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Monday 12 February 2024

दास्तां

ना थी खबर, ये दो किनारे हैं अलग,
सर्वथा, समानांतर और पृथक,
पाट पाएं, कब इन्हें,
गुजरती सदी और उम्र की नदी,
अब जो है ये इल्जाम....

न ये था पता, पल में बनती है दास्तां,
गुजरती हैं, पलकों में सदियां,
भरता, ये ज़ख्म कहां!
बदलती हैं कहां, पल के दास्तां,
और, किस्से वो तमाम.... 

अब ये दास्तां, यही राह और रास्ता,
उन्हीं सदियों से, इक वास्ता,
कैसे हों भला, पृथक,
सदी और गुजरती उम्र की नदी,
पिघलता सा हर शाम....

Monday 31 May 2021

पथ के आकर्षण

पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

चलते-चलते, इक संग, इक पथ में,
मन को, ये कर जाते, वश में,
दामन में, ये कब आए,
वो आकर्षण, 
मन-मानस में, बस जाते हैं!

दामन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

जैसे, कोई सम्मोहन, या कोई जादू,
मन को, करता जाए, बेकाबू,
छलक उठे, पैमानों में,
बूँदों के वो घन,
फिर भी, प्यास बढ़ा जाते हैं!

आँगन में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

इक दर्द, टीस जरा, मुझे है हासिल,
पीड़ वही, करती है, बोझिल,
यूँ, पथ में ही छूटे हम,
उन यादों में डूबे,
मुझसे दूर, मुझे ही ले जाते है!

पहलू में कब आते हैं!
पथ के आकर्षण,
पीछे, पथ में ही रह जाते हैं .....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 30 May 2021

जागे सपने

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

शायद, सपनों के पर, 
छूट चले हों, बोझिल पलकों के घर,
उड़ चली नींद,
झिलमिल, तारों के घर,
आकाश तले, संजोए ख्वाब कई,
जागा सा मैं!

जाने, फिर लौटे कब,
शायद, तारों के घर, मिल जाए रब,
खोई सी नींद,
दिखाए, दूजा ही सबब,
पलकें मींचे, नीले आकाश तले,
जागा सा मैं!

ये, सपनों की परियाँ,
शायद, हों इनकी, अपनी ही दुनियाँ,
भूली हो नींद,
अपने, पलकों का जहाँ,
खाली उम्मीदों के, दहलीज पर,
जागा सा मैं!

जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 19 January 2021

झुर्रियाँ

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

उम्र, दे ही जाती हैं आहट!
दिख ही जाती है, वक्त की गहरी बुनावट!
चेहरों की, दहलीज पर, 
उभर आती हैं.....
आड़ी-टेढ़ी, वक्र रेखाओं सी ये झुर्रियाँ,
सहेजे, अनन्त स्मृतियाँ!

वक्त, कब बदल ले करवट!
खुरदुरी स्मृति-पटल, पे पर जाए सिलवट!
चुनती हैं एक-एक कर,
उतार लाती हैं.....
जीवन्त भावों की, गहरी सी ये पट्टियाँ,
मृदुल छाँव सी, झुर्रियाँ!

घड़ी अवसान की, सन्निकट!
प्यासी जमीन पर, ज्यूँ लगी हो इक रहट!
इस, अनावृष्ट सांझ पर,
न्योछार देती हैं...
बारिश की, भीगी सी हल्की थपकियाँ, 
कृतज्ञ छाँव सी, झुर्रियाँ!

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 8 November 2017

बोझिल रात

यूँ बड़ी देर तक, कल ठहर गई थी ये रात,
भावुक था थोड़ा मैं, कुछ बहके थे जज्बात,
शायद कह डाली थी मैने, अपने मन की बात,
खैर-खबर लेने को, फिर आ पहुँची ये रात!

याद मुझे फिर आई, संत रहीम की ये बात...
"रहिमन निजमन की व्यथा मन ही राखो गोय,
  सुनि इठलैहें लोग सब, बाँट न लइहे कोय"
पर चुग गई चिड़ियाँ खेत अब काहे को पछतात..

बड़ी ही खामोशी से फिर, बैठी है ये रात,
झिंगुर, जुगनू, कीट-पतंगो को लेकर ये साथ,
धीरे-धीरे ऊलूक संग बाते करती ये रात,
उफ! फिर से बोझिल होते, बीतते ये लम्हात...

अब सोचता हूँ, पराई ही निकली वो रात,
पीछा कैसे ये छोड़ेगी, मनहूस बड़ी है ये रात,
रखना है काबू में, मुझको अपने जज्बात,
ना खोऊँगा मैं उसमें, चाहे कुछ कहे ये रात...

Thursday 13 April 2017

क्युँ हुई ये सांझ!

आज फिर क्युँ हुई है, ये शाम बोझिल सी दुखदाई?

शांत सी बहती वो नदी, सुनसान सा वो किनारा,
कहती है ये आ के मिल, किनारों ने है तुझको पुकारा,
बहती सी ये पवन, जैसे छूती हो आँचल तुम्हारा,
न जाने किस तरफ है,  इस सांझ का ईशारा?

ईशारों से पुकारती ये शाम, है बोझिल बड़ी दुखदाई?

चुप सी है क्युँ, कलरव सी करती वो पंछियाँ,
सांझ ढले डाल पर, जो नित करती थी अठखेलियाँ,
निष्प्राण सी किधर, उड़ रही वो तितलियाँ,
निस्तेज क्युँ हुई है, इस सांझ की वो शोखियाँ?

चुपचुप गुमसुम सी ये शाम, है बोझिल बड़ी दुखदाई?

हैं ये क्षण मिलन के, पर विरहा ये कैसी आई,
सिमटे हैं यादों में वो ही, फैली है दूर तक तन्हाई,
निःशब्द सी खामोशी हर तरफ है कैसी छाई,
निष्काम सी क्युँ हुई है, इस सांझ की ये रानाई?

खामोशियों में ढली ये शाम, है बोझिल बड़ी दुखदाई?

Saturday 16 April 2016

बोझिल पलकें

धूल मैं उन राहों की, जिन राहों पे है मेरा प्रीतम वो।

नयन अभिराम निहारती हैं, बस अब राह वो,
जिस दुरूह पथ पर, चल पड़ा था मेरा अंजान वो,
छूटे थे दामन जहाँ, छूटा जहाँ था हाथ वो,
निष्पलक नैन निहारते, राह भूली अब दिन रात वो।

अविरल भीगीं से नैन, बोझिल सी पलकें हैं वो,
बस यादों में अंजान की, अनवरत खोई सी है वो,
लग रहा अंजान अब, शक्ल पहचानी सी वो,
दिल मे बसते थे कभी, बेगाने से अब लगते हैं वो।

चुभ रहे कील से अब, याद बनकर दिल में वो,
हसरत फूलों की थी, उजड़ा है अब गुलशन ही वो,
यादों में मूरत है उसकी, अब सपनों मे बस वो,
धूल मैं उन राहों की, जिन राहों पे है मेरा प्रीतम वो।