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Thursday 18 August 2022

परिचय


क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

गल जाना है इक दिन, मिल जाना है माटी में,
फिर, पहने फिरते हो क्यूं,माया का गहना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

अन्त:स्थित इक चित्त, रहा सर्वथा अपरिचित,
पहले, इक डोर परिचय के, उनसे बांधना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

पूजे जाते वो शील, जिनमें अनुशीलन रब का,
राह पड़े उन शीलों को, कौन बनाए गहना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

मिल लेना, उस से, जो मिलता हो मुश्किल से,
छिछले से सागर तट पर, मोती क्या चुनना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

ढूंढो तो इस कण-कण मिल जाएं, शायद राम,
पर आवश्यक, विश्वास, लगन और साधना!

क्षय होते, इस काया से, परिचय क्या करना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 26 December 2020

कठपुतली

तू, क्यूँ खुद पर, इतना करे गुमान!
देने वाला वो, और लेने वाला भी वो ही,
बस, ये मान!  क्यूँ बनता अंजान!
ढ़ल जाते हैं दिन, ढ़ल जाती है ये शाम,
उनके ही नाम!

ईश्वर के हाथों, इक कठपुतली हम!
हैं उसके ही ये मेले, उस में ही खेले हम,
किस धुन, जाने कौन यहाँ नाचे!
हम बेखबर, बस अपनी ही गाथा बाँचे,
बनते हैं नादान!

ये है उसकी माया, तू क्यूँ भरमाया!
खेल-खेल में, उसने ये रंग-मंच सजाया,
सबके जिम्मे, बंधी इक भूमिका,
पात्र महज इक, उस पटकथा के हम,
बस इतना जान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एक सत्य प्रसंग से प्रेरित .....

दान देते वक्त, संत रहीम, जब भी हाथ आगे बढ़ाते थे, तो शर्म से उनकी नज़रें नीचे झुक जाती थी।

यह बात सभी को अजीब सी लगती थी! इस पर एक संत ने रहीम को चार पंक्तियाँ लिख भेजीं -

"ऐसी देनी देन जु, कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचौ करौ, त्यों त्यों नीचे नैन।।"

अर्थात्, रहीम! तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो? जैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते हैं वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें, तुम्हारे नैन, नीचे क्यूँ झुक जाते हैं?

संत रहीम ने जवाब में लिखा -

"देनहार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करैं, तासौं नीचे नैन।।"

अर्थात्, देने वाला तो, मालिक है, परमात्मा है, जो दिन रात भेज रहा है। परन्तु लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, रहीम दे रहा है। यही सोच कर मुझे शर्म आती है और मेरी नजरें नीचे झुक जाती हैं।

Sunday 6 March 2016

कर्ण सा दुर्भाग्य किसी का न हो!

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस कुन्तीपुत्र कर्ण नें?

कोख मिला कुन्ती का किन्तु, कुन्ती पुत्र न कहलाया,
जिस माता ने जन्म दिया, उसने ही उसको ठुकराया,
कुल रत्न होकर भी,  कुल का यशवर्धन न बन पाया,
आह! विडम्बना ये कैसी,जीवन की कैसी है ये माया।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस दानवीर कर्ण नें?

उपाधि सूर्यपुत्र की पर,सूतपुत्र जीवन भर कहलाया,
कर्मों से बड़ा दानवीर पर, ग्यान का दान न ले पाया,
दान कवच-कुंडल का उससे, इंन्द्र नें कुयुँकर मांगा,
आह! ये कैसी विधाता की लीला, ये कैसी है माया।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस सूर्यपुत्र कर्ण नें?

ग्यान गुरू का पाने को,  कह गया छोटी सी झूठ वो,
सूत पूत्र के बदले खुद को, कह गया ब्राह्मण पूत्र वो,
शापित हुआ गुरू से तब, बना जीवन का कलंक वो,
अन्त समय जो काम न आया,पाया उसने ग्यान वो।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस महाग्यानी कर्ण नें?