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Saturday 24 April 2021

टूटता पुरुष दंभ

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

पर तुम थे, बस, दो बातों के भूखे,
स्नेह भरे, दो प्यालों के प्यासे,
आसां था कितना, तुझको अपनाना,
तेरे उर की, तह तक जाना,
कुछ भान हुआ, अब यह मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

दो शब्दों पे ही, तुम खुद को हारे,
निज को भूले, संग हमारे,
था स्वीकार तुझे, निःस्वार्थ समर्पण, 
पुरुष दंभ पर, स्व-अर्पण,
एहसास हो चला, अब ये मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

उर पर, अधिकार कर चले तुम,
हार चले, यूँ पल में हम,
दंभ पुरुष का, यूँ ही शीशे सा टूटा,
मन, कब हाथों से छूटा,
अब तक, भान हुआ ना मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

रिश्तों का, अजूबा यह व्यापार,
कुछ किश्तों में ही तैयार,
इक बंध, अनोखा जीवन भर का,
इक आंगन, दो उर का,
शेष है क्या, भान कहाँ मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 24 December 2017

अपरुष पुरुष

अपरुष हैं जो, सर्वथा है पुरुषत्व वही,
है पुरुष वही, है पुरुषोत्तम वही....

कदापि! वो पुरुष नही, वो पुरुषत्व नहीं, जो........

निर्बल अबला का संघार करे,
बाहु पर, दंभ हजार भरे,
परुष बने, निर्मम अत्याचार करे,
सत्तासुख ले, व्यभिचार करे,
निज अवगुण ढ़ोए, दुराचार करे.....

कदापि! है वो पुरुषत्व नहीं,
वो पुरुष नहीं, वो पुरुषोत्तम नहीं....

अपरुष हैं जो, सर्वथा है पुरुषत्व वही,
है पुरुष वही, है पुरुषोत्तम वही....

सहनशील, सौम्य, काम्य, अपरुष,
मृदु, कोमल, क्रोध-रहित, बेवजह खुश,
है उत्तम वही, वही है पुरुष.....

साहस की वो निष्काम प्रतिमूर्ति,
सत्य के संघर्ष में दे देते हैं जो आहूति,
है नीलकंठ वो, वही है पुरुष....

सुशील, नम्र, स्त्रियोचित्त आचरण,
विपदा घड़ी बनते जो नारी के आवरण,
हैं पुरुषोत्तम वो, वही है पुरुष.....

धीर, गंभीर, स्थिर-चित्त, अपरुष,
मृदुल, उत्कंठ, काम-रहित, निष्कलुष,
है नरोत्तम वही, वही है नहुष.....

अपरुष हैं जो, सर्वथा है पुरुषत्व वही,
है पुरुष वही, है पुरुषोत्तम वही....
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अपरुष
1. जिसमें परुषता या कठोरता न हो; सहृद्य 2. कोमलमृदुल 3. क्रोध-रहित।

Thursday 28 January 2016

पुरुष हूँ रखता हूँ पुरुषार्थ

पुरुष हूँ रखता हूँ पुरुषार्थ,
पुरुषोत्तम हूँ निभाता हूँ अपना धर्म,
भरम वादा का मैं तोड़ सकता नही,
ढूँढ लेना मुझे जीवन के उस मोड़ पर कहीं।

पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाऊंगा अपना धर्म सभी।

मिलना तुम उस मोड़ पे जीवन के वहाँ,
राहें उम्मीदों के सारे छूट जाते हैं जहाँ,
सूझता नही जब कुछ हाथों को,
आँखें की पुतलियाँ भी थक जाती हैं जहाँ।

पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाऊंगा अपना धर्म वहाँ।

इन्तजार करता मिलूँगा तुमको वहीं,
राहे तमाम गुजरती हो चाहे कही,
शिथिल पड़ जाएं चाहें सारी नसें मेरी,
दामन छूटे सासों का या लहु प्रवाह थक जाए मेरी।

पुरुष हूँ, पुरुषोत्तम हूँ निभाता हूँ अपना धर्म सभी।