जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Sunday 4 July 2021
आशियाँ
Saturday 5 June 2021
मुझे क्या!
Sunday 11 October 2020
जिद्दी जमीं
Tuesday 2 October 2018
शायद तुम आए थे!
महक उठी है, कचनार सी,
मदहोश नशे में, झूम रहे हैं गुंचे,
खिल रही, कली जूही की,
नृत्य नाद कर रहे, नभ पर वो भँवरे,
क्या तुम ही आए थे?
चल रही है, पवन बासंती,
गीत अजूबा, गा रही वो कोयल,
तम में, घुल रही चाँदनी,
अदभुत छटा लेकर, निखरा है नभ,
शायद तुम ही आए थे?
ये हवाएँ, ऐसी सर्द ना थी!
ये दिशाएँ, जरा भी जर्द ना थी!
ये संदेशे तेरा ही लाई है,
छूकर तुमको ही,आई ये पुरवाई है,
बोलो ना तुम आए थे?
कह भी दो, ये राज है क्या!
ये बिन बादल, बरसात है क्या!
क्यूँ मौसम ने रंग बदले,
सातो रंग, क्यूँ अंबर पर है बिखरे?
कहो ना तुम ही आए थे!
चाह जगी है, फिर जीने की,
अभिलाषा है, फिर रस पीने की,
उत्कंठा एक ही मन में,
प्राण फूंक गया, कोई निष्प्राणो में!
हाँ, हाँ, तुम ही आए थे!
शायद तुम आए थे? हाँ, तुम ही आए थे!
Friday 22 June 2018
कोरा अनुबंध
अनुबंधों से परे ये कैसा है बंधन!
हर पल इक बंधन में रहता है ये मन!
किन धागों से है बंधा ये बंधन!
दो साँसों का अनबुझ सा ये अनुबंध!
जज्बातों की इक जंजीर है कोई!
या कोरे मन पर खिंची लकीर है कोई!
मीठी-मीठी सी ये पीर है कोई!
दो भावों का अनबुझ सा ये अनुबंध!
या हवाओं में लिखे कुछ अल्फाज!
सदियों तक कानों में गूंजती आवाज!
बीते से पल में डूबा सा आज!
दो लम्हों का अनबुझ सा ये अनुबंध!
या विरह में व्याकुल होते ये प्राण!
बस जाती इक तोते में कैसे ये जान!
अंजाने को अपनाता इंसान!
दो प्राणों का अनबुझ सा ये अनुबंध!
कैसी ये संविदा? कैसा यह कोरा अनुबंध?
Thursday 24 May 2018
कहीं यूं ही
जा सावन ले आ, जा पर्वत से टकरा,
या बन जा घटा, नभ पर लहरा,
तेरे चलने में ही तेरा यौवन है,
यह यौवन तेरा कितना मनभावन है,
निष्प्राणों में प्राण तू फूंक यूं ही......
ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!
जा सागर से मिल, जा तू बूंदे भर ला,
प्यासी है ये नदियां, दो घूंट पिला,
सूखे झरनों को नव यौवन दे,
तप्त शिलाओं को सिक्त बूंदों से सहला,
बहता चल तू मौजों के साथ यूं ही....
ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!
या घटा घनघोर बन, या चित बहला,
कलियों से मिल, ये फूल खिला,
खेतों की इन गलियो से मिल,
सूखे फसलों को ये रस यौवन के पिला,
जीवन में जान जरा तू फूंक यूं ही.....
ऐ मेघ, किसी देश कहीं तू चलता चल यूं ही!
Friday 12 August 2016
रुकी सी प्रहर
अवरुद्ध हुए प्राणों के अारोह,
अवरोह ये कैसी आई इस जीवन की,
रुकी है क्युँ सुरमई सी वो लय?
रुकी है संगीत, रुके हैं गीत मन के हलचल की....,
रुकी सी लहर, रुकी सी गर्जन इस सागर की.....
कंपित प्राणों के सुर थे उस पल में,
गतिशील कई आशाएँ थी इस जीवन की,
झरणों सा संगीत था उस लहर में,
रुकी है प्रहर, रुके हैं गुंजित स्वर उस कोयल की...
रुकी सी स्वर, रुकी सी गायन इस जीवन की....
गीत कोई आशा के तुम फिर गा दो,
प्राणों के अवरोह को अब इक नई दिशा दो,
अवरोह का ये प्रहर लगे आरोह सा,
रुकी हैं रुधिर, रुके हैं नसों में लहु ठहरी जल सी...
रुकी सी प्रहर, रुकी सी साँसें इस पल की.....
Saturday 18 June 2016
प्रीतम लघु जीवन के
खिलकर हँसते वो जैसे नव-पात पीपल के,
कोमल तन के वो जैसे नव-कोपल सेमल के,
सहिष्णु मन के वो जैसे नव-आश दुल्हन के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-चराग इस लघु जीवन के।
निश्छल मूरत सी वो जैसे नव-आभा देवी के,
कुम्हलाई सिमटी वो जैसे नव-लज्जा लाजवन्ती के,
इठलाती चलती वो जैसे नव-नृत्य हों मयूरी के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-विहान इस लघु जीवन के।
भिगोए तन को वो जैसे नव-घटाएँ बादल के,
कानों में मिश्री घोले वो जैसे नव-मिठास मध के,
आँखों में रहते वो जैसे नव-प्रतिमा मंदिर के,
हैं मेरे प्रीतम वो जैसे नव-प्राण इस लघु जीवन के।
रिमझिम सावन से वो जैसे नव-बूँदें इस मधुवन के।
Monday 11 April 2016
मूक प्राण
गुमसुम सी सजनी वो हाथों में मेंहदी रचकर,
इक सशंक जिज्ञासा पलती मन के भीतर,
अपरिचित सी आहट हर पल मन के द्वारे पर,
क्या वो हल्दी निखरेगी सजनी के तन पर?
द्वार हृदय के बरबस खोल रखें हैं उस सजनी नें,
कठिन परीक्षा देनी है उसे इक अनजाने को,
अपनेपन की परिभाषा इक नई लिखनी है उसको,
क्या वो अपरिचित अपनाएगा उस भाषा को?
मुक्ति भाव खोए से है सजनी की जड़ आँखों में,
भविष्य धुमिल है उसकी घनघोर कुहासों में,
पाँव थमें है स्तंभ शेष से, असमंजस है उसके मन में,
क्या मूक प्राणों के निर्णय ऐसे होते हैं जीवन में?
Saturday 26 March 2016
तुम दीप जलाने ना आई
हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया!
प्रज्जवलित सदियों से एक दीप ह्रदय में,
जलता बुझ-बुझ कर साँसों की लौ मेंं,
नीर हृदय के लेकर जल उठता धू-धू कर मन में,
सूखे हैं अब वो नीर बुझ रहा दीप इस हिय में ।
तूम आ जाते जल उठता असंख्य दीप जीवन में,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।
निर्झर नीर जज्बातों का बह रहा चिर निरंतर,
रुकता है ये कब अरकंचन के पत्तों पर,
अधूरी प्यास हृदय की प्यासी सागर के इस तट पर,
आकुल प्राणों के कण-कण किसकी आहट पर।
तुम आ जाते जल उठता दीप हृदय के इस तट पर,
तुम दीप जलाने ना आई, प्राणों का आधार ना मिल पाया।
हृदय अरकंचन के पत्तों सा, जज्बात बूँदों सा बह आया।
Tuesday 1 March 2016
मोह भंग
Friday 15 January 2016
हिरण सा मन
कुटिल शिकारी के जाल फसा मोहवश,
कुलाँचे भर लेने को उत्तेजित टांगें,
चाहे तोड़ देना मोहबंधन के जाल बस।
फेके आखेटक ने मोह के कई वाण,
चंचल मन भूल वश ले फसता जान,
मन में उठती पीड़ा पश्चाताप के तब,
जाल मोहमाया का क्युँ आया न समझ।
छटपटाते प्राण उसके हो आकुल,
मोहपाश क्युँ बंधा सोचे हो व्याकुल,
स्वतंत्र विचरण को आत्मा पुकारती,
धिक्कारती खुद को हिरण ग्लानि वश।
Friday 1 January 2016
विश्राम दे प्राणों को तू
Monday 28 December 2015
साथ मेरे तुम क्यूँ नही आए
कोलाहल मची है मन के अन्दर,
प्राणों के आवर्त मे भी लघु कंपन,
अपनी वाणी की कोमलता से,
कोलाहल क्युँ ना तुम हर जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्यूँ नही आए।
इक क्षण को तब मिटी थी पीड़ा,
साथ तुम्हारा मिला था क्षण भर,
कोलाहल तब मिटा था मन का,
तुमसंग जीवन जी गया मैं पल भर,
बोलो ! साथ मेरे तुम क्युँ नही आए।
अवसाद मिटाने तुम आ जाते,
जीवन संगीत सुनाने तुम आ जाते,
वीणा तार छेड़ने तुम आ जाते,
जीवन क्लेश मिटानें तुम आ जाते,
बोलो ! साथ मेरे तूम क्युँ नही आए।
Friday 25 December 2015
क्षण-क्षण मधु-स्मृतियाँ
जीवन प्रात् चाहे फिर, अन्तहीन लय कण-कण में,
प्राण अधीर प्रतिपल चाहे मधुर विस्मृति प्रांगण मे,
मिले जीवन सौन्दर्य, मर्त्य दर्शन, प्रतिपल हर क्षण में,