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Monday 25 May 2020

कचोट

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

अकाल था, या शून्य काल?
कुछ लिख भी ना पाया, इन दिनों....
रुठे थे, जो मुझसे वे दिन!
छिन चुके थे, सारे फुर्सत के पल,
लुट चुकी थी, कल्पनाएँ,
ध्वस्त हो चुके थे, सपनों के शहर,
सारे, एक-एक कर!

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

विहान था, या शून्य काल?
हुए थे मुखर, चाहतों में पतझड़....
ठूंठ, बन चुकी थी टहनियाँ,
कंटको में, उलझी थी कलियाँ,
था, अवसान पर बसन्त,
मुरझाए थे, भावनाओं के गुलाब,
सारे, एक-एक कर!

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

सवाल था, या शून्य काल?
लिखता भी क्या, मैं शून्य में घिरा....
अवनि पर, गुम थी ध्वनि!
लौट कर आती न थी, गूंज कोई,
वियावान, था हर तरफ,
दब से चुके थे, सन्नाटों में सृजन,
सारे, एक-एक कर!

देती रही, आहटें,
धूल-धूल होती, लिखावटें,
बिखर कर,
मन के पन्नों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 27 December 2015

तुम मुझसे दूर कहीं

तुम मुझ से है दूर कहीं और सोच रहा हूँ मैं....

जैसे मौन बह रहा हो लहरों में,
और आ छलका हो मेरे प्यासे प्यालों में,
उन लहरों से दूर, कहीं मौजों में जीता हूं मैं,
मौन लहर की वो खामोशी पीता हूं मैं.....

तुम मुझ से है दूर कहीं और सोच रहा हूँ मैं....