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Sunday 2 January 2022

अनुगूंज

रह-रह कर, झकझोरती रही, इक अनुगूंज,
लौटकर, आती रही इक प्रतिध्वनि, 
शायद, जीवित थी, कहीं एक प्रत्याशा,
किसी के, पुनः अनुगमन की आशा!

पर कैसा, ये गूंजन! कैसा, ह्रदय का कंपन,
असह्य हो रहा, क्यूं ये अनुगूंजन?
शायद, टूट रही थी, झूठी सी प्रत्याशा,
किसी कंपित मन की थी वो भाषा!

युग बीते, वर्षो बीते, अंबर रीते, वो न आए,
हर आहट पर, इक मन, भरमाए,
रूठा, उससे ही, उसका भाग्य जरा सा,
इक बदली, सावन में ज्यूं ठहरा सा!

यूं, बीच भंवर, बहती नैय्या, ना छोड़े कोई,
यूं, विश्वास, कभी, ना तोड़े कोई,
होता है, भंगूर बड़ा ही, मन का शीशा,
पल में चकनाचूर होता है ये शीशा!

टूटकर, इक पर्वत को भी, ढ़हता सा पाया,
जब, अंतःकरण जरा डगमगाया,
असंख्य खंड, कर दे, कम्पन थोड़ा सा,
दे दर्द असह्य, ये चुभन हल्का सा!

पल-पल, झकझोरती उसकी ही अनुगूंज,
पग-पग, टोकती वही प्रतिध्वनि,
सुन ओ पथिक, जरा समझ वो भाषा,
कर दे पूरी, उस मन की प्रत्याशा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 5 December 2016

प्रत्याशा

बस है उसे इक प्रत्युत्तर की आशा,
लेकिन गहराती रही हर पल उस मन में इक निराशा,
हताश है अब वो मन और हतप्रभ जरा सा...

सुबहो-शाम आती है जब कोई आवाज,
प्रतिध्वनि जब कोई, मन पर दे जाती है दस्तक,
जाग पड़ती है उस मन की सोई सी प्रत्याशा,
चौंक उठता है वो, मन मे लिए इक झूठी सी आशा...

उसे बहुत देर तक, दी थी उसने आवाज,
सूखे थे कंठ हलक तक, रहा पुकारता वो अंत तक,
भौचक्की आँखों से अब निहारता आकाश,
लेकिन छूट चुका है धीरज, टूट चुकी है अब आशा.....

पहुँच ना सकी वो ध्वनी, उन कानों तक,
या थिरकते लब उसके शायद कर न सकी थी बातें,
या रह गई थी अनसुनी उसकी शिकायतें,
लेकिन है उस मन में, अब भी इक अटूट भरोसा....

बस है उसे अब भी, इक प्रत्युत्तर की आशा,
भले गहराती रहे कितनी उस मन में पलती निराशा,
बस है वो मन हताश थोड़ा और हतप्रभ जरा सा...