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Sunday 4 April 2021

अश्क जितने

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में,
बंध न पाएंगे, परिधि में!

बन के इक लहर, छलक आते हैं ये अक्सर,
तोड़ कर बंध,
अनवरत, बह जाते है,
इन्हीं, दो नैनों में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में..

हो कोई बात, या यूँ ही बहके हों ये जज्बात, 
डूब कर संग,
अश्कों में, डुबो जाते हैं,
पल, दो पल में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...

कब छलक जाएँ, भड़के, और मचल जाएँ,
बहा कर संग,
कहीं दूर, लिए जाते है,
सूने से, आंगण में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...

रोके, ये रुके ना, बन्द पलकों में, ये छुपे ना,
कह कर छंद,
पलकों तले, कुछ गाते हैं,
खुशी के, क्षण में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...

जज्बात कई, अश्कों से भरे ये सौगात वही,
भिगो कर संग,
अलकों तले, छुप जाते हैं,
गमों के, पल में!

अश्क जितने, इन नैनों की निधि में...
बंध न पाएंगे, परिधि में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 23 December 2017

हजारदास्ताँ

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

छलक आते हैं, अक्सर जो दो नैनों में,
बांध तोड़कर बह जाते हैं,
जलप्रपात ये, मन को शीतल कर जाते हैं,
अपरिमित निरन्तर प्रवाह ये, 
प्रेम की बरसात ये, क्या बंधेगे परिधि में........

जल उठते हैं, जो गम की आँधी में भी,
शीतल प्रकाश कर जाते हैं,
दावानल ये, गम भी जिसमें जल जाते हैं,
बिंबित चकाचौंध प्रकाश ये,
झिलमिल आकाश ये, क्या बंधेगे परिधि में........

सहला जाते है, जो स्नेहिल स्पर्श देकर,
पीड़ मन की हर जाते हैं,
लम्हात ये, हजारदास्ताँ ये कह जाते हैं,
कोई मखमली एहसास ये,
अपरिमित विश्वास ये, क्या बंधेगे परिधि में........

अपरिमित प्रेम तुम्हारा, क्या बंधेगे परिधि में......

Wednesday 23 December 2015

उड़ान: परिधियों के दायरे

परिधियों के दायरे

परिधियों मे संकुचित जीवन आदर्श,
परिधियों मे संकुचित उमरता विचार,
पर मानव व्यक्तित्व भरता कुलांचे,
जीवन्त सोच भरती नित नई उड़ान,
कुछ नया कर जाने को।

चाहूँ तोड़ना परिधियों के दायरे,
कर सकूँ स्थापित एक नया आदर्श,
जहां विचार हों स्वतंत्र उमरने को,
विश्व कल्याण हेतु कुछ करने को,
दिशा नई दिखा जाने को।

दायरे हों इतने विशाल,
पंख हो इनके इतने विस्तृत,
समाहित हो जाएं इनमें जनाकांक्षा,
विचार ले सके खुल के श्वाँस,
मंजिल नई पा जाने को।

धर्म, जाति, कुल, वंश का न रहे कोई भेद,
परिधियों के परे हो मेरी पहचान,
विश्व कल्यान हों जिनका आदर्श,
परिधि खुद हो सके विस्तृत,
समय के साथ बढ़ जाने को।