्दर,
ले चला कौन,
उन बादलों से, वो भीगापन!

यूं, शब्द सारे, हो चले हैं गूंगे!
क्यूं, लबों को ढूंढें?
हैं पुकार सारे, बेअसर,
ले चला कौन,
मुखर शब्दों से, वो पैनापन!

बेनूर, बेरंग सी मेरी परछाईं,
संग, बची है, बस,
वे हंस रही मुँह फेरकर,
ले चला कौन,
इस परछाईं से, मेरी लगन!

अब कहां, आती है वो सदा!
रंग, नैनों से जुदा,
राह, खुद गए हैं मुकर,
ले चला कौन,
सदाओं से, वो दिवानापन!

बड़ा ही मौन, मन का वो भीनापन,
ले चला कौन!
वो, अपनत्व और अपनापन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 15 September 2022

शब की परछाईं


रैन ढ़ले, सब ढ़ल जाए,
शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

तमस भरा, आंचल,
रचता जाए, नैनों में काजल,
उभरता, तम सा बादल,
बाहें खोल, बुलाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

इक, अँधियारा पथ, 
और, ये सरपट दौड़ता रथ,
अन-हद अनबुझ कथ
यूं , कहता जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

जलते बुझते सपने,
ये हल्के, टिमटिम से गहने,
बोझिल सी पलकों पर,
कुछ लिख जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

जीवन्त, सार यही,
शब सा, इक संसार यही,
सौगातें, सपन सरीखी,
नैनों को दे जाए!

शब की, हल्की सी परछाईं, 
नैन तले, रह जाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 1 July 2022

बिन पूछे


मन मानस पर, छाई, इक परछाईं सी,
पलकों पर अंकित, धुंधलाई, इक तस्वीर,
जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

जैसे, बिन पूछे,
इक परदेसी, आ बैठा हो आंगन,
सूने से पर्वत पर, घिर आया हो घन,
बदली, ले आया हो सावन,
बूंदों की छमछम से, मन,
दीवाना सा.....

जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

कोई, क्या जाने,
हलचल, क्यूं , सागर के तट पर,
सदियों, इक खामोशी क्यूं पर्वत पर,
बूंदें, क्यूं उस बदली में गौन,
अन्तःमन, क्यूं इतना मौन,
बेगाना सा .....

जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

जाने, है कैसा,
अंजाने धागों का, यह गठबंधन,
पल-पल, अजीब सा इक आकर्षण,
परछाईं से, बढ़ता अपनापन,
हर ओर, गहराता सूनापन,
सुहाना सा .....

मन मानस पर, छाई, इक परछाईं सी,
पलकों पर अंकित, धुंधलाई, इक तस्वीर,
जेहन पर, गहराता, इक अक्स,
अंजाना सा.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 31 March 2022

ढ़ाई युग - एक यात्रा

ढ़ाई युग, ढ़ाहे हैं अब तक....
कुछ पन्थ बने, वो पन्ने अब ग्रन्थ बने,
लिखते-लिखते, कल तक!

देखता हूँ, अब, उसी पन्थ पर, 
पीछे, मुड़-मुड़ कर,
आ घेरती है मुझे, 
अपनी ही, व्यक्तित्व की गहरी परछाईं,
जो संग चला, संग-संग ढ़ला,
ढ़ाई युग तक!

परिप्रेक्ष्य ही, बदल चुके अब,
परछाईं सा, वो रब,
कहाँ विद्यमान में!
खाली कुछ पल, हो चले प्रभावशाली,
गहराते रहे, यूँ सांझ के साए,
अंधियारों तक!

छूटा, शेष कहीं, उन ग्रन्थों में,
फर-फराते, पन्नों पर,
जीवंतता खोकर,
व्यक्तित्व का, शायद, दूसरा ही पहलू,
उभरे ना, इक दूसरी परछाईं,
दूजे पन्नों तक!

मगर, इक शेष, खड़ा सामने,
लक्ष्य, हैं कई साधने,
वो युग के संबल,
संग खड़े, अनुभव के अक्षुण्ण पल,
और, कहीं साधक सी जिद,
पले प्राणों तक!

ढ़ाई युग, ढ़ाहे हैं अब तक....
यूँ युग और ढ़हें, नवपन्थ, नवग्रन्थ बनें,
लिखते-लिखते, कल तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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30.03.1992 से 30.03.2022
कुछ यादगार तस्वीरें और पड़ाव ....
Year 1992
Year 2022
Year 1992
Year 2022


Saturday 12 March 2022

समय से परे

गहन अनुभूतियों ने, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

किसकी परछाईं थी, जो दबे पांव आई थी!
चुप सी बातों में, कैसी गहराई थी?
जैसे, वियावान में, गूंज कोई लहराया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

संकोचवश, वो शायद कुछ कह ना पाए हों!
वो, दो पंखुड़ियां, खुल ना पाए हों!
अनियंत्रित पग ही, उन्हें खींच लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

अक्सर, उसकी ही बातें, अब करता है मन,
बिन मौसम, कैसा छाया है ये घन!
पतझड़ में, डाली फूलों से भर आया था,
न जाने, कौन यहां आया था! 

भ्रम मेरा ही होगा, सत्य ये हो नहीं सकता!
नहीं एक भी कारण, आकर्षण का,
शायद, बावरे इस मन ने ही भरमाया था, 
न जाने, कौन यहां आया था!

पर हूँ वहीं, अब भी, लिए वही अनुभूतियां,
पल सारे, अब भी, कंपित हैं जहां,
सीमाओं से परे, समय जिधर लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

गहन अनुभूतियों नें, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 10 December 2021

रूठ चला साया

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रही बैठी, संग-संग ठहरी, भर दोपहरी, 
कुछ वो चुप, कुछ हम गुमसुम,
क्षण सारा, बीत चला,
असमंजस में, ये सांझ ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

रिक्त ढ़ले, इक दुविधा में सारे ही क्षण,
हरजाई सी, अपनी ही परछाईं,
मेरे ही, काम न आई,
एकाकी, ये दिन रात ढ़ला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

शब्द-विहीन ये पल, अर्थ-हीन कितने,
वाणी बिन तरसे, शब्द घुमरते,
रह गए होंठ, सिले से,
ये तन, सायों से ऊब चला!

छूट चला, तन से, तन का साया,
उस ओर कहीं, रूठ चला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 21 July 2021

धुंधलाते राह

धुंधलाते राहों पर, आ न सके तुम,
ओझल थे हम, गुम थे तुम!

वैसे, कौन भला, धुँधली सी राह चला,
जब, उजली सी, किरणों ने छला,
भरोसा, उन धुँधलाते सायों पर क्या!
इक धुंधलाते, काया थे हम,
गुम होती, परछाईं तुम!

तुम से मिलकर, इक उम्मीद जगी थी,
धुंधली राहों पर, आस जगी थी,
पर बोझिल थे पल, होना था ओझल!
धूँध भरे इक, बादल थे हम,
इक भींगी, मौसम तुम!

अब भी पथराई आँखें, तकती हैं राहें,
धुंधलाऐ से पथ में, फैलाए बाहें, 
धुंधला सा इक सपना, बस है अपना!
उन सपनों में, खोए से हम,
और अधूरा, स्वप्न तुम!

धुंधलाते राहों पर, आ न सके तुम,
ओझल थे हम, गुम थे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 27 June 2020

उम्मीद

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

डगमगाया सा, समर्पण,
टूटती निष्ठा,
द्वन्द की भँवर में, डूबे क्षण,
निराधार भय,
गहराती आशंकाओं,
के मध्य!
पनपता, एक विश्वास,
कि तुम हो,
और, लौट आओगे,
जैसे कि ये,
सावन!

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

क्षीण होती, परछाईंयाँ,
डूबते सूरज,
दूर होते, रौशनी के किनारे,
तुम्हारे जाने,
फिर, लौट न आने,
के मध्य!
छूटता हुआ, भरोसा,
बोझिल मन,
और ढ़लती हुई,
उम्मीद की,
किरण!

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

गहराते, रातों के साए,
डूबता मन,
सहमा सा, धड़कता हृदय,
अंजाना डर,
बढ़ती, ना-उम्मीदों,
के मध्य!
छूटता हुआ, विश्वास,
टूटता आस,
और मोम सरीखा,
पिघलता सा,
नयन!

उम्मीद!
इक यही तो, होती जा रही थी कम!
जो, न थे तुम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 24 April 2020

भ्रम

यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

बहते कहाँ, बहावों संग, तीर कहीं,
रह जाती सह-सह, पीर वहीं,
ऐ अधीर मन, तू रख धीर वही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

तूफाँ हैं दो पल के, खुद बह जाएंगे,
बहती सी है ये धारा, कब तक रुक पाएंगे,
परछाईं हैं ये, हाथों में कब आएंगे,
ये आते-जाते से, साए हैं घन के,
छाया, कब तक ये दे पाएंगे?
इक भ्रम है, मिथ्या है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

गर चाहोगे, तो प्यास जगेगी मन में,
गर देखोगे, परछाईं ही उभरेगी दर्पण में,
बुन जाएंगे जाले, ये भ्रम जीवन में,
उलझाएंगे ही, ये धागे मिथ्या में,
सुख, कब तक ये दे पाएंगे?
इक छल है, तृष्णा है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

पिघले-पिघले हो, मन में नीर सही,
अनवरत उठते हों, पीर कहीं,
भींगे-भींगे हों, मन के तीर सही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 8 April 2020

बुनता हूँ परछाईं

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

थोड़े से हैं बादल, शायद, छँट जाएंगे,
रुकते-चलते, इस भ्रम में,
परछाईं से, हम अपनी, मिल पाएंगे,
शायद, वो मिथ्या ही हो!
पर, उसमें, सत्य का भान, जरा तो होगा,
उस परछाईं में,
इक अक्स, मेरा तो होगा!
सो, जगता हूँ, चल पड़ता हूँ!
बुनता हूँ, परछाईं!

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

जीती है, इक चाहत, भ्रम में है राहत,
वो भ्रम है, या कि हम हैं!
बनते-बिखरते से, पलते हैं वो स्वप्न,
शायद, जागी आँखों में!
पर, चंचल पलकों को, रुकना तो होगा,
उस गहराई में,
ये जीवन, मेरा भी होगा!
सो, उठता हूँ, चल पड़ता हूँ!
बुनता हूँ, परछाईं!

बदली सी, है छाई,
चलता-रुकता हूँ, कोशिश करता हूँ!
बुन लूँ, परछाईं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 9 March 2020

मेरी परछाईं

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

बीती, जब जीवन की अमराई,
मंद पड़ी, जब जीवन की जुन्हाई,
पास कहीं ना, वो दिखती थी,
शायद, वो थी अब घबराई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

शायद वो थी, बस इक हरजाई!
कदमों की लय पर, वो चलती थी,
धूप ढ़ले, बस वो भी ढ़लती थी,
इन, बाहों में, कब आई?

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

ता-उम्र, साथ रही मेरी परछाईं,
थी फिर भी, मेरे हिस्से ही तन्हाई,
गुमसुम, बस चुप वो रहती थी,
पीड़ मेरी, वो पढ़ ना पाई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

मुझ बिन, कैसे झेलेगी तन्हाई?
कौन कहेगा, चल ऐ मेरी परछाई,
पीड़ वही, अब वो भी झेलेगी,
कल तक, थी जो इतराई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 20 February 2020

आर-पार

यूँ हर घड़ी, मैं, किसकी बात करूँ!
क्यूँ मैं, उसी की बात करूँ?

हूँ मैं इस पार, या हूँ मैं उस पार,
जैसे दर्पण क़ोई, करे खुद का ही दीदार,
क्यूँ ना, मैं इन्कार करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

यूँ बूँद कोई, कभी छलक आए,
चले पवन कोई, बहा दूर कहीं ले जाए,
बहकी, कोई बात करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

हुई ओझल, कहीं तस्वीर कोई,
रंग ख्यालों में लिए, बनाऊं ताबीर कोई,
अजनबी, कोई रंग भरूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

निहारूँ राह वही, यूँ अपलक,
वो सूना सा फलक, कोई ना दूर तलक,
यूँ बेखुदी में, जाम भरूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!

हूँ मैं इस पार, या हूँ मैं उस पार,
है परछाईं कोई, या वो कल्पना साकार,
यूँ मैं क्यूँ, इंतजार करूँ!

यूँ हर घड़ी, मैं, उसी की बात करूँ!
क्यूँ मैं, उसी की बात करूँ?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 3 November 2019

प्यास

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

घूँट, कितनी ही पी गया मैं!
प्यासा! फिर भी, कितना रह गया मैं!
तृप्त, क्यूँ न होता, ये मन कभी?
अतृप्ति! ये कैसी रही?
मन की प्यास, क्यूँ वैसी ही रही?
कुछ है, जो पानी में नहीं!
ढूंढ़ता है, मन वही!
पानी के किनारे, हम थे पानी के सहारे,
पर भटक रहे हम, प्यास के मारे,
है पानी में, इक परछाईं मेरी,
हूँ मैं, परछाईं से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

यूँ तो, संभलता रह गया मैं!
पी कर! थोड़ा, बहलता रह गया मैं!
मशगूल, रहकर दुनियाँ में कहीं!
भूला, सत्य को मैं कहीं!
गूंज मन की, दबाए खुद में कहीं!
करता ही रहा मैं, अनसुनी,
सुनता है, मन वही!
दरिया किनारे, कलकल बहते हैं धारे,
रेत ये सूखे से, हैं दरिया किनारे,
इस प्यास में है, रानाई मेरी,
हूँ मैं, रानाई से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 4 August 2019

परछाईं तेरी

वो तुम थे, या थी बस परछाईं तेरी,
थी खुश्बू कोई, जिनसे मिलती थी तन्हाई मेरी,
महक उठता था, चमन, वो गुलशन सारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

इक हमसाए सी रही, परछाईं तेरी,
इक धुंध सी थी, भटकती थी जहाँ तन्हाई मेरी,
धुआँ-धुआँ सा हुआ, था वो आलम सारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

थे धुंध के पहरे, या थी जुल्फें तेरी,
उलझते थे वो बादल, या उलझती थी लटें तेरी,
यूं वादियों से कहीं, था तन्हाई ने पुकारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

हैरां कर गई, चुप सी वो बातें तेरी,
तन्हाईयों से हुई, वो लम्बी सी मुलाकातें मेरी,
ढूंढता हूँ अब, उन्ही लम्हातों का सहारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

दूर जाती रही, मुझसे परछाईं तेरी,
यूँ  सताती रही, पास आकर वही तन्हाई मेरी,
गुजरा न वो पल, बेरहम वो वक्त ठहरा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा