जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Saturday 13 March 2021
शिवर्धांगिणी
Sunday 10 November 2019
घर आए राम
था वनवास का इक, दीर्घ अन्तराल!
युग बीते, सदियाँ बीती....
ना बीत सका था, वो बारह साल!
पर, अन्तिम है यह साल,
बेघर, सदियों भटक चुके वो दर-दर,
तोड़ वनवास, राम आएंगे घर,
पुनर्स्थापित होगी मर्यादा,
प्रतिष्ठित होंगे, अब अपने घर राम!
बेघर, भटके दर-दर, अब घर आएंगे राम!
होना ही था, यह अति-दीर्घ विरह!
बेशक, कलयुग है यह....
मर्यादा की, परिभाषा ही झूठी थी,
सारी मर्यादाएं, टूटी थी,
सत्य की, बिखरी सी रिक्त सेज पर,
झूठ, फन फैलाए लेटी थी,
पुनः जाग उठे हैं राम,
झूठ का, हुआ अंततः काम तमाम!
बेघर, भटके दर-दर, अब घर आएंगे राम!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
एक आलेख-संदर्भ:
अयोध्या केस के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने शनिवार दिनांक 09.11.2019 को, 40 दिनों तक चली लगातार सुनवाई के पश्चात, अपने फैसले में स्पष्ट रूप से यह कहा कि अयोध्या में विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद स्थल के नीचे एएसआई की खुदाई से संकेत मिलता है कि ‘‘अंदर जो संरचना थी वह 12वीं सदी की हिन्दू धार्मिक मूल की थी।’’
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 23 अक्टूबर, 2002 को खुदाई और विवादित स्थल पर वैज्ञानिक जांच का काम सौंपा था।
पाँच सदस्यीय संविधान पीठ नें साक्ष्यों के आधार पर यह भी माना कहा कि बहुस्तरीय खुदाई के दौरान एक गोलाकार संरचना सामने आयी जिसमें ‘मकर प्रणाला’ था, जिससे संकेत मिलता है कि आठवीं से दसवीं सदी के बीच हिन्दू वहां पूजा-पाठ करते थे।
पीठ ने कहा, ‘‘अधिसंभाव्यता की प्रबलता के आधार पर अंदर पाई गई संरचना की प्रकृति इसके हिंदू धार्मिक मूल का होने का संकेत देती है जो 12 वीं सदी की है।’’ पीठ ने कहा कि एएसआई की खुदाई से यह भी पता चला कि विवादित मस्जिद पहले से मौजूद किसी संरचना पर बनी है।
एएसआई की अंतिम रिपोर्ट बताती है कि खुदाई के क्षेत्र से मिले साक्ष्य दर्शाते हैं कि वहां अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग सभ्यताएं रही हैं जो ईसा पूर्व दो सदी पहले ‘उत्तरी काले चमकीले मृदभांड’ तक जाती है।
न्यायालय ने कहा, ‘‘एएसआई की खुदाई ने पहले से मौजूद 12वीं सदी की संरचना की मौजूदगी की पुष्टि की है। संरचना विशाल है और उसके 17 लाइनों में बने 85 खंभों से इसकी पुष्टि भी होती है।’’
पुरातात्विक साक्ष्यों का विश्लेषण करने के बाद शीर्ष अदालत ने कहा कि नीचे बनी हुई वह संरचना जिसने मस्जिद के लिए नींव मुहैया करायी, स्पष्ट है कि वह हिन्दू धार्मिक मूल का ढांचा था।
यह कलयुग का चरम था, जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम प्रताड़ित व तिरस्कृत हुए थे।
सार सत्य यही है कि भूतकाल में भारत के समृद्ध गौरवशाली इतिहास को पापियों ने रौंदकर हमें राम-रहित अमर्यादित समाज में रहने को विवश किया गया।
परन्तु, अब दीप जलाओ, खुशियाँ मनाओ, पुनः अपने घर आए राम।
Tuesday 3 April 2018
ढ़हती मर्यादाएँ
चलते रहे दो समानान्तर पटरियों पर,
इन्सानी कृत्य और उनके विचार,
लुटती रही अनमोल विरासतें और धरोहर,
सभ्यताओं पर हुए जानलेवा प्रहार!
ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!
कथनी करनी हो रहे विमुख परस्पर,
वाचसा कर्मणा के मध्य ये अन्तर,
उच्च मानदंडों का हो रहा खोखला प्रचार,
टूटती रही मान्यताओं की ये मीनार!
ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!
करते रहे वो मानदण्डों का उल्लंघन,
भूल गए है छोटे-बड़ों का अन्तर,
न रिश्तों की है गरिमा, न रहा लोकलाज,
मर्यादा का आँचल होता रहा शर्मसार!
ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!
कर्म-रहित, दिशाविहीन सी ये धाराएँ,
कहीं टूटती बिखरती ये आशाएँ,
काल के गर्त मे समाते मूल्यवान धरोहर,
धूलधुसरित होते रहे मन के सुविचार!
ढहती रही उच्च मर्यादाओं की स्थापित दीवार!
Sunday 1 May 2016
रहना तो है हमें
रीति रिवाज हम कहते हैं जिसे,
सीमा इन मर्यादाओं की बंधी है बस उनसे,
पाप-पुन्य तो बस समझ के है फेरे,
रहना तो है हमें, बस इन रीतियों के बंधन के ही तले।
सच है क्या और झूठ क्या, है बस समय का फेर ये!
कभी तो ये मन भटकता दिशाहीन सा,
रीतियों रिवाजों की परवाह तब कौन करता,
सच-झूठ तो बस समय के है फेरे,
रहना तो है हमें, पर मन पर नियंत्रण तब कौन करे।
क्या सही और क्या गलत, है बस समझ का फेर ये!
भटका था मन जिस पल कहाँ थी वो मर्यादा,
मन को नियंत्रित कब कर सका है मन की पिपाशा,
सही-गलत तो बस समझ के है फेरे,
रहना तो है हमें, पर इन विसंगतियों से ही हैं हम बने।