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Thursday 19 September 2019

भावुक था मैं?

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

क्यूँ भावनाओं में बहता था मैं!
क्या बेवजह, यूँ बहका-बहका था मैं!
गम औरों के, चुभते थे मुझको,
गैरों के दु:ख में, दुखता था दिल मेरा,
गैरों के टूटे सपनों के टुकड़े,
चुभते थे, आकर मेरी आँखों में,
दे जाती थी, पल-पल यातना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

अन्तहीन, अन्तःपीड़ा के ये घेरे!
व्यथित करते थे, मुझको शाम-सवेरे!
कोई अर्थ समेटे, बेसुध ही लेटे,
उलझी सी आँखें, निरुत्तर सी पलकें,
जैसे, बुत सुन्दर सी कोई,
व्यथित मन के, हाथों थी खोई,
देती थी, पल-पल उलाहना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

रातें थी वो, या उजाले दिन के!
सौगातें थी वो, या थे मन के मनके!
फेरता था मन, रातों में जिनको,
छुपा रखता था, उजाले में दिन के,
निज मन को, निचोड़ कर,
अन्तःज्योत को, कहीं छोडकर,
पहनाती थी, दुख का गहना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

भावना-विहीन, जीवन हो कैसे?
मन तंत्रिकाएँ, संज्ञा-विहीन हो कैसे?
जाऊँ चेतनाओं, से परे कहाँ,
चेतना-शून्य, हो मन कैसे यहाँ?
मूँद लूँ, ये आँखें मैं कैसे,
रोक दूँ, झंकृत स्वर को मैं कैसे?
चाहती थी, मूक वधिर रखना,
मुझको, मेरी ही भावना!

भावुक था मैं, या बेवजह थी मेरी भावना?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 28 March 2018

भावनाओं के भँवर

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

खुश कितने ही थे हम यहाँ......
प्रस्फुटित हुई जब भावना,
मोह वही दे रही ये प्रताड़ना,
मन के इस खंडहर में.....

कलपते रहे जब तक यहाँ......
पुलकित हुई ये भावना,
सैलाब है अब आँसुओं का,
हम फसे उसी भँवर में......

यातनाओं का ये कहर यहाँ....
देती रहेगी ये भावना,
मुखरित होती है ये और भी,
विछोह हो जब सफर मे......

ये विदाई के तमाम पल यहाँ....
भावनाए होती है जवाँ,
तब विलखते हैं हम यातना में,
खुशियों के इसी शहर में....

ये आकर फसे हैं हम कहाँ.......
भावनाओं के भँवर में,
यातनाओं के इस सफर में,
रात मे या दोपहर में....

Tuesday 27 March 2018

भावना या यातना

तुम बहाओ ना मुझे, फिर उसी भावना में.....

ठहर जाओ, न गीत ऐसे गाओ तुम,
रुक भी जाओ, प्रणय पीर ना सुनाओ तुम,
जी न पाऊँगा मैं, कभी इस यातना में....

न सुन सकूंगा, मैं तुम्हारी ये व्यथा!
फिर से प्रणय के टूटने की व्याकुल कथा,
टूट मैं ही न जाऊँ, कहीं इस यातना में....

यूं इक-इक दल, बिखरते हैं फूल से,
आह तक न भरते है, वो लबों पे भूल से,
यूं ना डुबोओ, तुम मुझे यूं भावना मे....

यूं दर्द के साज, क्यूं बजा रहे हो तुम,
सो चुके हम चैन से, क्यूं जगा रहे हो तुम,
चैन खो न जाए मेरा, इस यातना में.....

हाल पे मेरी, जरा तरस खाओ तुम...
भावना या यातना! ये मुझको बताओ तुम,
गुजरा हूं मैं भी, कभी इस यातना मे.....

बह न जाऊँ मैं, कहीं फिर उसी भावना में......