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Friday 10 December 2021

रिक्त क्षणों का क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

कंपन, गुंजन, खनखन, बस कहने को हैं,
कलकल, छलछल, ये पल,
बहती ये नदियां, बस बहने को हैं,
सिक्त हुईं, फिर छलक पड़ी, दो आँखें,
उन धारों के, पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

तट पे आकर, टकरातीं सागर की लहरें,
शायद, आती हैं ये कहने,
विचलन, सागर की, बढ़ने को हैं,
सिमट चुकी, कितनी ही नदियां उनमें,
उस पानी के, पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

रिम-झिम-रिम-झिम, बारिश होने को है,
भीगेंगे, सूखे ये सारे कण,
ये उद्विगनता, अब बढ़ने को है,
फिर लौट पड़ेंगे, लहराते बादल सारे, 
उन बौछारों के पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

यूं अग्नि का जलना, मौसम का छलना,
यूं रुत संग रंग बदलना,
ये फितरत, जारी सदियों से है,
रात ढ़ले, जब ढ़ल जाते ये सारे तारे,
उन तारों के, पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 9 January 2021

विचलन

आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!

यूँ लगता है, जैसे!
शायद, अछूता ही था, 
अब तक मैं!
जबकि, कितनी बार,
यूँ, छूकर गुजरी थी मुझको,
ख्यालों की आहट!
बदलते मौसम की मर्माहट,
ये ठंढ़क, ये गर्माहट,
बारिश की बूँदें!

यूँ, भींगा था तन!
पर, रीता ना अन्तर्मन!
अछूता सा,
कैसा है, ये विचलन!
कैसी है, ये करुण पुकार!
किसकी है आहट?
यूँ अन्तर्मन क्यूँ है मर्माहत?
क्यूँ देती नही राहत!
बारिश की बूँदें!

क्यूँ रहता, बेमानी!
भीगी, पलकों का पानी,
प्यासा सा!
रेतीला, इक मरुदेश!
और, विहँसता नागफनी!
पलता इक द्वन्द!
पल-पल, सुलगती गर्माहट,
इक चिल-चिलाहट,
विचलन, मन की घबराहट,
क्या, बुझाएंगी प्यास?
बारिश की बूँदें!

आज, जरा विचलित है मन....
बिन छूए, कोई छू गया मेरा अन्तर्मन!
या ये है, अन्तर्मन की प्रतिस्पर्धा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 12 April 2020

प्यासा

इतना, छलका-छलका सा!
हैरान हूँ मैं, ये सागर भी है प्यासा!
यूँ ही, भटका-भटका सा!
इन हवाओं को भी,
इक मंद समीर, की है आशा!

ऐ सागर, ऐ समीर!
तू खुद है पूर्ण,
फिर तू, इतना क्यूँ है अधीर?

अथाह हो तुम, लेकिन तुझमें है चंचलता,
अस्थिर, कितना मन तेरा!
कितना चाहे, मन, तेरा क्यूँ इतना चाहे?
अपरिमित सी, तेरी इक्षाएँ,
दूर वही भटकाए!

लालशा ये तेरी, लेकर आई है अपूर्णता,
अतृप्त, कितना मन तेरा!
कैसी चाहत? क्यूँ तुझको, नहीं राहत?
पल-पल, तेरी ये लिप्शाएं,
तुझको छल जाए!

ऐ सागर, ऐ समीर!
ना हो अधीर!

तुझ तक, चल कर,
खुद आई, कितनी ही नदियाँ, 
खुद आए, पवन झकोरे,
थे, ये सारे,
इक्षाओं, लिप्साओं से परे,
तुझमें ही खोए!

इतना, हलका-हलका सा,
जीवन हूँ मैं, ले जा जीने की आशा!
क्यूँ है, प्यासा-प्यासा सा?
है, इस जीवन को भी,
इक मंद सलील, की ही आशा!

-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
 (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 17 January 2020

एक दर्द

चल पड़ी, बादलों से, बिछड़ कर,
चल ना सकी, वो इक पल सम्भल कर,
बूँदें कई, गिरी थी बदन पर,
गम ही सुना कर गई, बारिश का पानी!

छुपी बादलों में, रुकी काजलों में,
सिसकती सी रही, भीगे से आँचलों में,
रही कैद, मन में उतर कर,
वो भिगोती रही नैन, बारिश का पानी!

रही गीत गाती, कोई वो रात भर,
विरह सुनाती गई, अपनी वो रात भर,
गम में डूबे, भीगे वे स्वर,
कोई दर्द दे कर गई, बारिश का पानी!

प्यास कैसी, रह गई है अंजानी!
झूमकर, झमा-झम, बरसा ये बादल,
तरसा है, फिर भी ये मन,
यूँ गुजरा है छूकर, बारिश का पानी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 3 November 2019

प्यास

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

घूँट, कितनी ही पी गया मैं!
प्यासा! फिर भी, कितना रह गया मैं!
तृप्त, क्यूँ न होता, ये मन कभी?
अतृप्ति! ये कैसी रही?
मन की प्यास, क्यूँ वैसी ही रही?
कुछ है, जो पानी में नहीं!
ढूंढ़ता है, मन वही!
पानी के किनारे, हम थे पानी के सहारे,
पर भटक रहे हम, प्यास के मारे,
है पानी में, इक परछाईं मेरी,
हूँ मैं, परछाईं से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

यूँ तो, संभलता रह गया मैं!
पी कर! थोड़ा, बहलता रह गया मैं!
मशगूल, रहकर दुनियाँ में कहीं!
भूला, सत्य को मैं कहीं!
गूंज मन की, दबाए खुद में कहीं!
करता ही रहा मैं, अनसुनी,
सुनता है, मन वही!
दरिया किनारे, कलकल बहते हैं धारे,
रेत ये सूखे से, हैं दरिया किनारे,
इस प्यास में है, रानाई मेरी,
हूँ मैं, रानाई से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 25 October 2019

अवधूत

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

रहता हम में ही कहीं, इक अवधूत,
बिंदु सा, लघु-कण रुपी, पर सत्याकार,
इक आधार, काम-वासना से वो परे,
अवलम्बित ये जीवन, है उस पर,
प्रतिबिम्ब भी नहीं, महज हम उसके,
पर, सहज है वो, हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

वो ना दु:ख से विचलित, इक पल,
ना ही सुख की चाहत, रखता इक पल,
हम तो पकड़े बैठे, पानी के बुलबुले,
फूटे जो, हाथों में आने से पहले,
देते भ्रम हमको, ये आते-जाते क्रम,
पर, इनसे परे, वो हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

मोह का, अंधियारा सा कोई दौड़,
मृग-मरीचिका, जिस का न कोई ठौर,
दौड़ते हम, फिर गिर कर बार-बार,
इक हार-जीत, लगता ये संसार,
बिंदुकण रुपी, लेकिन वो सत्याकार,
स्थिर सर्वदा, वो हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

तारों सा टिम-टिमाता, वो दीया,
जीवनपथ अंधियारों में, फिर भी रहा,
सत्य ही दिखलाया, उसने हर बार,
करते रहे, बस हम ही, इन्कार,
समक्ष खड़ा, है अब ये गहण अंधेरा,
इक प्रकाश, वो हम में ही कहीं!

अवधूत है इक, मुझ से परे, मुझ में ही कहीं!
रमता हूँ मैं, खुद से परे, खुद में ही कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 24 May 2018

कहीं यूं ही

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

जा सावन ले आ, जा पर्वत से टकरा,
या बन जा घटा, नभ पर लहरा,
तेरे चलने में ही तेरा यौवन है,
यह यौवन तेरा कितना मनभावन है,
निष्प्राणों में प्राण तू फूंक यूं ही......

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

जा सागर से मिल, जा तू बूंदे भर ला,
प्यासी है ये नदियां, दो घूंट पिला,
सूखे झरनों को नव यौवन दे,
तप्त शिलाओं को सिक्त बूंदों से सहला,
बहता चल तू मौजों के साथ यूं ही....

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

या घटा घनघोर बन, या चित बहला,
कलियों से मिल, ये फूल खिला,
खेतों की इन गलियो से मिल,
सूखे फसलों को ये रस यौवन के पिला,
जीवन में जान जरा तू फूंक यूं ही.....

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

या बाहों में सिमट, आ मन को सहला,
सजनी की आँखों में ख्वाब जगा,
आँचल बन मन पर लहरा,
निराशा हर, आशा के कोई फूल खिला,
आँखों में सपने तू देता जा यूं ही....

ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!

Saturday 7 May 2016

पानी हूँ मैं

पानी हूँ मैं, बस बहता रहता हूँ ममत्व की सतह पर......

पानी सा निर्मल मैं, पानी सा ही मेरा स्वभाव,
बह जाता हूँ पानी जैसा ही, किसी हृदय की आंगन पर,
कुछ पल ठहर जाता हूँ किसी मन की गहरी झील में,
फिर चल पड़ता हूँ मैं, उस शान्त सागर की ओर....

पानी हूँ मैं, बस बहता रहता हूँ ममत्व की सतह पर......

अंश हूँ मैं हिमशिला का, ठंढ़ी-ठंढ़ी जिसकी काया,
चिरकाल से मै मानव मन की जलन ही मिटाता आया,
समेट लेता हूँ खुद में हीै, मैं वर्जनाएँ सारी वसुधा की,
फिर चल पड़ता हूँ मैं, उस शान्त सागर की ओर....

पानी हूँ मैं, बस बहता रहता हूँ ममत्व की सतह पर......

वसुन्धरा के ये झुलसते कण, बस मेरे ही हैं प्यासे,
सृष्टि की हर अतृप्त रचना, बस मेरी ओर ही झांके,
तृप्त हो लेता हूँ मै भी, उनकी उर कंठ-हिय में जाके,
फिर चल पड़ता हूँ मैं, उस शान्त सागर की ओर....

पानी हूँ मैं, बस बहता रहता हूँ ममत्व की सतह पर......

Wednesday 17 February 2016

पानी की लकीरों से कब तकदीर बनता है!

जीवन के चलने में खुद जीवन ही घिसता है,
घिस घिस कर ही पत्थर नायाब हीरा बनता है,
पिट पिट कर ही साज मधुर धुनों में बजता हैं।

सभ्यता महान बनने में एक-एक युग कटता है,
बूंद-बूंद जल मिलकर ही सागर अपार बनता है,
पल-पल खुद में जलकर समय अनन्त बनता है।

कूट-कूट कर ही पत्थर शिलालेख बनता है,
तिल तिल जलकर मोम रौशन चराग बनता है,
पानी की लकीरों से कब कहाँ तकदीर बनता है?

जीवन के चलने मे खुद जीवन ही घिसता है।