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Wednesday 28 July 2021

तन और मन

दिन-दिन, चिन्तित, ये तन गलै,
बेपरवा मन, अपनी ही राह चलै,
तन, कब चंचल मन की सुनै,
मन, तन की, कब परवाह करै!

सावन की बूँदों संग, भीगे तन,
भीगे से मौसम संग, तरसे ये मन,
भिन्न, परस्पर, तन और मन,
चुन कर, राह अलग, चले मन!

मन झांके, गुजरे से गलियों में,
खुश्बू ढूंढे, सूखे बन्द कलियों में,
भटके ये मन, उन वीरानों में,
रखा है क्या, उन अफसानों में!

धुँधलाती, वो राहें, वो गलियाँ, 
भरमाती है, वो बाहें, वो दुनियाँ,
बस तन्हाई, पलती हो जहाँ,
लौट वहाँ तब, जाए तन कहाँ!

तन का बैरी, येही चंचल मन,
चढ़ती उमर तले, ढ़ल जाए तन,
पाए चैन कहाँ, प्यासा मन,
तन की परवाह, करै कब मन!

दिन-दिन, तिल-तिल तन गलै,
बेफिक्र मन, अपनी ही राह चलै,
यह मन, कब तन संग ढ़लै,
दिन-दिन, मन, लापरवाह बनै!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 23 January 2020

दर्पण मेरा

अब नहीं पहचानता, मुझको ये दर्पण मेरा!
मेरा ही आईना, अब रहा ना मेरा!

पहले, कभी!
उभरती थी, एक अक्स,
दुबला, साँवला सा,
करता था, रक्स,
खुद पर,
सँवर लेता था, कभी मैं भी,
देख कर,
हँसीं वो, आईना,
पहले, कभी!

अब कभी देखता हूँ, जब कहीं मैं आईना!
सोच पड़ता हूँ मैं! ये मैं ही हूँ ना?

अब, जो हूँ!
बुत, इक, वही तो हूँ,
मगर, अंजाना सा,
हुआ है, अक्स,
बे-नूर,
वक्त की थपेडों, से चूर-चूर,
मजबूर,
कहीं, दर्पण से दूर,
अब, जो हूँ!

अब ना रहा, मैं आईने में, उस मैं की तरह!
हैरान है, ये आईना, मेरी ही तरह!

मुझ में ही!
बही, एक जीवन कहीं,
जीवंत, सरित सी,
वो, बह चला
सलिल,
बे-परवाह, अपनी ही राह,
मुझसे परे,
छोड़ अपने, निशां,
मुझ में ही!

हरेक झण, चुप-चुप रहा, सामने ये दर्पण!
मेरे अक्स, चुराता, मेरा ये दर्पण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 27 April 2016

वो बेपरवाह

वो बेपरवाह,
सासों की लय जुड़ी है जिन संग,
गुजरती है उनकी यादें,
हर पल आती जाती इन सासों के संग।

वो बेपरवाह,
बस छूकर निकल जाते है वो,
हृदय की बेजार तारों को,
समझा है कब उसने हृदय की धड़कनो को।

वो बेपरवाह,
अपनी ही धुन मे रहता है बस वो,
परवाह नही तनिक भर उसको,
पर कहते है वो प्यार तुम्ही से है मुझको।

वो बेपरवाह,
हृदय की जर्जर तारो से खेले वो,
मन की अनसूनी कर दे वो,
भावनाओं के कोमल धागों को छेड़े वो।

वो बेपरवाह,
टूट टूट कर बिखरा है अब ये मन,
बेपरवाह वो कहता है धड़कन,
बंजारा सा फिरता अब व्याकुल बेचारा मन।

वो बेपरवाह,
झाक लेती गर हृदय के प्रस्तर में वो,
सुन लेती गर सासों की लय वो,
जीवन के लम्हों से लापरवाह ना होते वो।

वो बेपरवाह,
ललाट पर बिंदियों की चमकती कतारें होती,
सिन्दुरी मांग अबरख सी निखर उठती,
सुन्दर सी मोहक तस्वीर इस धड़कन में भी बसती।

Friday 1 April 2016

स्वार्थ का स्नेह

स्वार्थ सिद्ध कर पुकार अनसुनी वो करते रहे,
पुकारता रहा फिर मैं, पर आवाज सुन भी न वो सके!

जान कर भी अंजान से बने रहे वो,
परवाह स्नेह की तनिक भी कर न सके वो,
बेपरवाह अल्हर मगरूर से बड़े वो,
कत्ल की फितरत उनकी, धोखे से बने वो।

पुकारता रहा मैं, पर आवाज सुन भी न सके वो!

हर वक्त भूले भूले से लगते रहे वो,
हर कदम अंजान बनने की कोशिश में वो,
स्वार्थ की सीमा से अधिक स्वार्थी वो,
खोट नियत में उनकी, स्नेह का पर्दा किए वो।

पुकारता रहा मैं, पर आवाज सुन भी न सके वो!

असंख्य झूठ के ढ़ेर पर चढ़ते रहे वो,
कई बार झूठ ही अबतक सबसे कहते रहे वो,
फरेब की चाल नित नए चलते रहे वो,
झूठ नियत में उनकी, सच का झंडा लिए वो।

पुकारता रहा मैं, पर आवाज सुन भी न सके वो!

एतबार बातों पे उनकी हम करते ही रहे,
दौड़ गली के उनकी लगाते हम रहे,
मतलबों के वक्त साथ वो मेरे चलते रहे,
मतलब निकल गई तो अंजान से वो हो लिए।

पुकारता रहा मैं, पर आवाज अनसुनी वो करते रहे!