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Sunday 13 February 2022

क्या फिर!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

कहीं न कहीं,
उम्मीद तो, इक रहेगी बनी,
इक आसरा, टिमटिमाता सा, इक सहारा,
एक संबल,
कि, कोई तो है, उस किनारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

अब जो कहीं,
बिछड़ोगे, तो बिसारोगे तुम,
बंदिशों में, आ भी न पाओगे, चाहकर भी,
रखना याद,
कि, हम हैं खड़े, बांहें पसारे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

झूठा ही सही,
आसरा, इक, कम तो नहीं,
टूट जाए, भले कल, कल्पना की इमारत,
पले चाहत,
कि, कोई तो है, मेरे भरोसे!

क्या, फिर मिलोगे कहीं!
समय और अनन्त के, उस तरफ ही सही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 29 March 2017

क्युँ गाए है घुंघरू!

छुन-छुन रुन-झुन की धुन फिर क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई आहट पर भरमाए है ये मन क्युँ,
बिन कारण के इतराए है ये मन क्युँ,
कोई समझाए इस मन को, इतना ये इठलाए है क्युँ,
बिन बांधे पायल अब नाचे है ये पग क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई कल्पित दृश्य पटल पर उभरे है क्युँ,
अब बिन ऐनक सँवरे है ये मन क्युँ,
कभी उत्श्रृंखल तो, कभी चुपचुप सा ये रहता है क्युँ,
कभी गुमसुम सा कहता कुछ नहीं है क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

कोई संग-संग गाए तो ये मन गाए ना क्युँ,
राग कोई छेड़े तो मन इठलाए ना क्युँ,
रिझाए जब मौसम की धुन, मयूर सा मन नाचे ना क्युँ,
बतलाए कोई आहट पर भरमाए ना ये मन क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन क्युँ गाए ना ये घुंघरू.....

कोई बुत सा ये मन, फिर बन जाए है क्युँ,
दिल की अनसूनी ये कर जाए है क्युँ,
छेड़ मिलन के गीत, फिर नैनों में ये भर जाए है क्युँ,
तन्हा रातों में आहट से भरमाए है ये मन क्युँ,
छुन-छुन रुन-झुन की धुन फिर क्युँ गाए हैं ये घुंघरू.....

Saturday 7 May 2016

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

वो मिल रहा पयोधर,
आकुल हो पयोनिधि से क्षितिज पर,
रमणीक क्षणप्रभा आ उभरी है इक लकीर बन।

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

वो झुक रहा वारिधर,
युँ आकुल हो प्रेमवश नीरनिधि पर,
ज्युँ चूम रहा जलधर को प्रेमरत व्याकुल महीधर।

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

अति रम्य यह छटा,
बिखरे हैं मन की अम्बक पर,
खिल उठे हैं सरोवर में नैनों के असंख्य मनोहर।

वो अतुल मिलन के रम्य क्षण छाए हैं अब दृग पर!

Tuesday 22 March 2016

रुत मिलने की आई (होली विशेष)

रुत मिलने की आई आँचल को लहराने दो।

बरसी है आग इन घटाओं से आज,
छलके हैं जाम इन बूदों के साथ,
भीगा भीगा सा तन सुलग रहा क्युँ आज,
बहका सा मन होली में आँचल को भीग जाने दो।

रुत मिलने की आई जुल्फों को बिखर जाने दो।

मस्त हवाएँ गुजर रही हैं तुमको छूकर,
बिखरे है ये लट चेहरे पर झूमकर,
आँखों में उतरा है जाम आज छलक कर,
उलझा हूँ मैं जुल्फो में जाम नजरों से पी लेने दो।

रुत मिलने की आई आज मुझको बहक जाने दो।