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Friday 19 June 2020

मन हो चला पराया

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

लचकती डाल पर,
जैसे, छुप कर, कूकती हो कोयल,
कदम की ताल पर,
दिशाओं में, गूंजती हो पायल,
है वो रागिनी या है वो सुरीली वादिनी!
वो कौन है?
जो लिए, संगीत आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

आँखें मूंद कोई,
कुछ कह गया हो, प्यार बनकर,
गिरी हो बूँद कोई,
घटा से, पहली फुहार बनकर,
है वो पवन, या वो है नशीला सावन!
वो कौन है?
जो लिए, झंकार आया!

जग उठी, सोई सी संवेदनाएँ,
मन हो चला पराया!

चहकती सी सुबह,
जैसे, जगाती है झक-झोरकर,
खोल मन की गिरह,
कई बातें सुनाती है तोलकर,
है वो रौशनी या वो है कोई चाँदनी!
वो कौन है?
जो लिए, पुकार आया!

मेरी सुसुप्त संवेेेेदनाओं को फिर पिरोने,
वो कौन आया?
मन हो चला पराया!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 10 October 2018

अब कहाँ वो कहकशाँ

वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....

न जाने, गुजरा है अब कहाँ वो कारवां,
धूल है हर तरफ,
फ़िज़ाओ में पिघला सा है धुआँ.....

गुजर चुके है जो, वक्त की तेज धार में,
वो रुके है याद में,
वो शाम-ओ-शहर अब हैं कहाँ.....

कभी जो कहते थे, दुनिया बसाऊंगा मै,
रातें सजाऊंगा मैं,
वो ही सूनी कर गए हैं बस्तियां.....

भिगोती थी कभी, कहकहों की बारिशें,
चुप है वो फुहारें,
है वीरान सा अब वो कहकशाँ......

अब ढ़ूंढता हूँ, फिर वही शाम-ओ-शहर,
वो रास्ते दर-बदर,
मिट चुके है जो कदमों के निशां.....

वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....

Monday 25 June 2018

प्रणय फुहार

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

सुकून सा कोई, मिला है हर मौसम,
न ही गर्मी है, न ही झुलसती धूप,
न ही हवाओं में, है कोई दहकती जलन...

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

कोई नर्म छाँव, लेकर आया हो जैसे,
घन से बरसी हों, बूंदों की ठंढ़क,
रेतीली राहों में, कम है पाँवों की तपन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

चल पड़ता हूं मैं गहरे से मझधार में,
भँवर कई, उठते हों जिस धार में,
है बस चाहों में, इक साहिल की लगन....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

हाँ! ये तपिश, पल-पल होती है कम,
है ऐसा ही, ये प्रणय का मौसम,
इस रिमझिम में, यूं भीगोता हूं मैं बदन.....

प्रणय की फुहार में, जब भी भीगा है ये मन .....

Monday 18 July 2016

ओ मेरे साजन

फुहारें रिमझिम की लेकर आई फिर साजन की यादें..........

घटाओं ने आँचल को बिखेरे हैं यूँ झूम-झूमकर,
बिखरी हैं बूंदें सावन की तन पर टूट-टूटकर,
वो कहते हैं इसको, है यह सावन की पहली फुहार,
मन कहता है, साजन ने फिर आज बरसाया हैं मुझ पर प्यार।

साजन मेरा साँवला सा, है सावन का वो संगी,
साथ-साथ रहते हैं दोनो, उन घटाओं के उपर ही,
वो कहते है, बावला है प्रियतम तेरा बरसाता है फुहार,
मन कहता है, दीवाना है साजन मेरा करता वो मुझसे गुहार।

ओ काले बादल जाकर मेरे साजन से तुम ये कहना,
छुप-छुपकर बूँदों से मेरे तन को ना सहलाए,
कोरा आँचल भींगा-भीगा सा पहना है मैंने भी तन पर,
लहरा दे इनको भी प्यार से, छलका दे ऱिमझिम सी फुहार।

ओ मेरे नटखट साँवले से मधुप्रिय साजन,
तुम झिटको फिर से घटाओं का ये भींगा सा आँचल,
पड़ने तो फुहार ऱिमझिम की तन पर टूट-टूटकर,
भीगे ये काया, भीगे ये मन, भीग जाए मेरे आँगन की बहार।

Friday 8 April 2016

फुहार

इक लहर बन के लहराते अगर मन की इस बाग पे!

फुहार बन के बरसे थे वो एक दिन,
खिल उठी थी विरानियों में गुलशन वहीं,
चमन की हर शाख पर बूँदें छलक आई थी,
गर्म पत्तो की साँसे भी लहराई थी।

फिर वही ढूंढ़ता है दिल फुहारों के दिन,
वो बरसात किस काम की जब बहारें न हों,
बूँदें छलकती रहें चमन की हर शाख पर,
हरी पत्तियों की साँसें कभी गर्म न हों।

वादियों के ये दामन पुकारती हैं तुम्हें,
ये खुला आसमाँ फलक पे ढ़ूंढ़ती हैं तुम्हें,
गुम हुए तुम कहाँ चमन की शाख से,
इक लहर बन के लहराओ मन की इस बाग पे।

Thursday 3 March 2016

अकस्मात् ही

कुछ मन की खुशी, अकस्मात् मिली यूँ,
रेत भीग गई हो कहीं, रेगिस्तान में  ज्यूँ,
जैसे जून में जमकर बरसी है बारिश यूँ,
कौंध गया है मन जैसे ठंढ़ी फुहार में यूँ।

हठात् मिल जाता है जब मनचाहा कोई,
खुशी मिलन की तब हो जाती है दोगुनी,
अकस्मात् बिछड़े जब, मिल जाते कहीं,
जीने की चाहत तब, बढ़ जाती और भी।

बिजली कौंधती बारिश मे अकस्मात् ही,
बूंद बनती है मोती सीप में अकस्मात् ही,
आसमान मे छाते हैं बादल अकस्मात् ही,
दो दिल मिलते हैं जीवन में अकस्मात ही।

पल पल की ये खुशियाँ जीवन की निधि,
हर पल जीवन जीने की देती है ये शक्ति,
अकस्मात् गले किसी को लगा लो अभी,
मंत्र शायद खुश रहने का जीवन में यही।